मापनी 221 2121 1221 212
हर आदमी ही वक़्त का मारा है इन दिनों.
प्रभु के सिवा न कोई सहारा है इन दिनों.
फिरते सभी नक़ाब में चेहरा छुपा-छुपा,
चारों तरफ अजीब नज़ारा है इन दिनों.
मिलना गले न हाथ मिलाना किसी…
ContinueAdded by बसंत कुमार शर्मा on August 5, 2020 at 5:30pm — 10 Comments
अछूतों से भी मत करना कभी व्यवहार अछूतों सा
समय तुम को न इस से दे कहीं दुत्कार अछूतों सा।१।
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कहोगे भार जब उनको तुम्हें कोसेगा अन्तस नित
कहोगे तब स्वयम् को ही यहाँ पर भार अछूतों सा।२।
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करोना वैसा ही लाया करें व्यवहार जैसा हम
उसी का भोगता अब फल लगे सन्सार अछूतों सा।३।
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पता पाओगे पीड़ा का उन्हें जो नित्य डसती है
कहीं पाओगे…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 5, 2020 at 6:30am — 10 Comments
212 1212 1212 1212
ख़ाक हो गयी खुशी, था आग का पता नहीं ।
ख़्वाब सारे जल गए, मगर धुआँ उठा नहीं ।
पूछिये न हाले दिल यूँ बारहा मेरा सनम ।
ये हमारे दर्दोगम का सिलसिला नया नहीं ।।
इक नज़र से दिल मेरा वो लूट कर चला गया ।
इस सितम पे क्यूँ अभी तलक कोई खफ़ा नहीं ।।
रूबरू था हुस्न …
ContinueAdded by Naveen Mani Tripathi on August 4, 2020 at 11:31pm — 7 Comments
एक ग़ैर मुरद्दफ़ ग़ज़ल
(2122 2122 2122 212 )
वक़्त ने हमसे मुसल्सल इस तरह की रंजिशें
ख़ुदक़ुशी को हो गईं मज़बूर अपनी ख़्वाहिशें
अजनबी जो भी मिले सारे मुहब्बत से मिले
और की हैं ख़ास अपनों ने हमेशा साज़िशें
क्या ख़ुदा नाराज़ है कुछ आदमी से इन दिनों
गर्मियोँ के बाद आईं थोक में हैं बारिशें
क्यों नुज़ूमी को दिखाता हाथ है तू बार बार
क्या लकीरें हाथ की रोकेंगीं तेरी…
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on August 4, 2020 at 9:30pm — 6 Comments
2212 2212 2212 2212
मैं ठोकरें खाता रहा मुझ पर तरस आता था कब ।
इस ज़िंदगी पर सच बताएं आपका साया था कब ।।1
जीता रहा मैं बेखुदी में मुस्कुरा कर उम्र भर।
अब याद क्या करना कि मैंने होश को खोया था कब ।।2
वो कहकशां की बज़्म थी, उन बादलों के दरमियां ।
मुझको अभी तक याद है वो चाँद शर्माया था कब ।।3
जलते रहे क्यूँ शमअ में परवाने सारी रात तक ।
तू वस्ल के अंज़ाम का ये फ़लसफ़ा समझा था कब ।।4
जो अश्क़ में डूबा मिला था…
ContinueAdded by Naveen Mani Tripathi on August 4, 2020 at 5:44pm — 4 Comments
२२२२/२२२२/२२२२/२२२
रात से बढ़कर दिन में जलना कितना मुश्किल होता है
सच कहता हूँ निज को छलना कितना मुश्किल होता है।१।
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जब रिश्तों के बीच में ठण्डक हद से बढ़कर पसरी हो
धूप से बढ़कर छाँव में चलना कितना मुश्किल होता है।२।
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पेड़ हरे में जो भी मुश्किल सच में हल हो जाती पर
ठूँठ बने तो धार में गलना कितना मुश्किल होता है।३।
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साथ समय तो लक्ष्य सरल पर समय हठीला होने से
सच में धारा संग भी चलना कितना मुश्किल होता है।४।
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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 4, 2020 at 5:00pm — 8 Comments
बह्र- 2122 1122 1122 112/22
कोख में आने से साँसों के ठहर जाने तक
ज़िन्दगी में सकूँ मिलता नहीं मर जाने तक
मुफ़लिसी नेक दिली और ज़माने का दर्द
ये सभी सिर्फ़ सियासत में उतर जाने तक
शादी लड्डू ही नहीं एक बला है इसका
होता अहसास नहीं पंख कतर जाने तक
यार बरसात किसे अच्छी नहीं लगती मगर
खेत खलियान नदी ताल के भर जाने तक
हर तरफ़ शह्र में ख़ूँख़ार दरिन्दे घूमें
बेटियाँ ख़ौफ़ज़दा लौट के घर जाने…
Added by नाथ सोनांचली on August 4, 2020 at 6:11am — 10 Comments
221 1221 1221 122
शतरंज में रिश्तों की मैं हारा नहीं होता
अपनों को बचाने में जो उलझा नहीं होता
यादें तेरी ख़ुश्बू से न दिन रात महकतीं
लम्हा जो तेरे लम्स का ठहरा नहीं होता
भीतर न उसे आने कभी देता मेरा दिल
ख़ंजर पे तेरा नाम जो लिक्खा नहीं होता
शाख़ों से कहीं उसकी तुम्हें झाँकता बचपन
आँगन का शजर तुमने जो काटा नहीं होता
नफ़रत के समर आयेंगे नफ़रत के शजर पर
ऐ काश बशर बीज ये बोया नहीं होता
गर…
ContinueAdded by anjali gupta on August 4, 2020 at 12:30am — 5 Comments
2122 2122 2122 2122
वो न बोलेगा हसद की बात उसने पी रखी है
सिर्फ़ होगी प्यार की बरसात उसने पी रखी है
होश में दुनिया सिवा अपने कहाँ कुछ सोचती है
कर रहा है वो सभी की बात उसने पी रखी है
मुँह पे कह देता है कुछ भी दिल में वो रखता नहीं है
वो समझ पाता नहीं हालात उसने पी रखी है
झूठ मक्कारी फ़रेबी ज़ुल्म का तूफ़ाँ खड़ा है
क्या वो सह पायेगा झंझावात? उसने पी रखी है
जबकि सब दौर-ए-जहाँ में लूटकर घर भर रहे हों…
ContinueAdded by आशीष यादव on August 3, 2020 at 12:30pm — 4 Comments
जब मन वीणा के तारों पर
स्वर शिवत्व झन्कार हुआ
चिरकालिक,शाश्वत ,असीम
प्रकटा , अमृत संचार हुआ
निर्गत हुए भविष्य , भूत
वर्तमान अधिवास हुआ
कालातीत, निरन्तर,अक्षय
महाकाल का भास हुआ
शव समान तन,आकर्षण से
मन विमुक्त आकाश हुआ
काट सर्व बन्धन इस जग के
परम तत्व , निर्बाध हुआ
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Usha Awasthi on August 3, 2020 at 10:30am — 4 Comments
(2122 1212 22/122)
लोग घर के हों या कि बाहर के
प्यार करिएगा उनसे जी भर के
जाने क्या कह दिया है क़तरे ने
हौसले पस्त हैं समंदर के
जिस्म पर जब कोई निशाँ ही नहीं
कौन देखेगा ज़ख़्म अंदर के
दोस्ती उन से कर ली दरिया ने
जो थे दुश्मन कभी समंदर के
एक शीशे से ख़ौफ़ खाते हैं
लोग जो लग रहे थे पत्थर के
एक बस माँ को बाँट पाए नहीं
घर के टुकड़े हुए बराबर के
गरचे हर घर की है कहानी…
ContinueAdded by सालिक गणवीर on August 2, 2020 at 3:30pm — 15 Comments
बह्रे मज़ारे मुसम्मन अख़रब मकफ़ूफ़ महज़ूफ़
221 / 2121 / 1221 / 212
मुहलत जो ग़म से पाई थी वो भी नहीं रही
इक आस जगमगाई थी वो भी नहीं रही [1]
देकर लहू जिगर का मसर्रत जो मुट्ठी भर
हिस्से में मेरे आई थी वो भी नहीं रही [2]
शाहाना तौर हम कभी अपना नहीं सके
आदत में जो गदाई थी वो भी नहीं रही [3]
दुनिया घिरी है चारों तरफ़ से बुराई में
बंदों में जो भलाई थी वो भी नहीं रही…
Added by रवि भसीन 'शाहिद' on August 2, 2020 at 3:25pm — 12 Comments
राखी
"अभी आ जाएगी तुम्हारी लालची बहन हमारा बजट ख़राब करने,क्या उसे नही पता? लोकडाउन के कारण हमारी आर्थिक हालत ठीक नहीं है? अब उसका बोझ भी उठाना पड़ेगा और राखी का उपहार भी देना पड़ेगा ,"भाभी मेरे भाई से कह रही थी।
"अरे मीनू ऐसे क्यों बोल रही हो? दीदी बहुत समझदार हैं ।इस बार उन्हें हम कोई घर में रखा कोई सूट या साड़ी दे देंगे।"
"मेरी बात ध्यान से सुन लो ! मैं अपना कोई सूट उन्हें नहीं देने वाली,वो मुझे अपने मायके से मिले हैं।" मेरा भाई लाचार सा खड़ा ये सब सुन रहा था। मैं दरवाजे…
Added by Madhu Passi 'महक' on August 2, 2020 at 3:16pm — 6 Comments
फिर कौवा पहचान लिया गया ', वृद्ध काक अपने साथियों से बोला।
' उस मूर्ख काक की दुर्दशा - कथा शुरू कैसे हुई?' काक मंडली ने सवाल उछाला।
' वही रंग का गुमान उसको ले डूबा।कोयल अपने सुमधुर सुर के चलते पूजी जाती।लोग उसे सुनने का जतन करते।यह देख वह ठिंगना कौवा कोयल बनने चला।रंग कोयल जैसा था ही।बस मौका देखकर कोयलों के समूह में शामिल हो गया। उनके साथ लगा रहता। उसे गुमान हो गया कि अब वह भी कोयल हो गया। वह अन्य कौवों को टेढ़ी नजर से देखता।'
'फिर क्या हुआ दद्दा?'…
Added by Manan Kumar singh on August 2, 2020 at 6:30am — No Comments
मुँह लटकाए बैठा है क्यूँ
हौंसला अपना बुलंद कर
गोर्वित वंश का वंशज है तू
निडर होकर आगे बढ़ ||
कदम चूमेगी मंजिल एक दिन
अनिश्चितता ना हृदय धर
कट जायेगी दुख की घड़ियाँ
इसकी ना तू चिंता कर ||
हर पल हर क्षण वक़्त बदलता
इसके संग तू खुद को बदल
कर्तव्य धर्म की पुजा कर
कर्मठता संग तू आगे बढ़ ||
स्वर्ण इतिहास है तेरे वंश का
उसकों तू ना कलंकित कर
समस्याओ से यदि टूट जाएगा…
ContinueAdded by PHOOL SINGH on August 1, 2020 at 1:30pm — 2 Comments
अनगिन हों सूरज दहकते हों तारे
पर साँसों में भी घुल जाए अँधियारा
तो कोई करे भी तो क्या करे
प्रहरी हों रक्षक पति ही पति हों
पर फांसी हो जाये निज साड़ी किनारा
तो कोई करे भी तो क्या करे …
ContinueAdded by amita tiwari on August 1, 2020 at 5:30am — 3 Comments
छोटी सी इस बात पर ,
हुजूर जरा गौर करें।
देश के लिए कुछ करना हो तो,
खुद से ही शुरुआत करें।।
ना सोचें कौन साथ देगा,
फर्ज अपना अदा करें।
देश के लिए,देश की खातिर,
खुद को ही अर्पण करें।।
हर जरूरतमंद के लिए ,
मसीहा बन खड़े रहें।
गर जरूरत आन पड़े तो,
जान भी कुरबां करें।।
देशभक्ति दिल में जगाकर,
खुद में परिवर्तन करें।
स्वदेशी को अपनाएं और
विदेशी का बहिष्कार…
ContinueAdded by Neeta Tayal on July 31, 2020 at 1:30pm — 2 Comments
(1212 1122 1212 22 /112 )
तू अपने आप को अब मेरे रू ब रू कर दे
बहुत दिनों की मेरी पूरी आरज़ू कर दे
**
वबा के वार से दुश्वार हो गया जीना
ख़ुदाया अम्न को तारी तू चार सू कर दे
**
बता मैं दश्त में पानी कहाँ तलाश करूँ
चल अपनी चश्म के अश्कों से बा-वज़ू कर दे
**
ख़ुदा किसी को न औलाद ऐसी अब देना
जो वालिदेन की इज़्ज़त लहू लहू कर दे
**
मैं जानता हूँ सदाओं की भीड़…
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on July 30, 2020 at 4:00pm — 6 Comments
बह्र- 2122 2122 2122 212
मीडिया की फ़ौज लेकर रह्म कब खाने गए
झोपड़ी में सिर्फ़ वे दिल अपने बहलाने गए
रेडियो से ही हुआ करती थी सुब्ह-ओ-शाम जब
दौर वह यारो गया और उसके दीवाने गए
नीम पीपल छाँछ लस्सी बाजरे की रोटियाँ
ज़िन्दगी से गाँव की ये सारे अफ़साने गए
जोड़ते थे जो दिलों को अपनी माटी से यहाँ
फ़ाग चैता और कजरी के वे सब गाने गए
पूछने पर लाल के माँ ने कहा पापा तेरे
ओढ़कर प्यारा तिरंगा चाँद को लाने…
Added by नाथ सोनांचली on July 30, 2020 at 11:16am — 13 Comments
2122 2122 2122 2122
इश्क बनता जा रहा व्यापार पानी गिर रहा है
हुस्न रस्ते में खड़ा लाचार पानी गिर रहा है
चंद जुगनू पूँछ पर बत्ती लगाकर सूर्य को ही
बेहयाई से रहे ललकार पानी गिर रहा है
टाँगकर झोला फ़कीरी का लबादा ओढ़कर अब
हो रहा खैरात का व्यापार पानी गिर रहा है
बाप दादों की कमाई को सरे नीलाम कर वह
खुद को साबित कर रहा हुँशियार पानी गिर रहा है
झूठ के लश्कर बुलंदी की तरफ बढ़ने लगे हैं
साँच की होने लगी…
Added by आशीष यादव on July 30, 2020 at 5:21am — 8 Comments
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