Added by Naveen Mani Tripathi on April 13, 2017 at 10:13pm — 11 Comments
Added by बृजमोहन स्वामी 'बैरागी' on April 13, 2017 at 3:01pm — 10 Comments
१२२२/१२२२/१२२२/१२२२
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हमारा साग बांसी है तुम्हारी भाजी ताजी है
जो इस में ऐब ढूँढेगा तो वो आतंकवादी है.
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गजल के पाँव दाबे हैं तभी कुछ सीख पाये हैं
इसे पाखण्ड कहना आप की जर्रानवाजी है.
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तलफ्फुज को लगाओ आग, है ये कौन सी चिड़िया
हमारा राग अपना है हमारी अपनी ढपली है.
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बहर पर क्यूँ कहर ढायें लिखे वो ही जो मन भाये
मगर इतना समझ लें, ये अदब से बेईमानी है.
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शहर भर का जहर पीने के आदी हो चुके हैं…
Added by Nilesh Shevgaonkar on April 13, 2017 at 11:18am — 12 Comments
22 22 22 22 22 22 ( बहर ए मीर )
कटे हाथ लेकर बे चारे घूम रहे हैं
मांग रहे हैं, कहीं सहारे, घूम रहे हैं
कर्मों का लेखा उनका मत बाहर आये
इसी जुगत में डर के मारे, घूम रहे हैं
हाथों मे पत्थर हैं जिनके, उनके पीछे
छिपे हुये अब भी हत्यारे घूम रहे हैं
अँधियारा अब भी फैला है आंगन आंगन
क्यों ये सूरज, चंदा, तारे घूम रहे हैं
शब्द भटक जाते हैं उनके, अर्थ हीन हो
जिनके घर के अब चौबारे घूम रहे…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on April 13, 2017 at 11:01am — 9 Comments
मैं , ओ बी ओ हूँ ...
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मैं , ओ बी ओ हूँ ...
मेरी छाया में हर विधा प्राण पाती रही ..
कितने ही शून्य आये
रहे
सीखे
और शून्य से अनगिनत हो गये
फर्श अर्श हुये
पर, मैं नहीं बदली , वही हूँ
वही रहूँगी
यही तो तय किया था मैंने
लेकिन, क्या ये सच नहीं
कि साज़िन्दे अगर सो जायें
बेसुरे हो ही जाते हैं गवैये ?
कितने भी सुरीले हों..
आज
मुझे सोचना पड़ रहा है ..
शब्द…
Added by गिरिराज भंडारी on April 13, 2017 at 6:30am — 2 Comments
Added by शिज्जु "शकूर" on April 12, 2017 at 7:44pm — 8 Comments
लम्हों की कैद में ......
लम्हे
जो शिलाओं पे गुजारे
पाषाण हो गए
स्पर्श
कम्पित देह के
विरह-निशा के
प्राण हो गए
शशांक
अवसन्न सा
मूक दर्शक बना
झील की सतह पर बैठ
काल की निष्ठुरता
देखता रहा
वो
देखता रहा
शिलाओं पर झरे हुए
स्वप्न पराग कणों को
वो
देखता रहा
संयोग वियोग की घाटियों में
विलीन होती
पगडंडियों को
जिनपर
मधुपलों की सुधियाँ
अबोली श्वासों…
Added by Sushil Sarna on April 12, 2017 at 6:00pm — 6 Comments
2122 2122 2122 212
जाग गहरी नींद से औ देख अपना ये चमन
ये हमारी शान है औ ये हमारा है वतन|
भोली सूरत देखकर या फिर किसी भी लोभ में
जो जलाते घर हमारे दो न तुम उनको शरण |
धर्म के जो नाम पर हमको लड़ाते आ रहे
आ गए फिर वोट लेने सोच कर करना चयन|
आदमी की शक्ल में जो हैं सरापा भेड़िये
कब तलक जुल्मों सितम उनके करेंगे हम सहन|
गर बचाना देश है तो मार दो गद्दार को
झट मिटा दो नाम अब तो मत करो…
ContinueAdded by DR. BAIJNATH SHARMA'MINTU' on April 11, 2017 at 8:30pm — 6 Comments
गा ल गा गा (ललगागा) / लल गागा/ ललगागा / गा गा (ललगा)
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ये तमाशा तो मेरे ज़ह’न के अन्दर निकला,
मैं बशर मैं ही ख़ुदा मैं ही पयम्बर निकला.
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ये ज़मीं चाँद सितारे ये ख़ला.... सारा जहान,
वुसअत-ए-फ़िक्र से मेरी ज़रा कमतर निकला.
.
संग-दिल होता जो मैं आप भी कुछ पा जाते,
क्या मेरी राख़ से पिघला हुआ पत्थर निकला? …
Added by Nilesh Shevgaonkar on April 11, 2017 at 7:00pm — 26 Comments
११२ ११२ ११२ ११२ ११२ ११२ ११२ ११२ २
सुन्दरी सवैया (मापनीयुक्त वर्णिक)
वर्णिक मापनी - 112 X 8 + 2
निकले घर से नदिया लहरी शुचि शीतलता पहने गहना है|
चलते रहना मृदु नीर लिए हर मौसम में उसको बहना है|
कटना छिलना उठना गिरना निज पीर सभी हँसके सहना है|
अधिकार नहीं कुछ बोल सके अनुशासन में उसको रहना है|
खुशबू जिसमे सच की बसती उससे बढ़के इक फूल नहीं है|
जननी रखती निज पाँव जहाँ उससे शुचि पावन धूल नहीं है|
जिसके रहते अरि फूल छुए…
ContinueAdded by rajesh kumari on April 11, 2017 at 6:12pm — 7 Comments
2122 2122 212
मैकदों के पास आकर देखिये ।
तिश्नगी थोड़ी बढ़ाकर देखिये ।।
वह नई उल्फ़त या नागन है कोई ।
गौर से चिलमन हटाकर देखिये ।।
सर फरोसी की तमन्ना है अगर ।
बेवफा से दिल लगाकर देखिये ।।
आपकी जुल्फें सवंर जायेगी खुद ।
आशिकों के पास जाकर देखिये ।।
आस्तीनों में सपोले हैं छुपे ।
हाथ दुश्मन से मिलाकर देखिये ।।
जल न् जाऊँ मैं कहीं फिर इश्क़ में ।
इस तरह मत मुस्कुराकर देखिये ।।
होश खोने का…
Added by Naveen Mani Tripathi on April 10, 2017 at 5:30pm — 9 Comments
बहा तुमको लिए जाती थी जो वो धार भी हम थे
हमी साहिल तुम्हारी नाव के पतवार भी हम थे
निगल जाता सरापा तुमको वो तूफ़ान था जालिम
खड़े तनकर उसी के सामने दीवार भी हम थे
मुक़द्दस फूल थे मेरे चमन के इक महकते गर
छुपे बैठे हिफाज़त को तुम्हारी ख़ार भी हम थे
किया घायल तुम्हारा दिल अगर इल्जाम भी होता
तुम्हारा दर्द पीने को वहाँ गमख्वार भी हम थे
रिवाजों की बनी जंजीर ने गर तुमको बांधा था
वहाँ मौजूद उसको काटने…
ContinueAdded by rajesh kumari on April 9, 2017 at 8:30pm — 21 Comments
समीक्षार्थ
मनहरण घनाक्षरी ....(एक प्रयास)
***
भ्रष्टाचारियों से बड़ी
चोट खाई पीढ़ियों ने
चोट ये मिटानी होगी
अबकी चुनाव में
.
दांव न लगाने देंगे
झूठे वादों का जी अब
हार भी चखानी होगी
अबकी चुनाव में
.
मतदाता याद आए
पांच साल बाद जिसे
मात उसे खानी होगी
अबकी…
Added by अलका 'कृष्णांशी' on April 9, 2017 at 5:00pm — 6 Comments
Added by ASHUTOSH JHA on April 9, 2017 at 4:26pm — 8 Comments
2122 2122 2122 212
पा लिया, खोया किसीने,चल रहा यह सिलसिला
ख्वाहिशें अनजान थीं जो कुछ मिला अच्छा मिला।1
गर्दिशों के दौर में अरमान मचले कम नहीं
पर सरे पतझड़ यहाँ उम्मीद का अँखुआ खिला।2
घाव देकर हँस रहे हैं आजकल बेख़ौफ़ वे
कौन अपनों से करेगा बोलिये फिर से गिला?3
डर गये जीते शज़र सब आँधियों के जोर से
सूखता-सा जो खड़ा है कब सका कोई…
Added by Manan Kumar singh on April 9, 2017 at 10:30am — 18 Comments
Added by Mahendra Kumar on April 9, 2017 at 10:05am — 6 Comments
2122 2122 212
धारणायें हों मुखर, तो चुप रहें
सच न पाये जब डगर, तो चुप रहें
शब्द ज़िद्दी और अड़ियल जब लगें
और ढूँढें, अर्थ अगर तो चुप रहें
जब धरा भी दूर हो आकाश भी
आप लटके हों अधर, तो चुप रहें
कृष्ण हो जाये किशन, स्वीकार हो
शह्र पर जब हो समर तो चुप रहें
सीखने वालों पे यारों पिल पड़ें
जब ग़लत हो नामवर, तो चुप रहें
तेल औ’र पानी मिलाने के लिये
कोशिशें देखें…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on April 9, 2017 at 8:00am — 24 Comments
Added by Samar kabeer on April 9, 2017 at 12:13am — 37 Comments
2122 2122 2122 212
सच यहाँ पर कुछ नहीं जब खुद है झूठा आदमी|
जानकर भी आज सब अनजान देखा आदमी|
जग पराया देश है अपना यहाँ कुछ भी नहीं
कुछ दिनों के वास्ते इस जग में आया आदमी|
लोग अपने वास्ते जीते हैं दुनिया में मगर
जो पराया दर्द समझे है वो आला आदमी
ये ख़जाना और दौलत सब यही रह जाएगा
सिर्फ तेरा कर्म ही बस साथ देगा आदमी|
बेवफ़ा सी ज़िन्दगी जिस दिन तुझे ठुकराएगी
आदमी को लाश कहकर…
ContinueAdded by DR. BAIJNATH SHARMA'MINTU' on April 8, 2017 at 12:00am — 7 Comments
221 221 212
वह दौर था जो गुजर गया
था इक नशा जो उतर गया
देखा था उसने फरेब से
दिल आशिकाना सिहर गया
मुफलिस समझ के जनाब वो
पहचानने से मुकर गया
जिस पर भरोसा किया बहुत
वह यार जाने किधर गया
जब साथ था तो कमाल था
अब जिन्दगी का हुनर गया
इक ठेस ही थी लगी मुझे
मैं कांच सा था बिखर गया
जिस नाग ने था डसा मुझे
मैंने सुना है कि मर…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 7, 2017 at 9:19pm — 10 Comments
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