हृदय को विक्षिप्त करते,
शूल हैं, दंश हैं कुछ,
घावों को कुरेदते,
बीते पलों के अंश हैं कुछ।
अतीत की स्मृति भला,
मस्तिष्क से हो दूर कैसे,
कसक भी है, ठेस भी,
चुभन है भरपूर ऐसे,
वेदनाएं मिट रही हैं शनैः शनैः,
अभी भी पल…
ContinueAdded by Ajay Kumar Sharma on October 30, 2015 at 8:09am — No Comments
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 29, 2015 at 11:40pm — 8 Comments
यूँ भी तक़दीर बदलते हैं यहाँ
लोग गिर गिर के संभलते है यहाँ।
दोस्तों ! इक ज़रा मतलब के लिए
लोग चेहरों को बदलते है यहाँ।
माईले हिर्सो हवस है कितने
देख कर ज़र को फिसलते है यहाँ।
आँख की पुतली फिरे फिर शायद
लोग पल भर में बदलते है यहाँ।
ग़ैर की बात नहीं ऐ लोगों
ज़हर अपने भी उगलते है यहाँ।
क्या बिगाड़ेगी हवाये उनका
वो जो तूफान में पलते है यहाँ।
रोशनी बस वही फैलाते है
जो दीये की तरह जलते है यहाँ।…
Added by MOHD. RIZWAN (रिज़वान खैराबादी) on October 29, 2015 at 11:30pm — 5 Comments
"अंकल जी, बर्थडे का सामान दे दो , ये छोटा वाला केक कितने में मिलेगा ?" - सोनू ने बेकरी वाले से पूछा।
"डेढ़ सौ रुपये का"
जवाब सुनकर सोनू आँखें फाड़े साथियों की तरफ देखने लगा । सभी ने अपनी जेबों से पैसे निकाले। कुछ सिक्के, कुछ पुराने फटे से नोट, कुल जमा पैंतीस रुपये थे। छोटे भाई का बर्थडे तो मनाना ही है।
"लो अंकल जी, पैंतीस रुपये में छोटा सा कोई केक और बाक़ी सामान पैक कर दो !" - सोनू ने निराश हो कर कहा। बेकरी वाले को हँसी आ गई । फटे पुराने से कपड़े पहने हुए बच्चों को देखकर…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 29, 2015 at 11:00pm — 9 Comments
Added by Dr T R Sukul on October 29, 2015 at 10:03pm — No Comments
पूरे दिन घर में आवागमन लगा था | दरवाज़ा खोलते बंद करते श्यामू परेशान हो गया था | घर की गहमागहमी से वह इतना तो समझ चूका था कि बहूरानी का उपवास हैं | सारे घर के लोग उनकी तीमारदारी में लगें थें | माँजी सरगी की तैयारी के लिय उसे बार-बार आवाज दे रही थी | सारी सामग्री उन्हें देने के बाद वह खाना खिलाने लगा घर के सभी सदस्यों को | फिर फुर्सत हो माँजी से कह अपने घर की ओर चल पड़ा |
बाजार की रौनक देख अपनी…
Added by savitamishra on October 29, 2015 at 8:30pm — 5 Comments
जाने ये कैसा, असर जिन्दगी का,
फूलों की चाहत है होती सभी को,
काँटों भरा है, सफर जिन्दगी का।
मेहनत मशक्कत सब करते हैं फिर भी,
रस्ता न आता, नज़र जिन्दगी का।
बदलती फिजायें , बदलता जमाना,
अंधेरा है देखो जिधर, जिन्दगी का।
मन की मुरादें जब पूरी न होतीं,
तो सपना है जाता, बिखर जिन्दगी का।
गरीबों को मिलती न रोटी कहीं भी,
ये करते हैं कैसे, बसर जिन्दगी का।
भटकता हर इंसा कुछ पाने की जिद…
Added by Ajay Kumar Sharma on October 29, 2015 at 7:25pm — 1 Comment
Added by MOHD. RIZWAN (रिज़वान खैराबादी) on October 29, 2015 at 7:00pm — 2 Comments
2122---2122---2122---212 |
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दौर बदला है, बदल जा, ऐ सुखनवर साथ चल |
सोचता है जिस जबां में, उस जबां में लिख ग़ज़ल |
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जिंदगी बदलाव है...... गर थम गए… |
Added by मिथिलेश वामनकर on October 29, 2015 at 2:44pm — 36 Comments
काश कि सरकार,
अपने चक्षुओं से देख पाती,
यदि वोट की खातिर वो,
दोनों हाथ से धन न लुटाती।
तो देश की सारी व्यवस्था,
इस तरह न चरमराती।
काश कि सरकार,
अपने चक्षुओं से देख पाती।
छोड़ निंदा रस कहीं,
गर…
ContinueAdded by Ajay Kumar Sharma on October 29, 2015 at 1:42pm — 7 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 29, 2015 at 11:31am — 7 Comments
उत्सव –( लघुकथा ) -
"नाना जी, इस बार दीवाली पर पूरे मकान को बिजली की लडियों से ढक दैंगे, सारा घर जगमग करेगा"!
"नहीं छुट्टू, इस बार दीवाली पर यह सम्भव नहीं होगा"!
"किसलिये नाना जी"!
"छुट्टू, तेरी नानी,तेरे पापा और तेरी मॉ की बरसी होना बाकी है,उसके बाद ही हम कोई उत्सव मना सकते हैं"!
"यह तो और भी अच्छा है, एक साथ ही दौनों काम कर लेते हैं, दीवाली पर ही बरसी मना लेते हैं"!
"छुट्टू, बरसी एक साल पूर्ण होने पर पंडित जी द्वारा दी गयी तिथि पर ही होती…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on October 29, 2015 at 11:23am — 8 Comments
तुम सोचते हो जो नहीं हूँ मैं
जो कुछ भी मैं हूँ वो यही हूँ मैं।
दुश्वारियाँ करती नहीं व्याकुल
आता है जीना जिंदगी हूँ मैं।
जो सोचना है सोचिए साहब
मैं जानता हूँ कि सही हूँ मैं।
साहिल से यारी मैं करूँ कैसे
जाना है आगे इक नदी हूँ मैं।
अच्छा किसे लगता भला जलना
पर क्या करूँ कि रोशनी हूँ मैं ।
नीरज कुमार नीर / मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Neeraj Neer on October 28, 2015 at 11:08pm — 12 Comments
Added by kanta roy on October 28, 2015 at 8:36pm — 18 Comments
22—22—22—22—22—2 |
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गुलशन में फिर भौंरा आया, बढ़िया है |
फूलों से काटों का नाता, बढ़िया है |
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आज उफ़क तक सरसों देखी, दिल बोला-… |
Added by मिथिलेश वामनकर on October 28, 2015 at 4:03pm — 15 Comments
बहुत बरसों के बाद वह स्वयं को को बहुत ही हल्का हल्का महसूस कर रहा थाl न तो उसे सुबह जल्दी उठने की चिंता थी, न जिम जाने की हड़बड़ी और न ही अभ्यास सत्र में जाने की फ़िक्रl लगभग ढाई दशक तक अपने खेल के बेताज बादशाह रहे रॉबिन ने जब खेल से संन्यास की घोषणा की थी तो पूरे मीडिया ने उसकी प्रशंसा में क़सीदे पढ़े थेl समूचे खेल जगत से शुभकामनाओं के संदेश आए थेl कोई उस पर किताब लिखने की बात कर रहा था तो कोई वृत्तचित्र बनाने कीl उसकी उपलब्धियों पर गोष्ठियाँ की जा रही थींl किन्तु वह इन सबसे दूर एक शांत…
ContinueAdded by योगराज प्रभाकर on October 28, 2015 at 4:00pm — 12 Comments
नवरात्र के दिनों में सामने वाले घर में रहने वाली अधेड़ आयु की स्त्री के हाथों में लाल कांच की चूड़ी देखकर बिल्डिंग में रहने वाली सभी महिलाये चौंक गई, " ओह, तो इसका मतलब इनके पति हैं"! वह महिला अपने दो युवा बच्चों के साथ इस फ्लैट में रहने नई नई आई थी! प्रायः वह महिला कोई साज श्रृंगार नहीं करती थी जिससे सभी ने मन ही मन ये विचार बना लिया था वह शायद विधवा हैं लेकिन नवरात्र की पूजा के दिनों में साज श्रृंगार से पूर्ण उस महिला को देखकर अन्य महिलाओं के मन में खलबली मच गयी! आखिर पूछ ही लिया "आपके…
ContinueAdded by Rajni Gosain on October 28, 2015 at 12:57pm — 3 Comments
भरी दोपहरी मई के महीने में वो दरवाज़े पर आया और ज़ोर ज़ोर से आवाज़ लगाने लगा खान साहब…….. खान साहब……..| मेरी आँख खुली मैंने बालकनी से झाँका | एक ५५-६० साल का अधबूढ़ा शख्स, पुराने कपड़ों, बिखरे बाल और खिचड़ी दाढ़ी में सायकल लिए खड़ा है। मुझे देखते ही चिल्ला पड़ा फलाँ साहब का घर यही है| मैंने धीरे से हाँ कहा और गर्दन को हल्की सी जेहमत दी | वो चहक उठा उन्हें बुला दीजिये | मैंने कहा अब्बा सो रहे हैं, आप मुझे बताएं | उसने ज़ोर देकर कहा, नहीं आप उन्हें ही बुला दीजिये , कहियेगा फलाँ शख्स आया है। मुझे बड़ा…
ContinueAdded by नादिर ख़ान on October 28, 2015 at 12:30pm — 7 Comments
अधूरी ख्वाहिशें - ( लघुकथा ) -
कीर्ति के शिखर पर बैठे एक खिलाड़ी ने जब सन्यास ले लिया तो उसके कुछ समय पश्चात. पत्रकार सुधीर जिज्ञासा वश ढूंढता हुआ, उसका साक्षात्कार लेने, उसके पैत्रिक गॉव जा पहुंचा!गॉव के बाहर ही एक व्यक्ति मैले कुचैले वस्त्रों में सिर पर गोबर का टोकरा ले जाता दिखा!सुधीर ने उससे भूतपूर्व बालीबाल खिलाडी रघुराज सिंह का घर पूछा!
"क्या करोगे भाई उसके घर जाकर"!
“मुझे उनका साक्षात्कार लेना है"!
"एक गुमनाम आदमी का साक्षात्कार,क्यों मज़ाक करते…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on October 28, 2015 at 11:43am — 5 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 28, 2015 at 9:47am — 3 Comments
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