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अतुकांत कविता

क्या तुम्हें मालूम है

मुझे हरवक्त तुम्हें ,मेरे साथ होने का

अहसास रहता है

कि कहीं दूर से ही तुम मुझे कोई सहारा दे रही हो

मगर अबकी बार तुमसे मिलकर

मेरा वह अहसासों भरा विश्वास टूटता नजर आया

क्या तुम खुदको मुझसे दूर ले जाना चाहती हो

या दूर ले जा चुकी हो

बहुत दूर

मुझे तुम्हारी हर राहे मुकाम पर

जरूरत होगी

उस वक्त एक सूनापन

मेरे चेतन को अवचेतन करेगा

मेरे सोचने की शक्ति क्षीण हो जायेगी

मेरा शरीर सुन्न होने लगेगा

मेरी…

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Added by umesh katara on February 14, 2015 at 7:30am — 12 Comments

वैलेंटाइन डे

जिंदगी को सब प्यार करते है ,

इसलिए नहीं कि वह हमें जीने का मौक़ा देती है ,

बल्कि इसलिए कि वह हमें प्यार से जीने का मौक़ा देती है,

प्यार करने , प्यार बांटने और प्यार में रहने का मौक़ा देती है ,

प्यार है तो जिंदगी में कोई बोझ बोझ नहीं है ,

प्यार नहीं है तो जिंदगी से बड़ा कोई बोझ नहीं है ,

हम जिंदगी के लिए जीना नहीं चाहते हैं ,

हम प्यार के लिए जीना चाहते हैं,

हम प्यार के लिए जिंदगी चाहते है ,

इसीलिये हम सब जिंदगी को प्यार करते है .



हैपी… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on February 14, 2015 at 1:30am — 20 Comments

ग़ज़ल : ख़ुद को दुहराने से है अच्छा रुक जाना

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२

 

फिर मिल जाये तुम्हें वही रस्ता, रुक जाना

ख़ुद को दुहराने से है अच्छा रुक जाना

 

उनके दो ही काम दिलों पर भारी पड़ते

एक तो उनका चलना औ’ दूजा रुक जाना

 

दिल बंजर हो जाएगा आँसू मत रोको

ख़तरनाक है यूँ पानी खारा रुक जाना

 

तोड़ रहे तो सारे मंदिर मस्जिद तोड़ो

नफ़रत फैलाएगा एक ढाँचा रुक जाना

 

पंडित, मुल्ला पहुँच गये हैं लोकसभा में

अब तो मुश्किल है ‘सज्जन’ दंगा रुक…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 13, 2015 at 10:32pm — 17 Comments

पहाड़ और पीठ

 

पहाड़ और पीठ



एक



पहाड़,

सिर्फ पीठ होता है

मुह होता तो बोलता

पहाड़ के पैर भी नही होते

हाथ भी

वरना वह चलता

कुछ करता या,

उठता बैठता भी

पहाड़, अपनी पीठ पर

लाद लेता है तमाम जंगल नदी नाले,

हरी भरी झील भी

सड़क और बस्तियां भी

और कुछ नही बोलता

क्यों कि,

पहाड़ सिर्फ पीठ है

और पीठ कुछ नही बोलती



दो,



पीठ,

पहाड़ नही होती

पर लाद लेती है पहाड़

पीठ के भी मुह नही होता

पहाड़ की तरह होती है एक…

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Added by MUKESH SRIVASTAVA on February 13, 2015 at 12:24pm — 9 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
पाँच दोहे

मानव मन दुर्बल हुआ, जो पूजे इंसान ।
अंतर ईश मनुष्य का, ना समझे नादान।।

पंक घृणा के फेंककर, कहलाये भगवान।
इतनी सी इस बात को, समझे ना इंसान।।

अपनी अपनी है समझ, अपना अपना पंथ।
मन से दुर्बल के लिये, व्यर्थ सभी हैं ग्रंथ।।

रहे हृदय में आस्था, श्रृद्धा में हो ईश
बस उसके ही नाम पर, नत रखना तू शीश।।

मानव को मानव समझ, ऐसा रख व्यवहार।
बने हँसी का पात्र तू, ऐसा क्या आचार।।

-मौलिक व अप्रकाशित

Added by शिज्जु "शकूर" on February 13, 2015 at 8:00am — 9 Comments

वो मुझे देखकर मुस्कराती रही..

मैं उसे देखकर मुस्कराता रहा,

वो मुझे देखकर मुस्कराती रही।

उस कहानी का किरदार मैं ही तो था,

जो कहानी वो सबको सुनाती रही।।

मैं चला घर से मुझ पर गिरीं बिजलियां

बदलियां नफरतों की बरसने लगीं,

बुझ न जाए दिया इसलिए डर गया

देखकर आंधियां मुझको हंसने लगीं,

दुश्मनी जब अंधेरे निभाने लगे

रोशनी साथ मेरा निभाती रही,

मैं उसे देखकर मुस्कराता...

प्यास तुमको है तुम तो हो प्यासी नदी

एक सागर को क्या प्यास होगी भला,

हां अगर तुम…

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Added by atul kushwah on February 12, 2015 at 10:00pm — 14 Comments

धूमिल सपने हुए हमारे

धूमिल सपने हुए हमारे

रंगहीन सी

प्रत्याशाएँ

सोये-जागे सन्दर्भों की

फैली हैं

मन पर शाखाएँ

 

शंकायें तो रक्तबीज सी

समाधान पर भी

संशय है

अपने पैरों की आहट में

छिपा हुआ अन्जाना

भय है

 

किस-किसका अभिनन्दन कर लें

किस-किसका हम

शोक मनाएँ

 

सांस-सांस में दर्प निहित है

कुछ होने कुछ

अनहोने का

कुछ पाने की उग्र लालसा

लेकिन भय

सब कुछ खोने का

 

अनगिन…

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Added by JAGDISH PRASAD JEND PANKAJ on February 12, 2015 at 8:30pm — 10 Comments

मेरी पलकों को......

मेरी पलकों को......एक रचना 

मेरी पलकों को अपने ख़्वाबों की  वजह दे दो

अपनी साँसों में  मेरे जज़्बातों को जगह दे दो

जिसकी  नमी  तुम ये  दामन सजाये बैठी हो

उसके  रूठे  सवालों को जवाबों में जगह दे दो

बंद हुआ  चाहती हैं  अब थकी हुई पलकें मेरी

अपनी तन्हाई में रूहानी रातों  को जगह दे दो 



ये ज़िंदगी तो गुज़र जाएगी तेरे हिज्र के सहारे 

इन हाथों में कुछ रूठे हुए वादों को जगह दे दो

कल का वादा न करो  कि अब न…

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Added by Sushil Sarna on February 12, 2015 at 8:00pm — 24 Comments


मुख्य प्रबंधक
लघुकथा : प्रीत (गणेश जी बागी)

कुष्ट रोग से ग्रसित बिधवा बुढ़िया अकेली ही रहती थी. इकलौता बेटा शादी कर पता नहीं कहाँ जा बसा था. किसी ने बताया कि रोग से मुक्ति चाहिए हो तो जुम्मे के रोज मजार वाले बाबा के पास जाओ. बुढ़िया अगले ही जुम्मे को मजार पर पहुँच गयी । वहाँ झाड़-फूंक चल रही थी. बाबा के एक शागिर्द ने चढ़ावा लिया और घर-परिवार, रिश्तेदारों आदि के बारे में पूछताछ कर एक तरफ बिठा दिया जहाँ पहले से उस जैसे अन्य मरीज इन्तजार कर रहे थे. खैर कुछ देर इन्तजार के पश्चात उसकी बारी आयी ।

बाबा की…

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Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on February 12, 2015 at 4:00pm — 25 Comments

चांदनी और छाँव

 

आधी रात

चांदनी और छाँव

तस्करों का हरा-हरा गाँव

जालिमो में कुछ अधेड़

कुछ तरु, कुछ वृक्ष, कुछ पेड़

 

कुछ घर थे गरीबों के भी

दांतों के बीच जीभों के भी

सचमुच बदनसीबों के भी   

 

आधी रात

चांदनी और छाँव

सन्नाटे में डरा-डरा गाँव

एक गरीब बुढ़िया के द्वार

तेजी से आया इक घुड़सवार

 

बुढिया की बेटी को…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 12, 2015 at 10:54am — 14 Comments

गज़ल-मैं सीसा हूँ मुझे अफसोस क्या होगा बिखरने से

1222 1222 1222 1222

-----------------------------------------------

ठसक तेरी मेरी गैरत के आपस में उलझने से

मुहब्बत लुट गयी अपनी दिलों में जह्र पलने से

..........

दगाबाजी से अच्छा तो अलग होना मुनासिब था

बफाओं के बिना क्या है सफर में साथ चलने से

...........

मेरा घर अपने हाथों से कभी मैंने जलाया था

नहीं लगता मुझे अब डर किसी का घर भी जलने से

----------

तू पत्थर है मुझे हरबार चकनाचूर करता है 

मैं सीसा हूँ मुझे अफसोस क्या होगा बिखरने…

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Added by umesh katara on February 12, 2015 at 10:48am — 16 Comments

ज़िंदगी गम का समंदर है ..............

दूर मुझसे कितने दिन रह पायोगे , सोच लो , फिर रहो

दर्द-ए-दिल है ये , सह पायोगे , सोच लो, फिर सहो



लौट के खुद पे आती हैं , बद-दुयाएँ , सुना है ?

सहन ये सब कर पायोगे , सोच लो , फिर कहो



क्या नहीं उसने दिया , पर क्या दिया तुमने उसे ?

क्या कभी उठ पायोगे इतना , सोच लो , फिर गिरो



इतना भी आसां नहीं है, रास्ता ख़ुद्दारियों का

सूरज की जलन सह पायोगे , सोच लो , फिर बढ़ो



घर से बे-घर होके भी उसने बसाई दिल की दुनिया

आँसुयों सा ये सफ़र कर…

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Added by ajay sharma on February 12, 2015 at 12:30am — 10 Comments

प्रकृति में सुकून---डॉ o विजय शंकर

प्रकृति प्रेमी है वह ,

प्रकृति से असीम प्रेम करता है,

पहाड़ों पर, समुद्र-तटों पर, जंगलों में, रेगिस्तान में ,

कहाँ नहीं जाता है वह , कई कई दिन ,

कई कई रातें बिताता है ,

प्रकृति की गोद में ही सुख पाता है ,

वहीं खो जाता है वह ।

बस प्रकृति की सर्वोत्त्तम कृति से डरता ,

बहुत घबड़ाता है ,

उनसे कुछ दूर ही रहता है वह ,

सर्वोत्तम कृति की प्रकृति , समझ ही नहीं पाता है वह ,

उनकी उष्णता , उदासीनता , विद्वता , कुछ समझ नहीं पाता ,

उनके बीच तो जैसे… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on February 11, 2015 at 9:17pm — 20 Comments

गीतिका --8+8+8 .....फिर आऊँगा

मातृधरा को शीश नवाने फिर आऊँगा

जननी तेरा कर्ज़ चुकाने फिर आऊँगा

 

चंदन जैसी महक रही है जो साँसों में

उस माटी से तिलक लगाने फिर आऊँगा

 

आँसू पीकर खार जमा जिनके सीनों में

उन खेतों में धान उगाने फिर आऊँगा

 

इक दिन तजकर परदेशों का बेगानापन

आखिर अपने ठौर ठिकाने फिर आऊँगा

 

गोपालों के हँसी ठहाके यादों में हैं

चौपालों की शाम सजाने फिर आऊँगा

 

खाट मूँज की छाँव नीम की थका हुआ तन

जेठ दुपहरी…

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Added by khursheed khairadi on February 11, 2015 at 11:29am — 24 Comments


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(एक तरही ग़ज़ल )“सामान सौ बरस के हैं कल की खबर नहीं" ( गिरिराज भंडारी )

 221   2121  1221    2 2

रख ले चराग़ साथ में, शम्सो क़मर नहीं  --

रहजन बिना यहाँ पे कोई रहगुज़र नहीं

शम्सो क़मर - चाँद  सूरज

 

तेरी लगाई आग की तुझको ख़बर नहीं

सब ख़ाक हो चुका यहाँ  कोई शरर नहीं

रो ले अगर, तेरा बिना  रोये गुज़र  नहीं

लेकिन ये सच है, आँसुओं में अब असर नहीं

 

सब कुछ वही है इस जहाँ में , बस तेरे बिना

मेरी वो शाम गुम हुई , वैसी सहर नहीं

 

मिल जायें बदलियाँ तो वो सूरज को ढ़ाँक…

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Added by गिरिराज भंडारी on February 11, 2015 at 8:30am — 29 Comments


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आखिर क्यों मैं ऐसा हूँ ..... ग़ज़ल (मिथिलेश वामनकर)

22--22--22--22--22--22--22--2

----------------

हँसते - हँसते  रो  लेता  हूँ,   रोते - रोते  हँसता  हूँ

कोई मुझसे  ये मत पूछो आखिर क्यों  मैं  ऐसा हूँ

 

आईने-सी…

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Added by मिथिलेश वामनकर on February 10, 2015 at 11:00pm — 45 Comments

ग़ज़ल

इक ग़रीब औरत की बेबसी का क़िस्सा है

सादगी समझते हो, सादगी का क़िस्सा है



मैं सुना रहा हूँ और आप मुस्कुराते हैं

थोड़ा सोचकर देखें आप ही का क़िस्सा है



एक था सख़ी हातिम ये वही रिवायत है

मेरे मोहतरम महमाँ ये उसी का क़िस्सा है



एटमी धमाकों का इन पे क्या असर होगा

अब भी इनके मकतब में जलपरी का क़िस्सा है



बुलबुलों के होटों पर गुलशनों की बातें हैं

आदमी के होटों पर आदमी का क़िस्सा है



रोज़ ही वो सुनते थे, पूछ ही लिया इक दिन

किस हसीं… Continue

Added by Samar kabeer on February 10, 2015 at 10:42pm — 11 Comments


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पहली दफ़ा मुझे न खुशी से खुशी हुई

221 2121 1221 212

पहली दफ़ा मुझे न खुशी से खुशी हुई
दामे हयात में मेरी जाँ है फँसी हुई

घुटने लगा है दम मेरा रिश्तों के बोझ से
ये दुनिया जैसे बर्फ के अंदर धँसी हुई

तेरी शिकायतों का करूँ क्या कोई गिला
आँखों में तेरी दिख गई हसरत दबी हुई

था इक मलाल दिल में तगाफ़ुल का हमनशीं
वो बात तेरे वस्ल से आई गई हुई

औराक़ पर उतर गये पल इंतज़ार के
मिसरों में तेरी शक्ल सी मानो बनी हुई

-मौलिक व अप्रकाशित

Added by शिज्जु "शकूर" on February 10, 2015 at 10:30pm — 10 Comments

ग़ज़ल .........;;;गुमनाम पिथौरागढ़ी

२१२२ २१२२ २१२



बात करते हो वफ़ा की सोच लो

इश्क होता है सजा भी सोच लो





ये सफ़र तो इश्क का दुश्वार है

राह में है रात काली सोच लो





लक्ष्य से भटके युवा हर ओर हैं

बन न जाएँ ये मवाली सोच लो





जाति मजहब रंग के ही नाम पर

बाँट दी जनता बिचारी सोच लो





फिर मसीहा आयें तो मंजिल मिले

झूठ है हर सम्त पापी सोच लो





ख्वाब में जब यम मिले बोले यही

रह गए दिन चार बाकि सोच लो





क्यों ग़ज़ल… Continue

Added by gumnaam pithoragarhi on February 10, 2015 at 6:05pm — 11 Comments


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॥ मै ईश्वर नहीं ॥ अतुकांत रचना ( गिरिराज भंडारी )

॥ मै ईश्वर नहीं ॥

**********

मै ईश्वर नहीं

किसी ईश्वरीय व्यवहार की उम्मीदें न लगायें

मै तो क्या कोई भी चाहे तो ईश्वर नहीं हो सकता

बस दूसरों में ईश्वरीय गुण खोजने में लगे रहते हैं

हम , आप , सब

इसलिये, आज

ये ऐलान है मेरा ,

मुझमें केवल इंसानी गुण ही हैं

अच्छों से उनसे अधिक अच्छा

बुरों से भरसक बुरा

उनके व्यवहार के प्रत्युत्तर में भेज रहा हूँ

कुछ दिल से निकली मौन गालियाँ

कुछ आत्मा से निकली बद…

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Added by गिरिराज भंडारी on February 10, 2015 at 10:00am — 21 Comments

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