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दही हांडी [लघु कथा ]

"बहुत खुश दिख रहा है ,क्या हुआ रे ?"अपने दस साल के बेटे को नाचते हुए झुग्गी में घुसते  देख उसने पूछा I

"अरे ,मै आज हीरो बन गया I एक बारी में चढ़ के दही हांडी फोड़ दी  ,झक्कास ...सबने कंधे पर उठा लिया था Iखूब मिठाई परसाद मिला है  देखI"

"अरे वाह " उसके सर  के ऊपर से फिराकर माँ नेअपने  माथे के दोनों ओर उंगलियाँ चटका दीं I

"अब अगले साल भी ऐसे ही फोड़ दूंगा ,उसके अगले साल भी और .." ख़ुशी उसके सारे शरीर से फूट रही थी I  माँ को पकड़ कर वो गोल गोल घूमने लगा I

"अरे बाबा हर साल…

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Added by pratibha pande on September 12, 2015 at 11:00pm — 2 Comments

जहाँ को अमिय से भिगोने चला हूँ

मयक़श हूँ मैं आज, जीने चला हूँ।

ग़म भर के अपने, सीने चला हूँ।

मैं अंगूरी मदिरा का, आशिक नहीं हूँ।

गरल इस ज़माने के, पीने चला हूँ।।



मन वेदना से, पिघलने लगा है।

नैनों से दरिया, निकलनें लगा है।

कहीं पर भी दिल को, राहत नहीं है।

किसी नाज़नीं की, ये चाहत नहीं है।



जमानें को देने, नगीने चला हूँ।

गरल इस जमानें के, पीने चला हूँ।।



कहीं भूख से, छटपटाता कोई तन।

कभी टीन-छत से, टपकता जो सावन।

किसी आँख में जब, झलकती विवशता।

कोई बाप… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 12, 2015 at 2:12pm — 5 Comments

मैं नदिया के पार क्षितिज के पास मिलूँगा

मैं नदिया के पार क्षितिज के पास मिलूंगा।

यादों की फुलवारी में बन सांस मिलूंगा।।



पास नहीं हम दोनों लेकिन सपने तो हैं।

जब सोचोगी मैं बनकर एहसास मिलूंगा।।



काजल की रेखाएं बनकर मैं आँखों में।

घुंघरू की आवाज़ें बनकर मैं पावों में।

प्रथम किरण के संग तेरी अरदास करूंगा।

यादों की फुलवारी में बन सांस मिलूंगा।।



तेज धूप से तुझे बचाता बादल बनकर।

रिमझिम रिमझिम झरता हुआ सा सावन बनकर।

प्रिय तुझसे मैं तो बनकर बरसात मिलूंगा।

यादों की फुलवारी… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 12, 2015 at 1:04pm — 2 Comments

नहीं मरहम बड़ा कोई ( ग़ज़ल ) - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

1222  1222  1222   1222

नहीं है धार कोई भी समय की धार से बढ़कर

नहीं है भार कोई भी समय के भार से बढ़कर



भरे हैं   धाव   इसने  ही  बड़े  छोटे  सदा सब के

नहीं मरहम बड़ा कोई समय के प्यार से बढ़कर



उलझ मत सोच कर बल है भुजाओं में जवानी का

न देगा  पीर कोई   भी  समय  की  मार से बढ़कर



अगर दोगे समय को मान…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 12, 2015 at 10:40am — 3 Comments

आसमां तक वही गया होगा (ग़ज़ल)

(2122  1212  22)

आसमां तक वही गया होगा..

हो के बेख़ौफ़ जो उड़ा होगा..

-

राह तू जब तलक निकालेगा,

सूर्य तब तक तो ढल चुका होगा..

-

साँच को आंच ना कभी आती,

ये भी तुम ने कहीं सुना होगा..

-

हम नज़र किस तरह मिलायेंगे,

जब कभी उन से सामना होगा..

-

राह ईमान की चुने ही क्यों,

कौन तुमसे बड़ा गधा होगा..

-

ठोकरें ना गिरा सकीं उस को,

शख़्स तूफां में वो पला…

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Added by जयनित कुमार मेहता on September 12, 2015 at 5:26am — 8 Comments

है दूर मन्ज़िल घना तिमिर है

121 22 12122 12122 12122



है दूर मन्ज़िल घना तिमिर है कलम की राहें अग़र कठिन हैं।

नहीं थकेंगे कदम हमारे हमारा व्रत भी मगर कठिन है।।



चलो उठाओ तमाम बातें जवाब सारा कलम से होगा।

चले भले ही कदम अभी कम पता है हमको सफ़र कठिन है।।



मना ले जश्नां मज़े उड़ा ले ज़माने फिर भी सलाम तुझको।

सलाम वापस इधर ही होंगे हालाँकि तुमसे समर कठिन है।।



दुआएं उनको जो साथ में हैं दुआ उन्हें भी जो घात पर हैं।

मगर बता दूँ हताश ना कर प्रयास का हर असर कठिन… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 11, 2015 at 11:44pm — No Comments

समय बड़ा बलवान (दोहें)



समय चक्र को जानिये, समय बड़ा बलवान

कोयल साधे मौन जब, पावस का हो भान |

 

समय समय की बात है,समय समय का फेर

गीदड़ भी बनता कभी,  कैसा बब्बर शेर |

 

सही समय चेते नहीं, समय गए पछताय,

पुनः मिले अवसर नहीं,जग में होत हँसाय |

 

अवसर तो सबको मिले, समझे जो संकेत,

इसको जो न जान सके, भाग्य कहे निश्चेत |

 

जिस पल साधे काम को, उस पल ही उत्कर्ष

सार्थक श्रम बदले समय, मन में होता हर्ष…

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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 11, 2015 at 5:32pm — No Comments

क्यों?

50

मैं जाने क्यों कुछ सोच सोच रह जाता हॅूं,

नयनों के तिरछे तीर तीक्ष्ण सह जाता हूूॅं ।

कुछ पता नहीं बस मन से ही क्यों मन की कह जाता हॅूं,

सच है अन्तर की शब्दमाल के भावों में बह जाता हॅूं।

ए जनमन के भाव सिंधु, बढ़ते घटते ए चपल इंदु!

बतलाओ क्यों नहीं सरलता से अपनी तह पाता हॅूं?

झींगुर की झीं झीं से लगता एक मधुर रागनी बन जाऊं,

डलियों की कलियों सी महकी श्रंगार सुंगंधी बन जाऊं,

पर अबला के ए क्रंदन आत्मीयों की पल पल बिछुड़न!

तुम बतलाओ…

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Added by Dr T R Sukul on September 11, 2015 at 10:12am — No Comments

बीती ताहि बिसार दे (लघुकथा)

"भैया ये दुनियादारी के रिश्ते निभाने से निभते है बातो से नही, ये मैं ही थी जो अब तक निभाती आयी मगर अब नही।" 'आप्रेशन' के बाद जब से भावना को होश आया उसके दिमाग में यही बात बार बार आ रही थी जो उसने दो वर्ष पहले क्रोध में आ भाई को कही थी और उसकी कही बात ने उनके रिश्ते को एक अंतहीन चुप्पी में बदल दिया था। यही नही भाई की घोर परेशानी में भी उसने अपनी जिद के चलते दोबारा भाई के घर का रूख नही किया था।

"रिपोर्टस आर नाॅर्मल भावना, डाॅक्टर ने कहा है जल्दी ही छूट्टी मिल जायेगी।" पति की आवाज ने उसकी…

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Added by VIRENDER VEER MEHTA on September 10, 2015 at 10:00pm — 4 Comments

ग़ज़ल

१ २ १ २ १ २ १ २ १ २ १ २ २ २
नही आये जो तुम बना लिए बहाना है |
हमें उमीद में तेरी शमाँ जलाना है |
हसीं लबों का मुस्कराना गुम गया तेरा,
हमें तलाश फिर वही उसे सजाना है |
अभी नई कहानी जिन्दगी लिखें तेरी,
ये फैसला करेंगे कब इसे सुनाना है |
चलो उसी से कोई बात अंधेरें की हो,
बता देगा कहाँ चिराग़ ये जलाना है |
ये खुदकशी नहीं लगे हुई कोई साजिस,
बहार जिंदगी, न मौत उस बुलाना है |

Added by मोहन बेगोवाल on September 10, 2015 at 8:30pm — 4 Comments

गजल

गजल छंद-दिक्पाल/मृदुगति
मापनी221 2122 221 2122
होता वही कभी जो चाहा किया समय है
होता रहा कभी जो करता चला समय है।
चाहा बहुत कि मोडूँ उलटा चलन हुआ कब
मानी न ही कभी तो उसने बड़ा समय है।
खूबी रही वही हाँ ना की अभी कहूँ तो
छू ले गगन अभी वो सीढ़ी लगा समय है।
चाहा उसे बना दूँ अवतार नज्म का मैं,
उड़ती रही घटा सी हर पल रहा समय है।
उसकी अदा नफीसी कैसे करूँ बयाँ मैं,
नजरें बचा नजर कर लेती फिरा समय है।
मौलिक व अप्रकाशित

Added by Manan Kumar singh on September 10, 2015 at 10:00am — 9 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ज़रा सी बात पे फिर आज मुँह फुला आया-- (ग़ज़ल) -- मिथिलेश वामनकर

 

1212--- 1122---1212---22

 

अगर नहीं था यकीं क्यों हलफ उठा आया

ज़रा सी बात पे फिर आज मुँह फुला आया

 

पहाड़ कौन सा टूटा, जो तेरी बातों…

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Added by मिथिलेश वामनकर on September 10, 2015 at 9:30am — 26 Comments

बंजारा

एक मुसाफ़िर नगर नगर में देखो घूमता, है बंजारा।

हर बस्ती की सरहद को बस छूके लौटता, है बंजारा।।  

रमें कहाँ पर बसे कहाँ पर स्थिर खुद को करे कहाँ पर।

डेरा अपना कहाँ जमाये ठौर ढूँढता, है बंजारा।।  

प्यासा प्यासा बादल बरखा को दर दर बस ढूँढ़ रहा है।

पानी पानी अपने जीवन का रस खोजता, है बंजारा।।  

सोच रहा है अपना नसीबा अपने करम से कहाँ बिगाड़ा।

रफ़ के पन्नों जैसी पुस्तक खुद ही बाँचता, है बंजारा।।

 

किस पर क्रोध करेगा…

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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 10, 2015 at 5:15am — 7 Comments

आती है याद

जलते तो है सभी

पर जलने का भी होता है

एक ढंग, एक कायदा,

एक सलीका

जब मै किसी दिए को

किसी निर्जन में

जलते देखता हूँ निर्वात   

तब समझ पात़ा हूँ

कि क्या होता है

तिल–तिल कर जलना,

टिम-टिम करना 

घुट-घुट मरना

और तब मुझे याद आती है

मुझे मेरी माँ

जीवनदायिनी माँ 

सब को संवारती

खुद को मिटाती माँ !

(अप्रकाशित व् मौलिक )

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 9, 2015 at 8:30pm — 15 Comments

हम सब एक हैं

जात पात पंथ काज
विषमतायें हजार
भाषा बोली हैं अलग
हम सब एक हैं ।

वीर भोग्या वसुंधरा
किसान सींचे स्वेद से
लहलहाती बालियां
हम सब एक हैं ।

मची क्यूँ है मारकाट
खामोश क्यूँ हवा हुई
चिराग दिलों के बुझे
हम क्यूँ ना एक हैं ।

आतंकवाद दूर हो
मनु मनु में प्रेम हो
अनेकता में एकता
लगे सब एक हैं ।।

मौलिक व अप्रकाशित ।

Added by Pankaj Joshi on September 9, 2015 at 6:10pm — 3 Comments

धर्मान्धों की नगरी में (ग़ज़ल)

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

 

इंसाँ दुत्कारे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में

पर पत्थर पूजे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में

 

शब्दों से नारी की पूजा होती है लेकिन उस पर

ज़ुल्म सभी ढाये जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में

 

नफ़रत फैलाने वाले बन जाते हैं नेता, मंत्री

पर प्रेमी मारे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में

 

दिन भर मेहनत करने वाले मुश्किल से खाना पाते

ढोंगी सब खाये जाते हैं धर्मान्धों की नगरी…

Continue

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 9, 2015 at 5:50pm — 18 Comments

ग़ज़ल इस्लाह के लिए (मनोज कुमार अहसास)

2212 2212 2212 12





सज़दो का मेरा इश्क़ के ईनाम लिख दिया

साकी ने मेरे आंसुओं को जाम लिख दिया



सारे जहां की दौलते मुठ्ठी में आ गयीं

बेटी ने मेरे हाथ पर जब नाम लिख दिया



खुद को मिला के आ गया दुनिया की भीड़ में

उसने उदासियां का मेरी दाम लिख दिया



इस ज़िन्दगी के घाव कितने कम लगे मुझे

मैंने तड़फती सोच मे जब राम लिख दिया



हाथों के ज़ख्मो पेट की सिलवट को देखकर

घबरा के चारागर ने भी आराम लिख दिय



लपटों मे घिर न जाये कहीं… Continue

Added by मनोज अहसास on September 9, 2015 at 4:00pm — 7 Comments

अस्तित्व

छलछलाई आँखों से 

मुस्कराई आँखों से 

विदा दी देहरी ने 

चल पड़ी मैं......

छलछलाई आँखों से 

मुस्कराई आँखों से 

स्वागत किया देहरी ने 

हंस पड़ी मैं.........

रंगोली सजाने लगी 

वंदनवार लगाने लगी

सज गयी देहरी 

रम गयी मैं........

प्रीत ने बहका दिया 

मीत ने महका दिया

लहरा गया आँचल 

संवर गयी मैं........

ममता ने निखार दिया 

आँचल भी संवार…

Continue

Added by Abha Chandra on September 9, 2015 at 4:00pm — 14 Comments

वनवास

भूमिजा सुता जनक
चली आज पति संग
त्याग राज वेश सभी
वन  को   विदाई    है ।

वन  भयंकर      पशु
जंगली  आदम  खोर
हड्डियों के ढेर देख 

सीते    घबराई    है ।

प्रभु  राम  सीते  मन
पढ़ मन मुस्कियायें
माया रचने की घडी
कैसी  अब   आई  है ।

देह  धारण     मनुष्य
मिलता बड़े भाग्य से
माया  तेरे  कंधे  बड़ी
जिम्मेदारी  आई    है ।

मौलिक व अप्रकाशित ।

Added by Pankaj Joshi on September 9, 2015 at 1:30pm — 5 Comments

गीत - "बूँदें मचल रही हैं"

घन स्याम नभ में’ छाया , बूदें मचल रही हैं |
है जोर अब हवा का, ये बन सँवर रही हैं |
सूरज छुपा है’ बैठा , रूठा है रश्मियों से,
धरती मगन हुई है , चाहत उबल रही है |
.....घन स्याम नभ में’ छाया , बूदें मचल रही हैं…
Continue

Added by Chhaya Shukla on September 9, 2015 at 10:30am — 10 Comments

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