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खुला ह्रदय का द्वार नहीं है

मापनी २२ २२ २२ २२ 

यदि करना इनकार नहीं है,

क्यों करता इकरार नहीं है

 

सच से रहता उसका झगड़ा,

झूठ  मुझे स्वीकार नहीं  है

 

शूल नहीं है प्रेम अगर, तो,

फूलों का भी हार नहीं है

 

दिल से कभी न कह…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on May 30, 2017 at 9:30am — 11 Comments

डॉ रेखा ( (कहानी)

"ये कहाँ जा रही हो अम्मी ?" पड़ोस वाली महिला ने पूछा

"अरे वो अपनी मधु है न उसके घर से खबर आयी है , उसके पेट में दर्द हो रहा है , पेट से है न वो , पिछला जापा भी मैंने किया था , इस बार भी ......." बूढ़ी अम्मा ने हंस कर उत्तर दिया ।

" हे भगवान किस युग में जीते है ये इस मधु के घर वाले , दुनिया भर के अस्पताल है , पर देखो तो अब भी दायी से जापा करवाना चाहते है वो भी घर में । "



बूढ़ी अम्मा उन सबकी बातें सुन रही थी । लकड़ी की गाडी के सहारे से धीरे धीरे चलने वाली इस अम्मा का जीवन किसने… Continue

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on May 28, 2017 at 11:11pm — 3 Comments

गजल(झूठ बहुत ...)

22 22 22 22

झूठ बहुत तुमने बोले हैं

भाव सभीने ही तोले हैं।1



नासमझी का दामन पकड़े

छोड़े तुमने बस गोले हैं।2



कर्त्ता हो,बलिहारी समझो,

शब्दों के पीछे झोले हैं।3(झटके)



निज करनी मत पर्दा डालो,

राज कहाँ हमने खोले हैं?4



लिंग-वचन नियमित रहने दो,

कथ्य बहुत क्यों कर डोले हैं?5



चाहे कुछ भी कर लोगे क्या?

तथ्यों के अपने झोले हैं।6(झोलियाँ)



तुमने कुछ समझा है?,बोलो-

शेर बने क्या मुँहबोले हैं?7

@'मौलिक… Continue

Added by Manan Kumar singh on May 28, 2017 at 10:30pm — 9 Comments

ग़ज़ल...क्या क्रांति की है दुन्दभि या सिर्फ ये उफान है

मुफाइलुन मुफाइलुन मुफाइलुन मुफाइलुन

1212 1212 1212 1212

सुदूर उस तरफ जहाँ झुका वो आसमान है

वहीँ उसी दयार में गरीब का मकान है



ये आजकल जो शोर है शहर शहर गली गली

क्या क्रांति की है दुन्दभि या सिर्फ ये उफान है



चढ़ाव ज़िन्दगी का ज्यूँ मचलती है कुई लहर

कदम जरा सँभल के रख बहुत खड़ी ढलान है



जड़ों से जो जुदा हुये जमीन भी न पा सके

​​बिखर गये वो टूटकर समय का ये बयान है



ये प्यार की छुअन हुई या कसमकस ए ज़िन्दगी

बृजेश के ललाट पे जो चोट… Continue

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on May 28, 2017 at 6:26pm — 12 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
सच का चोगा पहना दो - शिज्जु शकूर

सच का चोगा पहना दो
झूठ का परचम लहरा दो

इसमें है साख तुम्हारी
कि सियारों को रँगवा दो

सच न ज़मीं तक आ जाए
सबको बाहम उलझा दो

लिखा हुआ है काग़ज़ पर
सच में भी वो दिखला दो

पहले जैसा था मेरा
घर वैसा अब लौटा दो

सबकुछ अच्छा-अच्छा है
अख़बारों में छपवा दो

ये भी आज चलन में है
सारे अहसान भुला दो

-मौलिक व अप्रकाशित

Added by शिज्जु "शकूर" on May 28, 2017 at 4:46pm — 7 Comments

झूठ का साया(लघुकथा)

                       

महिंद्र की सेवानिवृत्ति पार्टी शुरू हो गई | विभाग के कर्मचारियों के साथ महिंद्र के करीब के रिश्तेदार भी आ कर हाल में  बैठ गए | थोड़ी देर बाद साहिब  भी आ गए | साहिब और कार्यालय के कर्मचारियों ने महिंद्र और उसकी पत्नी को आगे पड़ी कुर्सियों पे बिठाया और उनके गले में हार डाले और उनको गिफ्ट दिए |

इसी समय सब को भोजन परोसा गया और सभी ने खाना शुरू किया, समारोह के चलते, कुछ लोगों को महिंद्र के बारे में कुछ कहने के लिए क्रमवार बुलाया गया |

मगर सभी…

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Added by मोहन बेगोवाल on May 28, 2017 at 6:02am — 4 Comments

(माँ रमा बाई

(माँ रमा बाई को यह कविता समर्पित )

माँ रमा बाई जी को कोटि कोटि वंदन

आओ हम सब करें फूलों से अभिनंदन

वक्त की पुकार समर्पित कर दो तन मन

ज्ञान की ज्योति से प्रकाशित करो वतन

अब समाज में समता लाकर रहेगें हम

नफरत सभी के दिलों से निकाल देगें हम

उनके अधूरे काम को अब पूरा करेगें हम

अज्ञान को संसार से मिटा कर रहेगें हम

जीवन के हर क्षण में याद रहे यह प्रण

टूटे दिलों को जोड़ एक माला बनाएँ हम

खुशियाँ सभी के राह में सदा बिछाएँ…

Continue

Added by Ram Ashery on May 27, 2017 at 3:00pm — 2 Comments

बेबसी की किताब है यारोँ

2122 1212 22

वो दिखी बेनकाब है यारों।

सारा चेहरा गुलाब है यारोँ ।।



अच्छी सूरत भी क्या बुरी शय है ।

सबकी नीयत खराब है यारों ।।



है लबों पर अजीब सी जुम्बिश ।

कैसा छाया शबाब है यारों।।



होश खोया है देख कर उसको ।

वह पुरानी शराब है यारों ।।



एक मुद्दत के बाद देखा है ।

हुस्न का इंकलाब है यारों।।



पैरहन ख्वाब में वो आती है ।

कितनी आदत खराब है यारोँ ।।



मैं जिसे सुबहो शाम पढ़ता हूँ ।

वह ग़ज़ल लाजबाब है… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on May 27, 2017 at 1:24pm — 8 Comments

***मेरा कसूर ***(कविता)राहिला

माँ! ये तुमने क्या किया?

एक तुम ही तो थीं अपनी

और तुमने ही मुँह मोड़ लिया।

मेरे आगमन की सूचना से,

माना तुम निराश थीं।

पर इतना क्रूर निर्णय लोगी,

इसकी मुझे ना आस थी।

जब ये भयानक विचार आया

तुम्हारे मन में।

बड़ा असुरक्षित महसूस किया

मैंने तेरे तन में।

जब अनजाने हत्यार ने ,

मुझपर प्रहार किया था।

माँ! ,भय से मैंने तेरी ,

कोख को थाम लिया था।

पर कब तक उस दानव से ,

मैं खुद को बचा सकती थी।

प्रयत्न किया उतना… Continue

Added by Rahila on May 27, 2017 at 12:18pm — 2 Comments

ग़ज़ल (बह्र--22/22/22/2)

सौदें होते हैं तन के
रिश्ते-नाते हैं धन के ।
याद बहुत आते हैं अब
मुझको दिन वो बचपन के ।
मीठी-मीठी यादें सब
ताने-बाने हैं मन के ।
कितने ही होते हैं दुख
माँ को लालन-पालन के ।
ग़ुर्बत के शिकवें हैं,ये
ख़ाली सारे बरतन के ।
मौलिक एवं अप्रकाशित ।

Added by Mohammed Arif on May 27, 2017 at 10:40am — 7 Comments

मुझे

ईर्ष्या 

कृपया मुझे छोड़ दें

मुझे मुक्त चलने दें 

तेरी  समझ से

ईमानदारी

कृपया मुझे में भर

मेरे शब्दों को मुक्त कर 

उस विश्वास के साथ

मूर्खता

कृपया मुझे छोड़ दें

मुझे दो बार सुन लेकिन बोल

एक आवाज़ के साथ

अखंडता

कृपया मुझे सशक्त कर

मेरे दिमाग और शरीर को ऊपर ले

सही विकल्प बनाने के लिए

मौलिक एवं अप्रकाशित ।

Added by narendrasinh chauhan on May 27, 2017 at 10:30am — 1 Comment

गज़ल

221 1221 1221 122



अब हम भी ज़माने का सुख़न देख रहे हैं ।।

बिकता है सुखनवर ये पतन देख रहे हैं ।।



बदनाम न् हो जाये कहीं देश का प्रहरी ।

नफरत का सियासत में चलन देख रहे हैं ।।



वो मुल्क मिटाने की दुआ मांग रहा है ।

सीने में बहुत आग जलन देख रहे हैं।।



सब भूंख मिटाते हैं वहां ख्वाब दिखा कर ।

रोटी की तमन्ना का हवन देख रहे हैं ।।



वादों पे यकीं कर के गुजारे हैं कई साल ।

मुद्दत से गुनाहों का चमन देख रहे हैं ।।



लाशों में… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on May 27, 2017 at 8:30am — No Comments

प्रासंगिक अस्तित्व (लघुकथा)/शेख़ शहज़ाद उस्मानी

वह एक गाड़ी में सवार थी, जो अब तेज़ गति पकड़ रही थी। गाड़ी किसी और दिशा में जा रही थी और खिड़की से वह विपरीत दिशा में देख रही थी, जहां से वह चली थी। खिड़की से नज़ारे देखते हुए अचानक लगने वाले ब्रेक के झटकों से वह कभी सहम जाती, तो कभी उसे संभलने का सुखद अहसास सा होता। लेकिन तेज़ हवाएं उसे कभी सुखद लग रहीं थीं, तो कभी उसे झकझोर कर परेशान कर रही थीं। तेज़ हवाएं उससे बातें कर रहीं थीं या वह ख़ुद उनसे मोहित होकर उनसे बातें करना चाह रही थी, किसी को भी समझ नहीं आ रहा था। वह खिड़की बंद नहीं कर पा रही… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on May 27, 2017 at 2:00am — 4 Comments

***बदलते सुर***(लघुकथा)राहिला

"ये लो दो चेक ,बैंक में जमा कर देना"

दफ्तर के लिए निकल रहे अनुराग के हाथ में चेक थमाते हुए वह बोली।"कहाँ से आये?"

"भेजी दी दो रचनाएँ ,पुरुस्कृत हुयी तो मिले।"

"वाह ..,क्या बात है।,मुबारक हो भई!फिर तो पार्टी बनती है।घर बैठे कमाने लगीं तुम तो!"पति ने कुछ गर्वित होकर कहा, तो उसके होंठों पर फीकी सी मुस्कान तैर गयी।

आज उसने अपने शौक पर खर्च किये लम्हों की परिवार को पहली क़िस्त अदा की थी।

रात में जैसे ही कमरे में अनुराग आये उसने सकपका कर ,झगड़े की जड़ को किनारे रख… Continue

Added by Rahila on May 26, 2017 at 9:30pm — 5 Comments

तुम

यह तुम्हारी आंखें है

यह तुम्हारा मुंह है

यह तुम्हारी मुस्कुराहट है

तुम्हारा दिल

तुम्हारी  हंसी

लेकिन यह मेरा दिल है

मेरा डर

यह मेरा प्यार है

मेरी उम्मीद

मैं जिसके लिऐ  हूँ

Added by narendrasinh chauhan on May 26, 2017 at 9:57am — 2 Comments

कुण्डलिया

जग कर रमलू जी जपें,राम नाम के बोल

कुल्ला करने के लिए,नल देते हैं खोल

नल देते हैं खोल,भूल गए बन्द करना

जल बहता है व्यर्थ,उन्हें क्यों इससे डरना

सतविन्दर कविराय,टैंक ने लिया उन्हें ठग

साबुन चिपकी गात,हाथ में है खाली जग





बात पते की एक है,सुन लो! मेरे पास

कुछ भी तब भाता नहीं,दिल हो अगर उदास

दिल हो अगर उदास,जहाँ की खुशियाँ सारी

देती दुख ही हाय!, बनीं कंटक की डारी

सतविन्दर कविराय,उठाओ दुख का ढाबा

दिन जीवन के चार,ख़ुशी से काटो… Continue

Added by सतविन्द्र कुमार राणा on May 25, 2017 at 11:30pm — No Comments


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दो कुण्डलिया छंद

वो मेरा अस्तित्व थे, मैं उनकी प्रतिछाप

खोए जब पदचिह्न तो, गूँज उठी यह थाप

गूँज उठी यह थाप, रहा संकल्प अधूरा

आखिर कैसे कौन करेगा उसको पूरा

इतना विस्तृत गहन रहा भावों का घेरा

जो उनका संकल्प, बना है अब वो मेरा

हाय! अबोला सब रहा, कह पाती सब काश

अब कह दूँ कैसे अकथ, तोड़ समय का पाश

तोड़ समय का पाश, धार को कैसे…

Continue

Added by Dr.Prachi Singh on May 25, 2017 at 8:00pm — 7 Comments

ग़ज़ल- खता होते होते

शाब्दिक कलन -१२२ १२२ १२२ १२२

*******************

मुहब्बत हुई जो खता होते होते।

सरे-राह गुजरी खफा होते होते। १

------

हसूं या रोऊँ जिंदगी पर खुदाया,

जहर हो गई है दवा होते होते। २

------

बची उम्र अब तो न जीने की कोई,

हँसी थी मुसीबत फना होते होते। ३

-------

शमां बुझ गई सो गई सारी महफ़िल,

विराना हुआ दिल वफ़ा होते होते। ४

--------

मिला तख़्त बैठें खजाना छुपाकर,

मुक़द्दस हुए अब सजा होते होते। ५

---------

रिवाजे बना… Continue

Added by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on May 25, 2017 at 3:24pm — 11 Comments

घर में टूटी खाट

फटे हुए कपड़े हैं तन पर,
घर में टूटी खाट
बैठा उकड़ू बस बारिश की,
जोह रहा है बाट.
सूद समेत ले गए सब कुछ,
साहूकार हमारे,…
Continue

Added by बसंत कुमार शर्मा on May 25, 2017 at 10:00am — 2 Comments

मैं

जब यहां खड़े हो रहे हैं
तुम्हारे साथ
मुझे नहीं पता क्या करना है
या कौन हूँ 
खो गया और टूटा हुआ
आदमी
बाहर जोड़े अपने
हाथ
मुझे नहीं पता
कब बारी है
मुझे बहा दिया गया 
आपके द्वारा 
कुचला और टूटा भी
अब मुझे नहीं पता कि मैं कौन हूँ ...

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by narendrasinh chauhan on May 24, 2017 at 12:30pm — 3 Comments

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