221—2121—1221-212 |
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हमको तो खुल्द से भी मुहब्बत नहीं रही |
या यूं कहें कि पाक अकीदत नहीं रही |
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जाते कहाँ हरेक तरफ यार ही… |
Added by मिथिलेश वामनकर on September 9, 2015 at 9:30am — 18 Comments
रोबोट घंटों लगातार काम करता है
और कुछ ही समय में फिर से रीचार्ज हो जाता है
कारखाने से कबाड़खाने तक
रोबोट कहीं नियम नहीं तोड़ता
रोबोट चुपचाप सुनता है उच्चाधिकारियों की सारी बातें
और इजाज़त मिलने पर ही बोलता है
रोबोट बिना किसी विरोध के उन सारी बातों में यकीन कर लेता है
जो उसकी मेमोरी में भरी जाती हैं
रोबोट अपने मालिकों के लिए ढेर सारा पैसा कमाता है
और बदले में उसे सिर्फ़…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 8, 2015 at 6:36pm — 10 Comments
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 8, 2015 at 6:30pm — 16 Comments
Added by दिनेश कुमार on September 8, 2015 at 4:38pm — 18 Comments
टूटे सपने … (लघुकथा)
"राधिका ! आओ बेटी , अविनाश जाने की जल्दी कर रहा है। " माँ ने राधिका को आवाज़ लगाते हुई कहा।
''अभी आयी माँ, बस दो मिनट में आती हूँ। '' राधिका ने आईने के सामने बैठे बैठे ही जवाब दिया। आज अविनाश कितने समय के बाद विदेश से आया है। आज मैं उसे अपने मन की बात कह ही डालूंगी ,राधिका मन ही मन बुदबुदाई। जल्दी से आँखों में काजल की धार बना वो ड्राईंग रूम में आई।
''हाय अविनाश कैसे हो ? विदेश में कभी हमारी याद भी आती थी या गोरी मेमों में ग़ुम रहते थे। ''
''अरे नहीं…
Added by Sushil Sarna on September 8, 2015 at 2:30pm — 6 Comments
कैसी तेरी यह दशा
माँ भारती हुई आज
दुश्मनों का रचा कैसा
ये प्रपञ्च खेल है ।
शेर की मांद भीतर
हाथ देने को तैय्यार
किसने अपने प्राणों
का मोह दिया ठेल है ।
देश के लाल बहुत
सदा हुए हैं तत्पर
करने प्राण उत्सर्ग
उत्सव खेल हैं ।
शत्रु मुण्डमाल आज
हाथों में खडग लिये
माँ भवानी को चढ़ाने
जन गण मेल हैं ।
मौलिक व अप्रकाशित ।
Added by Pankaj Joshi on September 8, 2015 at 1:25pm — 2 Comments
पति को आॅफिस के लिये विदा करके ,सुबह की भाग - दौड़ निपटा पढने को अखबार उठाया , कि दरवाजे की डोर बेल बज उठी ।
"इस वक्त कौन हो सकता है !" सोचते हुए दरवाजा खोला। उसे मानों साँप सूँघ गया । पल भर के लिये जैसे पूरी धरती ही हिल गई थी । सामने प्रतीक खड़ा था ।
"यहाँ कैसे ?" खुद को संयत करते हुए बस इतने ही शब्द उसके काँपते हुए होठों पर आकर ठहरे थे ।
"बनारस से हैदराबाद तुमको ढूंढते हुए बामुश्किल पहुँचा हूँ ।" वह बेतरतीब सा हो रहा था । सजीला सा प्रतीक जैसे कहीं खो गया था ।
"आओ…
Added by kanta roy on September 8, 2015 at 10:30am — 2 Comments
मेरे शानों पे .....
साँझ होते ही मेरे तसव्वुर में
तेरी बेपनाह यादें
अपने हाथों में तूलिका लिए
मेरी ख़ल्वत के कैनवास पर
तैरती शून्यता में
अपना रंग भरने आ जाती हैं
रक्स करती
तेरी यादों के पाँव में
घुंघरू बाँध
अपने अस्तित्व का
अहसास करा जाती हैं
मेरी रूह की तिश्नगी को
अपनी दूरी से
और बढ़ा जाती हैं
मेरे अश्क
मेरी पलकों की दहलीज़ पे
चहलकदमी करने लगते हैं
न जाने कब
सियाह…
Added by Sushil Sarna on September 7, 2015 at 10:22pm — 16 Comments
1212--- 1122---1212---22 |
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जरा खंरोच जो आई लगे सदा करने |
कलम जो धड़ से है, जाएँ कहाँ दवा करने |
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उसे भरम है अदालत से फैसला… |
Added by मिथिलेश वामनकर on September 7, 2015 at 9:30pm — 36 Comments
Added by Manan Kumar singh on September 7, 2015 at 8:26pm — 5 Comments
1)
लगी कहन माँ देवकी….सुनलो तारनहार
सफल कोख मेरी करो…..मानूँगी उपकार
मानूँगी उपकार ……. रहूँ ममता में भूली
हृदय भरें उद्गार…...भावना जाये झूली
स्वारथ हो ये जन्म...जाऊँ बन तेरी सगी
हे करुणा के धाम,लगन मनसा ये लगी॥
***************************************
2)
कारा गृह में अवतरित......दीनबंधु भगवान
मातु-पिता हर्षित हुए, लख शिशु की मुस्कान
लख शिशु की मुस्कान, व्यथा बिसरी तत्क्षण…
ContinueAdded by kalpna mishra bajpai on September 7, 2015 at 8:00pm — 10 Comments
Added by Rahul Dangi Panchal on September 7, 2015 at 2:30pm — 14 Comments
(221 1222 221 1222)
जाता नहीं अब कोई भी दर्द दवा लेकर..
ज़ख्मों को भरा दिल के,यादों का नशा लेकर..
-
अब तक न मेरे फ़न को पहचान सके हैं जो,
फिर बाद में ढूंढेंगे वो मुझको दिया लेकर..
-
फीके सभी पकवानों के स्वाद हो जाते हैं,
खाता है नमक रोटी, जब भी वो मज़ा लेकर..
-
खोले खिड़की बैठा मैं देख रहा रस्ता,
शायद पहुँचे, कोई पैगाम हवा लेकर..
-
न ढूंढ सकेगा सारी उम्र खुदा को 'जय',
फिर बोल करेगा क्या, तू उसका पता…
Added by जयनित कुमार मेहता on September 6, 2015 at 11:53pm — 10 Comments
अतिशय उत्साह
चाहे जिस तौर पर हो
परपीड़क ही हुआ करता है
आक्रामक भी.
व्यावहारिक उच्छृंखलता वायव्य सिद्धांतों का प्रतिफल है
यही उसकी उपलब्धि है
जड़हीनों को…
ContinueAdded by Saurabh Pandey on September 6, 2015 at 7:30pm — 31 Comments
हर तरफ आखिर हँसी छा गयी है
आज कौवे को चिड़ी भा गयी है।
काँव कितनी बार करता रहा वह,
ठाँव उसके आज मैना गयी है।
टक लगा बगुला रहा था कभी से,
चोंच मछली एक छलक आ गयी है।
देख वंशी है लगी हो कहीं कुछ,
लोग बोलें टोना' ले जा गयी है।
साँढ़ बूढ़ा कुलबुलाया शहर में,
देख बछिया खुद अचंभा गयी है।
विश्व-जय सी हो गयी तो अभी है
कंत-घर अमृत नवोढ़ा गयी है।
बाग़ में बुलबुल अभी गा रही थी,
क्यूँ न जाने चुप हवा छा गयी…
Added by Manan Kumar singh on September 6, 2015 at 7:30pm — 5 Comments
" पापा , हम गरीब क्यों है ? "
" नहीं बेटा हम गरीब कहाँ .... देखो तो ....तुम शहर के सबसे बडे़ स्कूल में जो पढते हो ! " बेटे को दुलारते हुए पिता ने गोद में बिठा लिया ।
"लेकिन पापा , मेरे दोस्त कहते है कि मै गरीब हूँ । " बच्चे का मन बेहाल सा था ।
" क्यूँ कहते है तुम्हें वो गरीब ... अभी तो ...उस दिन तुम्हारे जन्मदिन पर शानदार दावत दी तुम्हारे दोस्तों को ! " पिता मन को कड़ा कर रहे थे ।
" तभी तो कहा ! उस दिन हमारे घर आने से ही तो उनको मालूम हुआ की हम गरीब है । वो कहते है कि…
Added by kanta roy on September 6, 2015 at 7:00pm — 13 Comments
Added by शिज्जु "शकूर" on September 6, 2015 at 2:47pm — 5 Comments
सांझ का समय था. किसनलाल अपने बेलों को चारा खिलाने में मग्न था. मंद-मंद पूरबा चल रही थी. कुछ पल के लिए वह ठिठक गया और कमर सीधी करते हुए नथुना फूलाकर इधर-उधर सर घुमाते हुए कुछ पयान करने लगा. जोर-जोर से वह सांसें भर रहा था, सीआईडी कुत्ते की तरह जैसे किसी चीज का सुराग खोज रहे हो. हाँ, वह सुराग ही खोज रहा था. बासमती चावल की खीर की सुगंध का सुराग. खीर की सुगंध आ कहां से रही थी इसका अंदाजा लगाने का वह भरसक प्रयास कर रहा था.…
ContinueAdded by Govind pandit 'swapnadarshi' on September 6, 2015 at 11:00am — No Comments
2122 2122 2122 212
यार मेरे आज फिर से दिल दुखाने आ गए
इस बहाने वो चलो मिलने मिलाने आ गए
जब कभी परदेश में मुझको सताया यादों ने
साथ देने दादी के किस्से सुहाने आ गए
बोझ से लगते हैं उनको आज बूढ़े माँ-पिता
जेब में बच्चों के जब भी चार आने आ गए
पढ़ किताबें शहर से जब गाँव आया तो मुझे
बस अना से दूर रहना सब बताने आ गए
कर चुका मैं मय से तौबा फिर हुआ ऐसा यहाँ
हुश्न वाले आँखों से मुझको पिलाने…
ContinueAdded by gumnaam pithoragarhi on September 6, 2015 at 9:17am — 5 Comments
"देख ली अपने चेले की करतूत?" वयोवृद्ध शायर के सामने एक पत्रिका को लगभग फेंकते हुए एक समकालीन ने कहा।
"क्या हो गया भाई ? इतना भड़क क्यों रहे हो ?"
"इसमें अपने चेले का आलेख पढ़िए ज़रा।"
"कैसा आलेख है?"
"आपकी ग़ज़लों में नुक्स निकाले हैं उसने इस पत्रिका में, आपकी ग़ज़लों में। मैं कहता था न कि मत सिखाओ ऐसे कृतघ्न लोगों को?"
समकालीन बोले जा रहे थे, किन्तु वयोवृद्ध शायर बड़ी तल्लीनता से आलेख पढ़ने में व्यस्त थे।
"देख लिया न? अब बताइए, क्या मिला आपको ऐसे लोगों…
ContinueAdded by योगराज प्रभाकर on September 5, 2015 at 5:19pm — 19 Comments
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