"यदि तुम्हें
उससे प्रेम है अनंत!
तो तुम स्वीकार
क्यूँ नहीं करते।
क्यूँ नहीं देख पाते
उसकी आंखों का सूनापन
जहाँ बरसों से नही बरसी…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on July 9, 2019 at 6:00pm — 2 Comments
12112 12112
ये भँव तिरी तो, कमान लगे
तिरे ये नयन, दो बान लगे
कहीं न रुके, रमे न कहीं
इसे तू ही तो, जहान लगे
मैं जब से मिला हूँ तुम से, मिरी
हरेक अदा जवान लगे
अमिय है तिरी अवाज़ सखी
तू गीत लगे है गान लगे
है खोजती महज़ तुझे ही निगा'ह
न और कहीं मिरा धियान लगे
मौलिक अप्रकाशित
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on July 8, 2019 at 10:55pm — 5 Comments
श्वासों में....
मैं नहीं चाहता अभी
मृत्यु का वरण करना
प्रेम का वरण करना
शेष है अभी
श्वासों में
प्रतीक्षा की दहलीज़ पर
खड़े हैं कई स्वप्न
निस्तेज से
अवसन्न मुद्रा में
साकार होने को
मैं नहीं चाहता
सपनों की किर्चियों से
पलक पथ को रक्तरंजित करना
तिमिर गुहा में
यथार्थ से
साक्षात्कार करना
शेष है अभी
श्वासों में
अभी अनीस नहीं हुई
मेरी देह
ज़िंदा हैं आज भी…
Added by Sushil Sarna on July 8, 2019 at 5:28pm — 2 Comments
"मैं केक नहीं काटूँगी।" उसने यह शब्द कहे तो थे सहज अंदाज में, लेकिन सुनते ही पूरे घर में झिलमिलाती रोशनी ज्यों गतिहीन सी हो गयी। उसका अठारहवाँ जन्मदिन मना रहे परिवारजनों, दोस्तों, आस-पड़ौसियों और नाते-रिश्तेदारों की आँखें अंगदी पैर की तरह ताज्जुब से उसके चेहरे पर स्थित हो गयीं थी।
वह सहज स्वर में ही आगे बोली, "अब मैं बड़ी हो गयी हूँ, इसलिए सॉलिड वर्ड्स में यह कह सकती हूँ कि अब से यह केक मैं नहीं मेरी मॉम काटेगी।" कहते हुए उसके होठों पर मुस्कुराहट तैर गयी।
वहाँ खड़े अन्य सभी के…
ContinueAdded by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on July 8, 2019 at 1:00pm — 3 Comments
221 2121 1221 212
मुद्दत के बाद आई है ख़ुश्बू सबा के साथ ।
बेशक़ बहार होगी मेरे हमनवा के साथ ।।
शायद मेरे सनम का वो इज़हारे इश्क था ।
यूँ ही नहीं झुकी थीं वो पलकें हया के साथ ।।
वह शख्स दे गया है मुझे बेवफ़ा का नाम ।
जो ख़ुद निभा सका न मुहब्बत वफ़ा के साथ ।।
माँगी मदत जरा सी तो लहज़े बदल गए ।
अब तक मिले जो लोग हमें मशविरा के साथ ।।
आँखों में साफ़ साफ़ सुनामी की है…
ContinueAdded by Naveen Mani Tripathi on July 8, 2019 at 11:00am — 10 Comments
विकसित से
हर पल जल
विकासशील
बेबस बेकल
होड़ प्रतिपल
छलके छल
भ्रष्टाचार-बल!
धरती घायल
सूखते स्रोत
उद्योग-दलदल!
उथल-पुथल
बिकता जल
दर-दर सबल
थकता निर्बल
धन से दंगल
नारे प्रबल
हर घर जल
सुनकर ढल
नेत्र सजल!
बड़ी मुश्किल
आग प्रबल
दूर दमकल
सीढ़ी दुर्बल
ज़िंदा ही जल!
जल में ही बल
जल है, तो कल
कर किलकिल
या फ़िर सँभल!
धाराओं का जल
बिन कलकल
नदियाँ बेकल
प्रदूषण-प्रतिफल!
प्रकृति ही…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on July 7, 2019 at 11:54am — 2 Comments
Added by amita tiwari on July 7, 2019 at 2:30am — 3 Comments
Added by DEEPAK MENARIA on July 6, 2019 at 4:30pm — 1 Comment
पूछ रहा हूँ मैं उन सच्ची ध्वनियों से जो मौन ओढ़ कर
मुझमें गूँजा करतीं हैं जो संदल-संदल अर्थ छोड़ कर...
...साँझ ढले और मैं ना आऊँ, ऐसा हो तो फिर क्या होगा ?
...धुँआ-धुँआ बन कर खो जाऊँ, ऐसा हो तो फिर क्या होगा ?
ऐ प्यासी धड़कन तू मेरी आस लगाए राह निहारे
मद्धम सी आहट सुनते ही मंत्रमुग्ध हो मुझे पुकारे
मैं तूफानी लहरों जैसा, तू तट के मंदिर में ज्योतित
क्यों आतुर है अपनाने को मझधारें तू छोड़ किनारे
कंदीलों की…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on July 6, 2019 at 2:26am — 5 Comments
थक गया हूँ
चाहता हूँ
तनिक सा विश्राम ले लूँ
तोड़कर मैं अर्गला
नश्वर वपुष की
किन्तु संकट है विकट
ढूंढें नही मिलता मुझे
इस ठौर पानी
एक चुल्लू साफ़
सिर्फ मरने के लिए
(मौलिक अप्रकाशित)
Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 5, 2019 at 6:30pm — 7 Comments
वज़ह.....
बिछुड़ती हुई
हर शय
लगने लगती है
बड़ी अज़ीज
अंतिम लम्हों में
क्योँकि
होता है
हर शय से
लगाव
बेइंतिहा
दर्द होता है
बहुत
जब रह जाती है
पीछे
ज़िंदगी
जीने की
वज़ह
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on July 5, 2019 at 4:56pm — 4 Comments
2122 2122 212
दर्द को दिल में दबाना सीख लो
ज़िन्दगी में मुस्कराना सीख लो
आंख से आंसू बहाना छोड़िये
हर मुसीबत को भगाना सीख लो
ज़िन्दगी है खेल, खेलो शान से
खेल में खुद को जिताना सीख लो
फूल को दुनिया मसल कर फैंकती
खुद को कांटों सा दिखाना सीख लो
छोड़ दें अब गिड़गिड़ाना आप भी
कुछ तो कद अपना बढ़ाना सीख लो
थी जवानी जोश भी था स्वप्न भी
दिन पुराने अब भुलाना सीख लो
कौन…
ContinueAdded by Dayaram Methani on July 4, 2019 at 9:30pm — 8 Comments
दर्दों गम से हर कोई बेजार है,
हादसों की हर तरफ़ दीवार है।
बिक रहे हैं वो भी जो अनमोल हैं,
कैसे नादानों का ये बाज़ार हैं।
सब्र अब सबका चुका लगता मुझे,
हर बशर लड़ने को बस तैय्यार है।
पल में तोला पल में माशा मत बनो,
ये भी जीने का कोई आधार है।
मुफलिसी के मारे लगते हैं सभी,
फ़िर भी ये लगते नहीं लाचार हैं।
जिसके हाथों में हैं ज्यादा पुतलियाँ,
उनकी ही उतनी बड़ी सरकार…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on July 4, 2019 at 6:00pm — 2 Comments
अरकान:-12112 12112
न छाँव कहीं,न कोई शजर
बहुत है कठिन,वफ़ा की डगर
अजीब रहा, नसीब मेरा
रुका न कभी,ग़मों का सफ़र
तलाश किया, जहाँ में बहुत
कहीं न मिला, वफ़ा का गुहर
तमाम हुआ, फ़सान: मेरा
अँधेरा छटा, हुई जो सहर
ग़मों के सभी, असीर यहाँ
किसी को नहीं, किसी की ख़बर
बहुत ये हमें, मलाल रहा
न सीख सके, ग़ज़ल का हुनर
हबीब अगर, क़रीब न हो
अज़ाब लगे, हयात…
ContinueAdded by Samar kabeer on July 4, 2019 at 2:30pm — 36 Comments
ज़ीस्त को मुझसे है गिला देखो
जी रहा हूँ मैं हौसला देखो
साथ रहते हैं एक छत के तले
दरम्याँ फिर भी फासला देखो
तुम जिधर जा रहे हो बेखुद से
वहीं आयेगा जलजला देखो
सँभाल ही लूँगा मरासिम…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on July 3, 2019 at 2:30pm — 4 Comments
हर पन्ने पे होंगीं बलात्कार की खबरें,
इसलिए अखबार पढ़ने का मन नही करता।
परिवार की जड़ें उखड़ कर वृद्धाश्रम में आ गईं,
अब बच्चों को संस्कारी कहने का मन नही करता।
नंगी सड़क पे बचाओ बचाओ पूरे दिन चिल्लाता रहा,
फिर भी उसपे विश्वास करने का मन नही करता।
शरीर के इंच इंच पे, मैं राष्ट्रभक्त हूँ गुदवा रखा था,
फिर भी उसकी राष्ट्रभक्ति पढ़ने का मन नही करता।
कोई मोब्लिंचिंग तो कोई चमकी में मरा होगा इसलिए,
अब सुबह जल्दी…
Added by DR. HIRDESH CHAUDHARY on July 3, 2019 at 8:14am — 4 Comments
लगती हैं बेरंग सारी तितलियाँ तेरे बिना
जाने अब कैसे कटेंगी सर्दियाँ तेरे बिना.
.
फैलता जाता है तन्हाई का सहरा ज़ह’न में
सूखती जाती हैं दिल की क्यारियाँ तेरे बिना.
.
साथ तेरे जो मुसीबत जब पड़ी, आसाँ लगी
हो गयीं दुश्वार सब आसानियाँ तेरे बिना.
.
तू कहीं तो है जो अक्सर याद करता है मुझे
क्यूँ सताती हैं वगर्ना हिचकियाँ तेरे बिना?
.
वक़्त लेकर जा चुका आँखों से ख़ुशियों के गुहर
अब भरी हैं ख़ाक से ये सीपियाँ तेरे बिना.…
Added by Nilesh Shevgaonkar on July 2, 2019 at 7:30am — 7 Comments
(११२१२ ११२१२ ११२१२ ११२१२ )
.
ये हुआ है कैसा जहाँ खुदा यहाँ पुरख़तर हुई ज़िंदगी
न किसी को ग़ैर पे है यक़ीं न मुक़ीम अब है यहाँ ख़ुशी
**
कहीं रंज़िशें कहीं साज़िशें कहीं बंदिशें कहीं गर्दिशें
कहाँ जा रहा है बता ख़ुदा ये नए ज़माने का आदमी
**
कहीं तल्ख़ियों का शिकार है कहीं मुफ़्लिसी की वो मार है
मुझे शक है अब ये बशर कभी हो रहेगा ज़ीस्त में शाद भी
**
कहीं वहशतों का निज़ाम है कहीं दहशतें खुले-आम हैं
मिले आदमी से यूँ आदमी मिले अजनबी से जूँ…
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on June 30, 2019 at 2:30am — 1 Comment
(२२१ २१२१ १२२१ २१२ )
ग़म को क़रीब से मियाँ देखा है इसलिए
अपना ही दर्द ग़ैर का लगता है इसलिए'
**
जब और कोई राह न सूझे ग़रीब को
रस्ता हुज़ूर ज़ुर्म का चुनता है इसलिए
**
बाज़ार के उसूल हुए लागू इश्क़ पर
बिकता है ख़ूब इन दिनों सस्ता है इसलिए
**
आसाँ न दरकिनार उसे करना ज़ीस्त से
दिल का हुज़ूर आपके टुकड़ा है इसलिए
**
उनके ज़मीर के हुए चर्चे जहान में
मिट्टी के भाव में…
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on June 28, 2019 at 11:00pm — 4 Comments
सुकून-ओ-अम्न पर कसनी ज़िमाम अच्छी नहीं हरगिज़
अगर पैहम है तकलीफ़-ए-अवाम अच्छी नहीं हरगिज़
**
निज़ामत देखती रहती वतन में क़त्ल-ओ-गारत क्यों
नज़रअंदाज़ की खू-ए-निज़ाम अच्छी नहीं हरगिज़
**
न रोके तिफ़्ल की परवाज़ कोई भी ज़माने में
कभी सपने के घोड़े पर लगाम अच्छी नहीं हरगिज़
**
किसी को हक़ नहीं है ये कि ले क़ानून हाथों में
मगर सूरत वतन में है ये आम अच्छी नहीं हरगिज़
**
क़ज़ा को घर बुलाना है तुम्हें तो ख़ूब पी लेना
वगरना मय है पक्की या है ख़ाम अच्छी…
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on June 27, 2019 at 9:15pm — 5 Comments
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