मोहना ओ मेरे मनमोहना, तू कहाँ सो रहा है?
(तस्वीर-गूगल इमेजिस से साभार)
मोहना ओ मेरे मनमोहना, तू कहाँ सो रहा है?…
ContinueAdded by Usha Taneja on April 23, 2013 at 5:30pm — 9 Comments
बस आस तुम्हारी बाकी है
इस आंख में आंसू बाकी है
जब जब झरनों सी तरूणाई
आ आकर फिर लौटी है
तुम बन करके शीत चुभन
याद तुम्हारी लौटी है
मीत मिले दिन…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on April 23, 2013 at 5:14pm — 19 Comments
१-अँधेरा
जिधर देखो उधर अँधेरा ही अँधेरा
तुम नजर उठाओ तो सही
गाँव ,शहर ,या घर में भी
काली रातें, घोर अन्धेरा
और कहीं
कुछ दिखता है क्या ?
बहुत अंधकार दिख रहा है ना
क्या कोई दीपक जल रहा है
तो उसे जलने दो
२-बूढ़ा बाप-
बेजान कमरे में !
मेरा दम घुटने लगा है
यहाँ से नहीं निकाल सकते तो
कम से कम मार ही डालो मुझे
३-दर्द
न दिखने वाले दर्द से दब गया हूँ
इसलिए रो रहा हूँ की
थोड़ा…
Added by ram shiromani pathak on April 23, 2013 at 2:46pm — 27 Comments
रामनवमी के सुअवसर पर मुझे आगरा -मथुरा राष्ट्रीय राजमार्ग पर यमुना किनारे स्थित सूरकुटी के नेत्रहीन विद्यालय के नेत्रहीनों के साथ कुछ समय बिताने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।यह क्षेत्र सूर-सरोवर (कीठम-झील) के समीप हैऔर महाकवि सूरदास की कर्मस्थली गऊघाट पर अवस्थित है।यहीं सूर-श्याम मंदिर भी है,जहाँ सूरदास जी श्यामसुंदर की भक्ति में डूबे रहते थे।इसके समीप ही पाँच सौ वर्ष प्राचीन वह कुआँ भी है,जिसके विषय में यह किवदंती प्रचलित है कि एक बार जन्मांध सूरदास जी इस कूप में गिर गए थे,तब भगवान श्रीकृष्ण ने…
ContinueAdded by Savitri Rathore on April 23, 2013 at 1:57pm — 12 Comments
Added by Kedia Chhirag on April 23, 2013 at 1:30pm — 7 Comments
ए दिल्ली थोड़ा रो दे तू!
दिल दिल्ली का बहुत बड़ा, पाषाण हृदय है बहुत कड़ा।
(फिर भी) ए दिल्ली थोड़ा रो दे तू!
ना कोई चिन्ता ना ग्लानि, ना करुणावश बिलखानी
नीति नैतिकता के ह्रास पर,अनामिका की लाश पर,
ए दिल्ली थोड़ा रो दे तू!
बिसर गए कर्तव्यों पर, दिशाहीन वक्तव्यों पर,…
ContinueAdded by डा॰ सुरेन्द्र कुमार वर्मा on April 23, 2013 at 11:30am — 10 Comments
पीछे से बुलाते हो |
एक दिन सोचूंगी मैं
कि तुम्हारी ओर लौट जाऊं
तितलियों से आगे
कागज का जहाज
उडाऊं मैं |
अभी हिम्मत है, हौसला है, जोश है
और जिम्मेदारियों का फैला बोझ है
पत्ता पत्ता हरियाली उपजाऊं मैं
इस जंगल से निकलने का मार्ग न पाऊं मैं
तू ही बता ऐसे में कैसे आऊं…
ContinueAdded by डॉ नूतन डिमरी गैरोला on April 23, 2013 at 11:00am — 14 Comments
!!! जय जय हनुमान !!!
(मकरी - कालनेमि राक्षस का उध्दार)
तारक तात तड़ाग तरावहिं, तापर तोष तना तन तावत।
दीन दयाल दया दम दानव, देवम दामन दास दिलावत।।
धारति धाय धरा धन धानम, धूल धमाल धरे धड़कावत।
नारद नाच नरेन्द्र निहारत, नाथ नरायन नाम नसावत।।
के0पी0सत्यम/मौलिक एव अप्रकाशित
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 23, 2013 at 8:58am — 9 Comments
छोड़ आए गाँव में वो, ज़िंदगानी याद है।
सौंपकर पुरखे गए जो, वो निशानी याद है।
गाँव था सारा हमारा, ज्यों गुलों का इक चमन,
शीत, गर्मी, बारिशों की, ऋतु सुहानी याद है।
एक हो खाना खिलाना, रूठ जाने की अदा,
फिर मनाने मानने की, वो कहानी याद है।
छुप-छुपाते, खिलखिलाते, हँस हँसाते रात दिन,
फूल, बगिया, बेल-चम्पा, रात रानी याद है।
मुँह अँधेरे, त्याग बिस्तर, भागना भूले कहाँ?
हाथ में माँ से मिली, गुड़ और धानी याद…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on April 22, 2013 at 10:30pm — 30 Comments
छली जा रहीं नारियां, गली-गली में द्रोह ।
नष्ट पुरुष से हो चुका, नारिजगत का मोह |
नारिजगत का मोह, गोह सम नरपशु गोहन ।
बनके गौं के यार, गोरि-गति गोही दोहन ।…
ContinueAdded by रविकर on April 22, 2013 at 5:00pm — 3 Comments
प्रिय मित्र के अमेरिका से अपने देश" भारत " आने पर ,
आपका आपके देश भारत में , तहेदिल से स्वागत है .
…
ContinueAdded by अशोक कत्याल "अश्क" on April 22, 2013 at 5:00pm — 3 Comments
मत तोड़ फूल को शाख से
झूमते झूलते संग हवा के
हिलोरें ले रही शाखाओं पर
सज रहें ये खिले खिले पेड़
बहने दो संगीतमय लहर
यही तो गीत है जीवन का
....................................
रहने दो फूल को शाख पर
वहीँ खिलने और झड़ने दो
बिखरने दो इसे यूं ही यहाँ
आकुल है भूमि चूमने इसे
महकने दो आँचल धरा का
सृजन होगा नवगीत यहाँ
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Rekha Joshi on April 22, 2013 at 4:33pm — 15 Comments
Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 22, 2013 at 3:24pm — 20 Comments
धरती का संताप
1
विलाप करती वसुमती – ‘ कह रही ‘
हे सागर ! उदधि महान !
उगता जब मेरे आँचल में
आकाश मण्डल दिशा
सूर्य चंद्र और नक्षत्र घटा
प्रताड़ित क्यों हूँ इतनी
बता !…
Added by coontee mukerji on April 22, 2013 at 1:22pm — 11 Comments
आदरणीय गुरुजनों, अग्रजों, मित्रों एवं प्रिय पाठकों आप सभी को सादर प्रणाम. भौंरा और फूल पर आधारित उनके मिलन एवं विरह पर एक कविता लिखने का छोटा सा प्रयास किया है, आशा है आप सभी को पसंद आएगा.
रसिक लाल = भौंरे का नाम
मैं शुष्क धरा, तुम नम बदली.
मैं रसिक लाल, तुम फूलकली.
तुम मीठे रस की मलिका हो,
मैं प्रेमी थोड़ा पागल हूँ.
तुम मंद - मंद मुस्काती हो,
मैं होता रहता घायल हूँ.
मेरा तन काला,…
ContinueAdded by अरुन 'अनन्त' on April 22, 2013 at 11:21am — 25 Comments
ये साँझ सपाट सही
ज्यादा अपनी है
तुम जैसी नहीं
इसने तो फिर भी छुआ है.. .
भावहीन पड़े जल को तरंगित किया है..
बार-बार जिन्दा रखा है
सिन्दूरी आभा के गर्वीले मान को…
Added by Saurabh Pandey on April 22, 2013 at 12:00am — 42 Comments
Added by manoj shukla on April 21, 2013 at 9:22pm — 14 Comments
प्रेम के मोती
नमवायु के शुष्क, जमे कण
धरती की गर्माहट भरी
सतह पर
हो जाते हैं जब इकट्ठे
तो बन जाते हैं कोहरा |
फिर यही कोहरा
अस्त-व्यस्त कर देता है
जन जीवन को ,
धीमा कर देता है
जिन्दगी की रफ़्तार को,
कारण बनता है
कई चिरागों के बुझने का,
साक्षी बनता है
हृदय स्पर्शी चीत्कारों का|
वापिस भी मोड़ देता है
आगे बढे हुए
कई क़दमों को,
धुंधला कर…
ContinueAdded by Usha Taneja on April 21, 2013 at 3:36pm — 18 Comments
Added by Abhinav Arun on April 21, 2013 at 1:58pm — 18 Comments
हम हैं कौन, हमारी वास्तविक पहचान क्या है, क्या हम महज हाड़ मांस से बने शरीर मात्र हैं या इससे भी अलग हमारी कोई पहचान है।
ये प्रश्न सृष्टि के…
ContinueAdded by ASHISH KUMAAR TRIVEDI on April 21, 2013 at 11:30am — 8 Comments
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