पंच सब टंच
जिंदगी की जंग से अंग सब तंग लेकिन
पाश्चात्य के रंग सब हुए मतवाले हैं।
निर्धन अधनंग पिसे, महंगाई के पाट बीच
चूर चूर स्वप्न मिले आंसुई परनाले हैं।।…
ContinueAdded by डा॰ सुरेन्द्र कुमार वर्मा on May 2, 2013 at 6:00am — 6 Comments
अश्रुओं से सींचता
हर स्वप्न मन का ,
प्रेम का प्रारब्ध
परिवर्तित विरह में ,
इन्द्र धनुषी हास
अधरों के निकट आ,
दे रहा प्रतिक्षण
प्रशिक्षण वेदना को !…
ContinueAdded by भावना तिवारी on May 1, 2013 at 9:30pm — 11 Comments
माँ //कुशवाहा //
कोई याद रहे या न रहे
कोई साथ रहे या न रहे
हम रहें या न रहें
तुम रहो या न रहो
हमेशा वो रहती है
स्वयं और…
Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on May 1, 2013 at 5:04pm — 9 Comments
आप सब को मजदूर दिवस की हार्दिक शुभकामनायें
मजदूर
मजबूर हूँ मजदूरी से पेट का
गुजरा अब हाथ से निकल रहा,
अब हम चुप कब तक रहे,
हृदय हमारा पिघल रहा,
मेहनत करके नीव रखी देश की,
अब सब बिफल रहा,
अपने हकों के लिए चुना नेता,
देखो हम को ही निगल रहा,
डिग्री लेकर कोई इंजिनियर
कुर्सी पर जो रोब जमता है
देखा जाय तो बिन मजदूर…
Added by राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी' on May 1, 2013 at 3:32pm — 3 Comments
तुम, मेरी पहचान !
तुम अति-सुगम सरल स्नेह से मेरी
प्रथम पहचान
मेरे कालान्तरित काव्य की
अंतिम कड़ी,
गीतों की गमक…
ContinueAdded by vijay nikore on May 1, 2013 at 1:30pm — 26 Comments
खुरदुरी हथेलियाँ
Added by rajesh kumari on May 1, 2013 at 11:37am — 23 Comments
!!! मां !!!
मां -एक मात्र ऐसी स्तम्भ है,
जिस पर सम्पूर्ण ब्रहमाण्ड टिका है।
और हम अज्ञानी-अहंकारी-विकारी,
मां का अनादर करते है-
लज्जित करते है।
हम इस ब्रहमाण्ड को परे रख कर
स्वयं को सर्वज्ञ - अभिन्न,
विधाता बने फिरते है।
सुखी-स्वस्थ्य-सम्पन्न होने की चाह,
दया-मुक्ति-परमार्थ होने की आश,
धिक-धिक-धिक है हमारी सोच।
धिक्कार है! ऐसा आत्मबोध!
आह! अकेला ही रह जाएगा,
मां को छोड़...
और मां!
फिर भी मां है।
अन्त समय में भी मां…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 1, 2013 at 7:58am — 10 Comments
(रचना 1996 में एक संस्थान के निदेशक को समर्पित थी, पर आज के राष्ट्रीय सन्दर्भ में भी सटीक लगती है)
मुखिया पद की आन, महाराज! कुछ करें
शिकायत जायज़ है, प्रजा साथ नहीं
कल तक थे जहां, हैं वहीं के…
ContinueAdded by डा॰ सुरेन्द्र कुमार वर्मा on May 1, 2013 at 6:00am — 8 Comments
डमरू घनाक्षरी अर्थात बिना मात्रा वाला छंद
३२ वर्ण लघु बिना मात्रा के ८,८,८,८ पर यति प्रत्येक चरण में
लह कत दह कत, मनस पवन सम
धक् धक् धड़कन, धड कत परबस
डगमग डगमग, सजन अयन पथ,
बहकत हर पग, मन जस कस तस
बस मन तरसत, बस मन पर घर
अयन जतन तज, अचरज घर हँस
चलत चलत पथ, सरस सरस पथ,
सजन सजन पथ, हरस हरस हँस
…
ContinueAdded by वेदिका on May 1, 2013 at 2:00am — 11 Comments
| चाँद बसे आकाश में , फिर भी लगता पास | |
| मंजिल कितनी दूर हो , रहे मिलन की आस | |
| जब ऊँची उडान भरो , दुनिया में हो नाम | |
| सब को अच्छी राह का , सदा मिले पैगाम… |
Added by Shyam Narain Verma on April 30, 2013 at 12:01pm — 8 Comments
मां!
आंचल-आशीष, प्यार-दुलार
दया-दान, क्षमा-उपकार है।
सहज-प्रकृति-अभिव्यक्ति
सृष्टि-दृष्टि-संस्कार है।
माया-मोह, ममता-मनमोहनी
सानिध्य-सहिष्षुण-सद्व्यवहार है।
मां!
श्रृध्दा-गरिमा, प्रेरक-उध्दारक
धूप-छांव, सर्दी-गर्मी-बरसात है।
लक्ष्मी-सरस्वती, सीता-सावित्री
दुर्गा-शारदा, काली-कपाली-चामुण्डा है।
ज्योति-ज्ञान, विचारक-संवाहक
आचार-विचार, शब्द-उच्चारण है।
मां!
पूजा-पाठ, आस्था-सद्गुरू
पतित-पावनी गंगा-जमुना-गोदावरी है।
हां! यही…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 30, 2013 at 9:12am — 12 Comments
नदिया का यह नीर भी, कुछ दिन का ही हाय |
उथला जल भी नहि बचा, जलप्राणी कित जाय ||
नदिया जल मल मूत्र सब, कैसा बढ़ा विकार |
मानव अवलम्बित धरा, सहती अत्याचार ||
क्षुधा तृप्त करता…
ContinueAdded by Ashok Kumar Raktale on April 30, 2013 at 8:07am — 22 Comments
!!! हे मां !!!
मां अर्थात् गुरू !
गुः - गुप अंधेरा, गहन तिमिर।
रूः - प्रकाशमय, अतिशय उजियारा।
अर्थात् तमसो मा जोतिर्गमय!
अंधकार से प्रकाश की ओर प्रेरित करने वाली
जननी! मां!
अनादि काल से
सब कुछ सहती आ रही है।
हां! प्रसव पीड़ा के सम
नवजात के जन्म सरीखा ही।
नरक में उलटे टंगे को
स्वर्ग में सीधे पैरों पर खड़ा करने तक,
अन्धकार-अज्ञान को
प्रकाशवान-ज्ञानमय '
बनाने के लिए उद्वेलित…
ContinueAdded by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 30, 2013 at 12:38am — 11 Comments
| जागो भारत माँ के जवान , सीमा पर बैरी आया | |
| और अधिक पाने की चाहत , बढ़ने का राह दिखाया | |
| दोस्त का दिखावा करके ही , अपना वो जाल बिछाया | |
| सखा की ही नियत बिगड़ी जब , भाई को भी भूलाया | … |
Added by Shyam Narain Verma on April 29, 2013 at 3:27pm — 6 Comments
तेरे मन में स्वार्थ भले हो
वह इसको सौभाग्य मानती----
मानव की है फिदरत देखो
सब्ज बाग़ दिखा पत्नी को
बाते करके चुपड़ी चुपड़ी
क्षणभर में ही खुश कर देता |
सिद्ध करने को मतलब अपना
प्यार भरी बातो से उसका
क्षण भर में ही आतप हरकर
गुस्सा उसका ठंडा करता |
तेरे मन में स्वार्थ भले हो
वह इसको सौभाग्य मानती------
अति लुभावन वादे करके
बातो ही बातो में पल में
उसके भोले मन को ही
वह…
ContinueAdded by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on April 29, 2013 at 2:58pm — 15 Comments
अलसाई
आंखों से उठना
जूते, टाई
फंदे कसना
किसी तरह से
पेट पूरकर
पगलाए
कदमों से भगना
ज्ञान कुंड की इस ज्वाला में
निश दिन जलना खेल नहीं है
तेरे युग में .....................
पंछी, तितली
खो गए सारे
धब्बों से
दिखते हैं तारे
फूल, कली भी
हुए मुहाजि़र
प्राण छौंकते
कर्कश नारे
धक्के खाते आना-जाना
धुआं निगलना खेल नहीं है
तेरे युग…
ContinueAdded by राजेश 'मृदु' on April 29, 2013 at 1:55pm — 15 Comments
जीने की बात करता हूँ
मै हर इंसान से जीने की बात करता हूँ
औरों के गम पीने की बात करता हूँ
चिंदी ,चिंदी हुई है, जो जीवन की किताब
हर चिंदी को सीने की बात करता हूँ
बचा जो डूबने से, उसे खुदाहाफिज
डूबे भंवर मै, सफीने की बात करता हूँ
दौलत की चमक से मचल रही दुनिया
मै बिन तराशे नगीने की बात करता हूँ
हुए शहीदे-बतन जो मिटाकर अपनी हस्ती
मै उनके खून पसीने की बात करता हूँ
जिन्दगी अपनी कटी बे हिसाब बे तरतीव
औरों से मै करीने…
ContinueAdded by Dr.Ajay Khare on April 29, 2013 at 12:53pm — 9 Comments
॥ एक अजन्मा दर्द ॥
माँ मुझको भी जीवन दे दे, मै भी जीना चाहती हू ।
सखी सहेली वीरा के संग, मै…
ContinueAdded by बसंत नेमा on April 29, 2013 at 12:00pm — 9 Comments
तनाव से भरे कुछ घण्टे – “ आँखों देखी 2 “
भूमिका : मैं जिस घटना का वर्णन करने जा रहा हूँ उसे समझने के लिये आवश्यक है कि घटना से सम्बंधित स्थान, काल, परिवेश का एक संक्षिप्त परिचय दे दूँ.
अंटार्कटिका हमारे ग्रह – पृथ्वी – का वह सुदूरतम महाद्वीप है जहाँ मानव की कोई स्थायी बस्ती नहीं है. हैं तो कुछ देशों के वैज्ञानिक अनुसंधान केंद्र जिनमें अस्थायी रूप से रहकर काम करने के लिये वैज्ञानिक तथा अन्य अभियात्रियों का हर वर्ष समागम होता है. लगभग 1.4 करोड़ वर्ग कि.मी. क्षेत्र में फैले इस…
Added by sharadindu mukerji on April 28, 2013 at 10:30pm — 9 Comments
जो बुरा है
जो बदनाम है
जो ज़ालिम है
उससे सावधान रहना आसान है
क्योंकि वो तो जग-जाहिर है....
लेकिन जो बुरा दीखता नही
जो नाम वाला हो
जो नरमदिल बना हुआ हो
ऐसे लोगों को पहचानना
हर किसी के बस की बात नहीं...
क्या आप ऐसे लोगों को पहचान…
Added by anwar suhail on April 28, 2013 at 9:11pm — 5 Comments
2025
2024
2023
2022
2021
2020
2019
2018
2017
2016
2015
2014
2013
2012
2011
2010
1999
1970
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2025 Created by Admin.
Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |