प्रतिफल
चन्द दिनों मे ही पर्याप्त नींद लेकर मैं स्वस्थ सी लगने लगी थी। उसमे करना भी कुछ ना था बस एकाग्रचित्त होकर मंत्र का मानसिक जाप करना था। आज पुनः उनके पास जाना था ।निलय किसी भी सूरत चलने को तैयार ना थे।दरअसल उन्हें विश्वास भी ना था इन बातों पर। मेरे अंदर की लालसा ने, कुछ धर्मगुरुओं द्वारा किये गलत आचरण को भी परे कर दिया था।
" गुरुजी मेरे विवाह को दस वर्ष हो चुके हैं,लेकिन हम संतान सुख से वंचित हैं और इलाज कराते कराते थक गए हैं।"
कुछ गणना के पश्चात , " आपको दवा, दुआ…
ContinueAdded by Archana Tripathi on June 17, 2019 at 3:18am — No Comments
कभी लगता है ,
वक़्त हमारे साथ नहीं है ,
फिर भी हम वक़्त का साथ नहीं छोड़ते।
कभी लगता है ,
हवा हमारे खिलाफ है ,
फिर भी हम हवा का साथ नहीं छोड़ते l
कभी लगता है ,
जिंदगी बोझ बन गयी है ,
फिर भी हम जिंदगी को नहीं छोड़ते l
कभी लगता है
सांस सांस भारी हो रही है ,
फिर भी हम सांस लेना नहीं छोड़ते l
ये सब जान हैं
और जान के दुश्मन भी l
जिंदगी की लड़ाई हम
जिंदगी में रह कर लड़ते हैं ,
जिंदगी के बाहर जाकर कौन…
Added by Dr. Vijai Shanker on June 16, 2019 at 10:04pm — No Comments
ता-उम्र उजालों का असर ढूढ़ता रहा ।
मैं तो सियाह शब में सहर ढूढ़ता रहा ।।
अक्सर उसे मिली हैं ये नाकामयाबियाँ ।
मंजिल का जो आसान सफ़र ढूढ़ता रहा ।।
मुझको मेरा मुकाम मयस्सर हुआ कहाँ ।
घर अपना तेरे दिल में उतर ढूढ़ता रहा ।।…
Added by Naveen Mani Tripathi on June 16, 2019 at 1:10am — 1 Comment
यारो! किस ये राह पर, चला आज इंसान
वृक्ष हीन धरती किया, कहा इसे विज्ञान
कहा इसे विज्ञान, नहीं कुछ ज्ञान लगाया
सूखा बाढ़ अकाल, मूढ़ क्यूँ समझ न पाया
कह विवेक कविराय, नहीं खुद को यूँ मारो
निशदिन बढ़ता ताप, इसे अब समझो यारो।।1
अभिलाषा प्रारम्भ है, मृगतृष्णा का यार
अंधी दौड़ विकास की, हुई जगत पे भार
हुई जगत पे भार, मस्त फिर भी है मानव
हर कोई है त्रस्त, विकास लगे अब दानव
कह विवेक कविराय, प्रकृति की समझो भाषा
पर्वत नदियाँ झील, नष्ट करती…
Added by Vivek Pandey Dwij on June 15, 2019 at 9:46am — No Comments
ताज़ा गर दिल टूटा है तो वक़्त ज़रा दीजै
क़ायम रखना रिश्ता है तो वक़्त ज़रा दीजै
**
सिर्फ़ शनासाई से होता प्यार कहाँ मुमकिन
इश्क़ मुक़म्मल करना है तो वक़्त ज़रा दीजै
**
पहले के दिल के ज़ख़्मों का भरना है बाक़ी
ज़ख़्म नया गर देना है तो वक़्त ज़रा दीजै
**
ख़्वाब कभी क्या बुनने से ही होता है कामिल
पूरा करना सपना है तो वक़्त ज़रा…
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on June 13, 2019 at 1:30am — 2 Comments
ऑफिस से बाहर निकलते ही उसका सर चकरा गया, गजब की लू चल रही थी. अब तपिश चाहे जितनी भी हो, काम के लिए तो बाहर निकलना ही पड़ता है. फोन में समय देखा तो दोपहर के ३.३० बज रहे थे. इस शहर में वह कम ही आना चाहता है, दरअसल मुंबई जैसे शहर में नौकरी करने के बाद ऐसे छोटे शहरों और कस्बों में उसे कुछ खास फ़र्क़ नजर नहीं आता.
सुबह आते समय तो ठीक था, लेकिन अभी उसे जाने के नाम पर ही बुखार चढ़ने लगा. स्टेशन से इस ऑफिस की दूरी बमुश्किल ३० मिनट की ही थी. लेकिन न तो यहाँ कैब थी और न ही किसी ऑटो के दर्शन हो रहे…
Added by विनय कुमार on June 12, 2019 at 6:58pm — 2 Comments
पायलों की खनक में दबा रह गया
दर्द आँखों में तन्हाई का रह गया
वो गया या नहीं, फ़र्क़ क्या रह गया
जहन में एक बस हादसा रह गया
रोकने की बहुत कोशिशें कीं मगर
वो गया और मैं देखता रह गया
अब के बिछड़ो तो दिल तोड़ जाना सनम
फिर न कहना कि इक आसरा रह गया
रात की सिसकिया थक के सोने चली
रौशनी से मेरा राब्ता रह गया
जाम छलके हैं कैसे करूँ इब्तेदा
कुछ मज़ा कुछ नशा यार का रह गया
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Anurag Mehta on June 12, 2019 at 2:00pm — 3 Comments
Added by Shaikh Zubair on June 12, 2019 at 1:41am — 3 Comments
कभी किसी को ना करे, भूख यहाँ बेहाल
रोटी सब दो जून की, पाकर हों खुशहाल।१।
मुश्किल से दो जून की, रोटी आती हाथ
खाने को यूँ आज तो, मिल बैठो सब साथ।२।
रोटी को दो जून की, अजब गजब से खेल
इसकी खातिर जग करे, दुश्मन से भी मेल।३।
रोटी को दो जून की, क्या ना करते लोग
झूठ ठगी दैहिक व्यसन, सब इसके ही योग।४।
रोटी बिन दो जून की, बिलखाती है भूख
रोटी पा दो जून की, ढूँढें लोग रसूख।५।
सदा भाग्य ने है लिखा,…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 11, 2019 at 4:30pm — 6 Comments
तपती धरा
छिड़क रहा नभ
धूप की बूंद
प्रचंड सूर्य
वीरान पनघट
झुलसी क्यारी
सूखे पोखर
जल रहा अंबर
प्यासे पखेरू
जलते दिन
भयावह गरमी
प्यासी है दूब
बिकता पानी
बढ़ता तापमान
जग बेहाल
दहकी धूप
गर्मी के दिन आये
निठुर बड़े
.... मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Neelam Upadhyaya on June 11, 2019 at 4:00pm — 7 Comments
Added by Rachna Bhatia on June 10, 2019 at 7:55pm — 5 Comments
"अरे महमूद भाई, कहाँ हो. आज सोसाइटी की मीटिंग में नहीं जाना क्या", रजनीश ने घर में कदम रखते हुए आवाज लगायी.
"आ रहे हैं भाई साहब, आजकल पता नहीं क्या हो गया है, ऑफिस से आने के बाद खामोश से रहते हैं", भाभीजान ने पानी का ग्लास रखते हुए कहा.
"कुछ परेशानी होगी ऑफिस की, मैं पूछता हूँ उससे. वैसे भी आजकल काम बहुत बढ़ गया है और तनाव भी", रजनीश ने सोफे पर बैठते हुए कहा और पानी का ग्लास उठा लिया.
"चाचू, मेरी चॉकलेट कहाँ है", कहते हुए छोटी आयी और रजनीश की गोद में चढ़ने लगी. रजनीश ने…
ContinueAdded by विनय कुमार on June 10, 2019 at 7:30pm — 6 Comments
“यार बड़ी दिक्कत है आजकल.”
“क्यों क्या हुआ.”
“रोज़ धर्म और देश भक्ति को लेकर बवाल हुआ करता है.”
“जब कुछ करने को न हो तब ऐसी छोटी-छोटी चीज़ें टाइम पास का अच्छा साधन होती हैं.”
“तुम्हारे कहने का मतलब जो कुछ भी आजकल हो रहा, सब टाइम पास है?”
“बिलकुल.”
“परसों जो लड़कों में मारपीट हुई, पुलिस ने लाठीचार्ज किया, मीडिया में बवाल मचा हुआ है, सब टाइम पास है?”
“बिलकुल है भाई. इसके अलावा इस बवाल का मतलब क्या है? तुम्हें कुछ सार्थकता दिखती है? नारे क्या देश…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on June 9, 2019 at 11:25pm — 8 Comments
सुबह का अखबार जैसे खून से सना हुआ था, इतनी वीभत्स खबर छपी थी जिसकी कल्पना करके ही दिमाग सुन्न हो जा रहा था. सामने चाय की प्याली रखी हुई थी लेकिन उसे पीने की इच्छा मर चुकी थी. उसने अपना सर पकड़ा और बिस्तर पर ही निढाल हो गयी.
"क्या हो गया है इस समाज को, अब और कितना नीचे गिरेंगे हम लोग?, उसके मुंह से बुदबुदाहट की शक्ल में आवाज निकली.
कुछ देर बाद कामवाली बाई आयी और उसने देखा कि चाय वैसे ही रखी है तो उसने टोका "मैडम, तबियत ठीक नहीं है क्या? मैं दूसरी चाय बना लाती हूँ और कोई दवा भी ला…
Added by विनय कुमार on June 9, 2019 at 11:16pm — 10 Comments
कैसे होते हैं फ़ना प्यार निभाने के लिए
छोड़ जाऊंगा नज़ीर ऐसी ज़माने के लिए
**
रूह का हुस्न जिसे दिखता वही आशिक़ है
जिस्म का हुस्न तो होता है लुभाने के लिए
**
दरमियाँ गाँठ दिलों के जो पड़ी कब सुलझी
कौन दीवार उठाता है गिराने के लिए
**
अच्छे लोगों की कमी रहती है क्या जन्नत में
क्यों ख़ुदा उनको है तैयार बुलाने…
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on June 8, 2019 at 12:30pm — 4 Comments
शरणार्थी
(1)
---
दो मित्र आपस में बातें कर रहे थे;एक मानवतावादी था, दूसरा समाजवादी।पहले ने कहा-
अरे भई!वो भी आदमी हैं,परिस्थिति के मारे हुए।बेचारों को शरण देना पुण्य-परमार्थ का काम है।
दूसरा:हाँ तभी तक,जबतक यहाँ के लोगों को शरणार्थी बनने की नौबत न आ जाये।
(2)
---
-हाँ,जुझारूपन हमारे खून में है।
-हमारी खातिर तुम क्या करोगे?
-जान भी दे सकते हैं।
-हमें वोट चाहिए।जान…
Added by Manan Kumar singh on June 8, 2019 at 8:53am — 2 Comments
1-
तुलसी बाबा कह गए, परहित सरिस न धर्म।
परपीड़ा सम है नहीं, अधमाई का कर्म।।
अधमाई का कर्म, मर्म यह जिसने जाना।
उसको ही नरश्रेष्ठ, जगत ने भी है माना।।
जहाँ प्रेम सौहार्द, वहीं है काशी-काबा।
परहित सरिस न धर्म, कह गए तुलसी बाबा।।
2-
सबको ही यह ज्ञात है, परहित सरिस न धर्म।
किंतु आज वह चैन में, जिसके कुत्सित कर्म।।
जिसके कुत्सित कर्म, उसी के वारे न्यारे।
झूठ कपट छल छिद्र, स्वार्थ ने पैर पसारे।।
मिथ्या पाले दम्भ, आदमी भूला रब को।
रब…
Added by Hariom Shrivastava on June 7, 2019 at 7:11pm — 3 Comments
गर्मी पर 5 दोहे ....
लू में हर जन भोगता, अनचाहा संताप।
दुश्मन मेघों का बना,भानु किरण का ताप।।
मेघों से धरती कहे, कब बरसोगे तात।
प्यासी वसुधा मांगती, थोड़ी सी बरसात।।
जंगल सारे कट गए, कैसे हो बरसात।
तपती धरती पर लिखी, पर्यावरणी बात।।
धरती पर हर ताप का, भानु ताप सरताज।
गौर वर्ण पर हो गया, स्वेद कणों का राज।।
भानु अनल से तप रहे, धरती अंबर आज।
प्यासा जीवन हो गया, बारिश का मुहताज…
Added by Sushil Sarna on June 6, 2019 at 7:00pm — 5 Comments
गज़ल(ईद मनाएं)
(मफाईलुन - मफाईलुन - फ ऊलन)
न घर आएं न वो हम को बुलाएं
अकेले ईद हम कैसे मनाएं
यही है ईद का पैग़ाम लोगों
दिलों को आज हम दिल से मिलाएँ
मुबारक बाद मैं दूँ उनको कैसे
कभी वो सामने मेरे न आएं
मनाई साथ ही थी हम ने होली
सिवइयां साथ ही हम आज खाएँ
गिले शिकवे भुला दें आज के दिन
गले मिल कर मुहब्बत को बढ़ाएं
वतन से ख़त्म हो फिरका परस्ती
ख़ुदा से आज ये…
Added by Tasdiq Ahmed Khan on June 5, 2019 at 9:00pm — 3 Comments
1-
हरियाली कम हो गई, हुई प्रदूषित वायु।
शनै-शनै कम हो रही,अब मनुष्य की आयु।।
अब मनुष्य की आयु, धरा पर संकट भारी।
पर्यावरण सुधार, विश्व में हैं अब जारी।।
दिवस मनाकर एक,मुक्ति क्या मिलने वाली।
इसका सिर्फ निदान, बढ़े फिर से हरियाली।।
2-
जीवन को संकट हुआ, करते सभी प्रलाप।
पर्यावरण बिगड़ गया, बढ़ा धरा का ताप।।
बढ़ा धरा का ताप, गर्क होता अब बेड़ा।
पहले बिना विचार, प्रकृति को हमने छेड़ा।।
अब भी एक उपाय, करें हम विकसित वन…
Added by Hariom Shrivastava on June 5, 2019 at 8:12pm — 1 Comment
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