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नव गीत

नव गीत उसने यूँ ही कहा गीत रचता हूँ  मैं आप हैं कि मुझे आजमाने लगे

यह हुनर तो मिला है मुझे जन्म से  मांजने में इसे पर जमाने लगे

गीत रचना हँसी- खेल सा कुछ नहीं

यह सभी को मिला शाश्वत दंड सा

टूटता है ह्रदय जब सुमन-दंश से

तब महकता है नव-गीत श्रीखंड सा

ताप तुमने विरह का सहा ही नहीं प्रेम का ग्रन्थ मुझको थमाने लगे

नेह की भावना में प्रखर भक्ति हो

एक पूजा उदय हो उदय शक्ति हो

प्यार-व्यापार हो कामना से रहित

ज्योति सी…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 1, 2016 at 8:58pm — 13 Comments

पी लेने दो ...

पी लेने दो ... (एक प्रयास एक ग़ज़ल )

२२ २२ २२ २२

इक लम्हा तो जी लेने दो
अब जी भर के पी लेने दो !!१!!

एक   कतरा  है पैमाने में
खो के  हस्ती  पी लेने दो !!२!!
आये न कभी अब होश हमें
अब लब अपने सी लेने दो !!३!!

दम घुटता है अब यादों का
अब शब को भी जी लेने दो !!४!!

जाने   कैसा   तूफां   है   ये 
हाँ मिट कर फिर जी लेने दो !!५!!

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on April 1, 2016 at 5:26pm — 10 Comments

हवा

हवा का बहता झोका

तन मन को है छूता

मानवता को दर्शाता

मित्र शत्रु को हर्षाता

कोई भेद नहीं करता

बारिस में वर्षा लाता

भूमि की प्यास बुझाता

दुनिया में प्यार बांटता

प्यार में धोखा खाता

हवा बवंडर बन जाता

अपनी दिशा भटकता

समाज में तबाही लाता 

जड़ से दरख्त उखाड़ता

जग से अस्तित्व मिटाता

उसे अंबर तक ले जाता

निर्दोषों को देता सजा

वृक्षो की डाली तोड़ता

छीनता पक्षी का…

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Added by Ram Ashery on April 1, 2016 at 4:00pm — 3 Comments

छक्का मारा आज (ओ बी ओ की वर्षगाँठ पर)

छक्का मारा आज (16-11 मात्राएँ)

===========

छ वर्षों से बना हुआ है,जो सबका सरताज

ओबीओ के वेब पेज ने, छक्का मारा आज |



उत्सव हम सब मना रहे है,खिले प्रीति के रंग

काव्य सुधा रस मिले जहा पर, करे वहां सत्संग |



जाल बिछाया था बागी ने,योगराज का यत्न,

बिखेर रहे सौरभ भी खुश्बू,मना रहे सब जश्न |



काव्य गजल लघु कथा सभी में,बना दिया प्रतिमान

ज्ञान पिपासू शरण यहाँ ले, बढ़ा रहे सब ज्ञान |



भेद भाव को भूल भाल कर, करते सद्व्यवहार…

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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on April 1, 2016 at 11:30am — 6 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
शुभ जन्मदिन ओ.बी.ओ.

शुभ जन्मदिन ओ.बी.ओ.

जन्मदिन फिर से आया है

नए वसंत का हार लिए

कविता, गीत, मुक्तक, ग़ज़ल के

अनुपम सब उपहार लिए.

(2)

कहीं परिचर्चा, कहीं टिप्पणी

कहीं पर मुक्त विचार मिले

यह वह उपवन है जिसमें

शिक्षा का हर फूल खिले.

(3)

मन की भावना व्यक्त करना ही

शब्दों का खेल है

फिर भी देखो विचित्र विचारों का

यहाँ कैसा मेल है.

(4)

यहाँ अग्रज हैं, हैं अनुज भी

कहीं लेखनी साज़…

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Added by sharadindu mukerji on April 1, 2016 at 2:49am — 4 Comments

जब जब तुम्हारे पाँव ने रस्ता बदल दिया (ग़ज़ल)

बह्र : २२१२ १२११ २२१२ १२

 

जब जब तुम्हारे पाँव ने रस्ता बदल दिया

हमने तो दिल के शहर का नक्शा बदल दिया

 

इसकी रगों में बह रही नफ़रत ही बूँद बूँद

देखो किसी ने धर्म का बच्चा बदल दिया

 

अंतर गरीब अमीर का बढ़ने लगा है क्यूँ

किसने समाजवाद का ढाँचा बदल दिया

 

ठंडी लगे है धूप जलाती है चाँदनी

देखो हमारे प्यार ने क्या क्या बदल दिया

 

छींटे लहू के बस उन्हें इतना बदल सके

साहब ने जा के ओट में कपड़ा बदल…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 31, 2016 at 11:36pm — 20 Comments

बस मैं जानूं या तुम जानो ......

बस मैं जानूं या तुम जानो ......



पीर पीर   को    क्या    जाने

नैन   विरह   से      अनजाने

वो दृग स्पर्श की अकथ कथा

बस   मैं   जानूं या तुम जानो ....... 



पल बीता  कुछ  उदास  हुआ

रुष्ट श्वास से  मधुमास   हुआ

क्यूँ दृगजल से घन बरस पड़े

बस  मैं  जानूं  या  तुम जानो ....... .

तुम   हर   पल   मेरे साथ थे

मेरी   श्वास   के  विशवास थे

क्यूँ   शेष   बीच  अवसाद रहे

बस  मैं   जानूं  या तुम जानो…

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Added by Sushil Sarna on March 31, 2016 at 5:00pm — 12 Comments

रोग जैसे लग रही है।

बह्र:-2122-2122-2122-212



क्या कहेगे लोग आखिर मेरी गजलें देखकर।

मैं किसानों की तरह ही खुश हुँ फसलें देखकर।।



जिनके घर छप्पर पड़े हैं आदमी क्या वो नहीं।

रो रहे है कुछ अमीराँ अपनी नस्लें देखकर।।



कांपते होठों से मेरे सुगबुगाती बात सा।

जैसे कोई लिख रहा हो आज शक्लें देख कर।।



कुछ न होगा वक्त की जुल्मी हवा की जीत से।

कुछ गरीबाँ ही रहेगे पिछली नक्लें देखकर।।



रोग जैसे लग रही है आज की यह सभ्यता।

काँपने लगती है रूहें भी मिसालें… Continue

Added by amod shrivastav (bindouri) on March 31, 2016 at 1:11pm — 5 Comments

समय की मार से दो चार होंगे

1222/1222/122



समय की मार से दो चार होंगे।।

मेरे बच्चे तभी तैयार होंगे।।



मुहब्बत के खुले बाजार होंगे।

हमारे शेर तब अख़बार होंगे।।



न समझो दुश्मनों को काम जवानों।

नकाबों में छिपे ऐय्यार होंगे।।



जो मजहब की रही ऐसी ही हालत।

तो सच कहता हूँ हम बीमार होंगे।।



लगा की दीप रौशन कर मुहब्बत।

मेरा जुगनू सा सब परिवार होंगे।।



वो घूँघट में छिपा कर रुख मिले हैं।

लगा था इश्क में दीदार होंगे।।



जरा समझो हयाती इस… Continue

Added by amod shrivastav (bindouri) on March 31, 2016 at 9:12am — 6 Comments

ये जमीं से या जाँ से उठता है

फाइलुन फाइलुन मुफाईलुन

(212 212 1222)



ये जमीं से या जाँ से उठता है

जो धुआँ है कहाँ से उठता है



ये जो गर्दो गुबार है क्या है

क्यों ये फिर कारवाँ से उठता है



हर तरफ शोर सा ये है कैसा

क्यों सदा आसमाँ से उठता है



जख्म सीने में पल रहा कोई

दर्द दिल के मकाँ से उठता है



दो कदम साथ क्या चले रहबर

अब धुआँ आँ-जहाँ से उठता है

 

इश्क को उम्र लग गयी शायद

दर्द अब जिस्मो जाँ से उठता है



दर्द को आह से सुकूँ…

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Added by Hem Chandra Jha on March 31, 2016 at 12:00am — 4 Comments

जाने कितना प्रश्न करती

2122 2122 2122 2122

जाने कितना प्रश्न करती, और हरदम खिलखिलाती।

अपने मन में पीर जाने, कौन सी वो है छिपाती।।



जब मिली ज़िंदा हुआ हूँ, जब मिली मैं गुनगुनाया।

हर दफ़ा कागज़-कलम, की राह मुझको है दिखाती।।



उसके शब्दों से कोई कागज़ कभी भी जब सजाया।

खूब है हर बार ही वो तो ग़ज़ल बनकर रिझाती।



चूमती नज़रों से जब, मदहोश हो जाता हूँ मैं।

क्या कहूँ पगली वो लड़की, मुझको पागल है बनाती।।



कोई उसको बोल भी दो, ठीक ये बिल्कुल नहीं है।

प्यास सदियों की… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on March 30, 2016 at 6:38pm — 8 Comments

कर्जा

कर्जा

दूर तक सुनहरा रंग चमक रहा है गेहूं की फसल पककर तैयार है। दूर दूर तक जहाँ तक नजर जाती है बस वो बूढा बरगद ही हरियाली का परचम उठाये है वरना हर तरफ सुनहरी चमक से आंखे चुंधिया जाए । मंद मंद बहती पुरवा के साथ गेहूं की बालियां लयबद्ध होकर झूम रही है । सूरज एकदम सर पर सवार है गरमी से बदन जल रहा है । लेकिन रामसुख को तनिक भी परवाह नहीं ,उसका हाथ एकदम तेजी से चल रहा है मानो हाथ में मोटर फिट हो सिर्फ हंसिया की कचर कचर ही गूंज रही है ।

चेहरे के पसीने को गमछे से पोंछकर सर पर रख लिया उसने और… Continue

Added by kumar gourav on March 30, 2016 at 5:43pm — 6 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
हार कर भी जीत जाने का भला क्या अर्थ है? ....ग़ज़ल// डॉ. प्राची

राज़ हर दिल में छुपाने का भला क्या अर्थ है ?

गैर पर हासिल लुटाने का भला क्या अर्थ है ?



हो बहुत विद्वान तुम, पर ये न समझोगे कभी

हार कर भी जीत जाने का भला क्या अर्थ है ?



प्यार में तकरार होना कर लिया मंज़ूर, पर

अजनबी सा पेश आने का भला क्या अर्थ है ?



देह मन का साथ छोड़े, स्वर जुदा हों सत्य से,

इस तरह रिश्ते निभाने का भला क्या अर्थ है ?



सच कहो जब खिलखिलाए एक अरसा हो गया,

जश्न खुशियों का मनाने का भला क्या अर्थ है ?



जम चुके… Continue

Added by Dr.Prachi Singh on March 30, 2016 at 11:32am — 6 Comments

रिश्तों की भाषा

"रिश्तों की भाषा"



"नहीं समीर, इतना आसान कहां होता है सब कुछ भूल पाना।" वर्षो पहले एक रात अचानक उसे छोड़ कर चले जाने वाला पति आज फिर सामने खड़ा सब भूलने की बात कर रहा था।

"तान्या ! मैं मानता हूँ कि मैं तुम्हारे प्रेम को नकारकर 'उसके' साथ चला गया था लेकिन अब मेरा उससे अलगाव हो चुका है और मैं हमेशा के लिए तुम्हारे पास लौट आना चाहता हूँ।" उसकी आवाज और आँखे दोनों में अधिकार भरी याचना नज़र आ रही थी।

"आज तुम लौटना चाहते हो लेकिन उस समय तुमने एक बार भी नहीं सोचा कि मेरा क्या होगा ?… Continue

Added by VIRENDER VEER MEHTA on March 29, 2016 at 7:06pm — 8 Comments

मोरे पिया

हाथों को मेरे तुम थाम लो

मेरा ही बस तुम नाम लो

कानों में अमृत रस घोलो

मैं सुनती रहूँ बस तुम बोलो|

 

केशों को मेरे तुम सहलाओ

बातों से मेरा जी बहलाओ

बादल तुम नेह के बरसाओ

नैनों में छिपा लूँ आ जाओ|

 

नज़रों से मुझे तुम पढ़ते रहो

नित स्वप्न सुरीले गढ़ते रहो

आगे ही आगे बढ़ते रहो

सोपान ह्रदय के चढ़ते रहो|

 

जीवन की मुझे तुम आस दो

नेह का अपने विश्वास दो

यौवन का मुझे मधुमास दो…

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Added by sarita panthi on March 29, 2016 at 6:52pm — 5 Comments

बेवफाई ....

बेवफाई ....

एक जानवर

अपने मालिक को

इंसान समझने की

गलती कर बैठा

उसे अपना खुदा समझ बैठा

वक्त बेवक्त उसकी रक्षा करने को

अपना फर्ज समझ बैठा

उसके हर इशारे पर

जानवर होते हुए भी

खुद को न्योछावर कर बैठा

डाल दिये टुकड़े तो खा लिए

वरना खामोशी से

अपने पेट से समझोता कर बैठा

अपने दर्द को

अपने कर्मों की सजा समझ बैठा

जगता रहा वो रातों को

ताकि मालिक चैन से सो सके

इक जरा सी गलती ने

मालिक ने उसकी पीठ पर

जानवर का…

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Added by Sushil Sarna on March 29, 2016 at 2:53pm — 2 Comments

ज़िंदगी ही हो गयी क़ातिल करूँ तो क्या करूँ

हो गया दिल इश्क़ में बिस्मिल करूँ तो क्या करूँ

ज़िंदगी ही हो गयी क़ातिल करूँ तो क्या करूँ



इक तेरे दर के सिवा लगता नहीं है दिल कहीं

रास आती है नहीं महफिल करूँ तो क्या करूँ



तू ही साँसों में है धड़कन मे ख़यालों में है तू

बस तुम्ही को चाहता है दिल करूँ तो क्या करूँ



लीक से हटकर अलग चलने की है फ़ितरत मिरी

भीड़ में होता नहीं शामिल करूँ तो क्या करूँ



इक तेरे जाने से रस्ते हो गए मुश्किल मिरे

दूर अब लगने लगी मंज़िल करूँ तो क्या… Continue

Added by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on March 29, 2016 at 10:00am — 8 Comments

ग़ज़ल - सबके चेहरों को देखते आये

आज बस में खड़े खड़े आये
सबके चेहरों को देखते आये ।

पिछली यादें तलाश करते हुए
हम तेरे शहर में चले आये ।

और कुछ काम भी नहीं मुझको,
आज मिलने ही आपसे आये ।

जैसे कुछ खो गया था मेरा यहाँ
हर गली मोड़ देखते आये ।

मेरी औक़ात क्या महब्बत में
इस जहाँ में बड़े बड़े आये ।

मौलिक व अप्रकाशित

Added by सूबे सिंह सुजान on March 28, 2016 at 11:00pm — 5 Comments

कौन सी कौम उसे फिर से दुशाला देगी - ग़ज़ल

212         2112          2112     222



सोच अच्छी हो तो मस्जिद या शिवाला देगी

तंग  हो  और अगर  खून का  प्याला देगी।1।



लाख  अनमोल  कहो  यार  ये हीरे लेकिन

पर हकीकत  है कि मिट्टी  ही निवाला देगी।2।



जब हमें भोर में आँखों ने दिया है धोखा

कौन कंदील जो  पावों  को  उजाला देगी।3।



आशिकी यार तबायफ की करोगे गर जो

स्वर्ग से घर में नरक सा ही बवाला देगी।4।



आप हम खूब लडे़ खून बहाना मकसद

राहेरौशन तो जमाने  को  मलाला देगी।5।…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 28, 2016 at 3:00pm — 3 Comments

पद्य-शृंगारिक एवं कृष्ण-स्तुति

(1)

चंद्रमुखी! हे मृगनयनी! क्या यौवन-रूप सजाया है।
ओष्ठ-अरुण मधुरस के प्याले, सुंदर कंचन-काया है।
लोच कमरिया-इंद्रधनुष, लट-केश घटा की छाया है।
कटि गगरी धर जाने वाली, तूने हृदय चुराया है।

(2)

मुरलीधर धर मुरली अधरन, ग्वालिंन को नचावत हो।
विश्वम्भर भर प्रेम हृदय में, राधा को रिझावत हो।
चक्रपाणि पाणि चक्र धर, अधर्म को मिटावत हो।
दामोदर दर-दर भटकूँ मैं, क्यों न मोहि उबारत हो?

-रामबली गुप्ता
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by रामबली गुप्ता on March 28, 2016 at 3:00pm — 6 Comments

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