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बोध गया / प्रेस कांफ्रेंस

हम ले दे के चार मन, दिग्गी मम्मी पूत ।

हमले रो के रोक लें, पर कैसे यमदूत ।

पर कैसे यमदूत, नस्ल कुत्ते की इनकी ।

मार काट का पाठ, पढ़े ये कातिल सनकी ।

मन्दिर मस्जिद हाट, पहुँच जाते हैं बम ले ।

पुलिस जोहती बाट,  भाग जाते कर हमले ॥

मौलिक / अप्रकाशित

Added by रविकर on July 11, 2013 at 11:01am — 12 Comments

यथार्थ

शिखर को छूने की चाहत में

जमीन को भूल गया हूँ 

झूठ को जीते जीते 

सच को भूल गया हूँ... 

खुद्दार हैं वो जो 

मर के भी जीते हैं 

बेबसी हमारी हम 

जी के भी मरते हैं 

सच है चराग जलाने से 

अंधेरा मिटेगा 

मगर वो आचरण कहाँ से आए 

जिससे पाप मिटेगा .... 

कतरा कतरा जमा करो 

समंदर बनेगा 

अपना हृदय विशाल करो

जिसमे वो बहेगा ....

आंखे बंद करने से  अंधेरा 

होगा…

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Added by Amod Kumar Srivastava on July 11, 2013 at 7:59am — 5 Comments

नवगीत/ जीवन जीना है

क्या सुनना है

क्या कहना है

जीना औ मरना है

 

क्या पाया है

जो खोना है

दिन ही बस गिनना है

सपने सारे

सूखा मारे

घिस घिस कर चलना है

देह को बस गलना है

 

मन से हारा

पर हूँ जीता

रो रो कर हॅंसना है

किसको रोएं

पीर सुनाएं

सबका ही कहना है

बस जीवन जीना है

 

खेत को सींचें

अंकुर फूटें

बस इंतजार करना है

रात हुई थी

सुबह भी होगी

सोए, अब…

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Added by बृजेश नीरज on July 11, 2013 at 6:30am — 20 Comments

धर्म की राह

नींद गवांई,सुख चैन गवांया

जीवन की आपा -धापी में 

अगर-मगर तेरी-मेरी में

समय गवांया ,बातों में 

धन दौलत ने लोभी बनाया 

ईमान गवांया नोटों में 

पूत सपूत न बन पाया 

बस ध्यान लगाया माया में

दीन दुखियों की सेवा करता

पुण्य कमाता लाखों में 

करता अच्छे कर्म अगर तो 

तर जाता भाव सागर से

ईमान धर्म की राह…

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Added by Aarti Sharma on July 11, 2013 at 12:34am — 15 Comments

क्षणिकाएं (राम शिरोमणि पाठक )

गुजरती नहीं रात

संघर्ष करता रहा नींद से,

जब भी लेता हूँ करवट

चुभने लगते है कांटे

यादों के.//1

*****************************************

बहुत आभारी हूँ आपका 

जिंदा तो छोड़ा पागल बनाकर ही सही//2

*******************************************

दिल बहलाने का सामान 

थोडा बहुत इनाम

बस इतने के लिए क्या?

स्वाभिमान बेच दूँ//3

*******************************************

डर की निद्रा में विलीन 

रात ही रात …

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Added by ram shiromani pathak on July 10, 2013 at 6:30pm — 20 Comments

प्रकृति का प्रतिफल

फट रहा बादल कही 

तो कहीं उठ रहा तूफ़ान है, 

इतिहास में दर्ज होने को

बढ़ रहा इन्सान है..

था खुदा का घर वहां

बरसा  था कहर जहाँ,  

लग रहा खुदा भी नया 

कोई गढ़ रहा जहान  है..

हो रहा हिसाब अब 

कुदरत दे रही जवाब अब,

तूने जो किये अब तक

कुदरत से सवाल थे..

 

जो सोंच खुश "मैं बच गया"

उसे 'पवन बड्डन' का पैगाम है,

करना है तो प्राश्चित कर

तेरे सर भी आसमान…

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Added by Kavi Pawan "Baddan" on July 10, 2013 at 4:49pm — 3 Comments

कब तक

कब तक =

===============================

इस जीवन कॆ नख़रॆ, नाँज़ उठाऊँ कब तक ॥

नागफ़नी कॊ सीनॆ, सॆ चिपकाऊँ कब तक ॥१॥



कुछ कठिन सवालॊं कॆ, उत्तर खॊज रहा हूँ,

मन की घायल मैना, कॊ भरमाऊँ कब तक ॥२॥



राम बचा लॊ मुझकॊ, इस झूँठी  दुनिया सॆ,

सबकी हाँ मॆं हाँ मैं, और मिलाऊँ कब तक ॥३॥



पागल समझ रही है, दुनिया सच ही हॊगा,

पागल बनकर मैं यॆ, रॊग छुपाऊँ कब तक ॥४॥



पागल बन कर मैनॆं, खूब सुनीं हैं गाली,

राग पुराना बॊलॊ, मैं दुहराऊँ कब तक…

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Added by कवि - राज बुन्दॆली on July 10, 2013 at 3:30pm — 6 Comments

आस्था या अनास्था

जब से खबर आयी है माँ का चित्त स्थिर नहीं है तीन दिन तो बड़ी बैचेनी में गुजरे। बार बार दरवाजे तक जाती अकेली खड़ी सूनी सड़क को घंटों तकती रहती फोन की घंटी पर दौड़ पड़ती तो कभी कभी यूँ ही फोन को घूरती रहती कभी बिना घंटी बजे ही फोन उठा कर कान से लगा लेती देखने के लिए की कहीं फोन बंद तो नहीं है .देवघर में दीपक तो पहली खबर के साथ ही लगा दिया था बार बार जा कर उसमे तेल भरती जलती हुई बाती को उँगलियों से ठीक करती और दोनों हाथ जोड़ कर सर तक ले…

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Added by Kavita Verma on July 10, 2013 at 2:00pm — 5 Comments

गूँज (लघुकथा)

राजू मोबाइल से गाना सुनने में मस्त था- "वो इक लड़की थी जिसे मैं प्यार करता था।"
तब तक उसके कानों में पिता जी की आवाज गूंजी- "सूरदास का पद नहीं सुन सकते थे क्या? या मीरा, तुलसी, कबीर का भजन सुनते?"
राजू डर गया और उसने गाना सुनना बंद कर दिया।
दो दिन बाद की बात है पिता जी अपने मोबाइल से गीत सुन रहे थे-"धूप में निकला न करो रूप की रानी, गोरा रंग काला न पड़ जाये।"
तब तक उनके कानों में आवाज गूँजी- "पिता जी! यह किसका पद या भजन है?"

मौलिक व अप्रकाशित
(संशोधित)

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on July 10, 2013 at 2:00pm — 31 Comments

ग़ज़ल एक कोशिश

ग़ज़ल एक कोशिश



ख्वाब दिखाकर दिलबर गायब है

रातो का वो मंज़र गायब है।।



जिसमे डूबी चाहत की किस्ती।

यारो एक समन्दर गायब है।।



खटकाता किसकी कुंडी मैं अब।

देखा जब उसका घर गायब है।।



पेट भरे वो सबका फिर भी उस।

दाता का ही लंगर गायब है।।



कापा जिस्म मिरा रातो में तब।

देखा उठ कर चादर गायब है।।



करके एक दुवा देखी मैंने।

भगवान तिरा मंदर गायब है।।



कर देता घायल मन को…

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Added by Ketan Parmar on July 10, 2013 at 1:52pm — 9 Comments

नवगीत (राजेश कुमार झा)

इक औरत सी तन्‍हाई को

जब यादें कंधा देती हैं

दीर्घ श्‍वांस की

चंड मथानी

मथ जाती

देह-दलानों को

टूटे प्‍याले

रोज पूछते

कम-ज्‍यादा

मयखानों को

गलते हैं हिमखण्‍ड कई पर

धारा कहां निकलती है

नि:शब्‍द सुलगती

रात पसरती

उष्‍ण रोध दे

प्राणों को

कौन रिफूगर

टांक सकेगा

इन चिथड़े

अरमानों को

कैसे पाउं मंजिल ही जब

पल-पल जगह बदलती…

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Added by राजेश 'मृदु' on July 10, 2013 at 1:24pm — 23 Comments

अब तुम्हारे बिना ये सूना सफ़र निभाया नहीं जाता।

ये दर्द कुछ ऐसा है,जो सबको बताया नहीं जाता।

ये ग़म कुछ ऐसा है,जो सबको सुनाया नहीं जाता।

ज़िन्दगी तेरा साथ अब तक बहुत निभाया हमने,

पर अब हमसे यह साथ और निभाया नहीं जाता।

हर ज़ख्म पर रोने की जगह हँसते रहे हम उम्र भर,

पर अब हमसे बेवजह और मुस्कराया नहीं जाता।

छोटी -छोटी खुशियाँ ही तो मांगीं थी तुझसे  हमने,

पर दर्द मिला जो इस दिल में समाया नहीं जाता।

 हर वक़्त सही नाउम्मीदी,नाकामी और बेबसी,

पर अब तुझसे अपना मज़ाक उड़वाया नहीं जाता।

सपने देखकर हमने भी…

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Added by Savitri Rathore on July 10, 2013 at 1:06pm — 9 Comments

मेरे सीने में तेरी जुदाई का गम [नज़्म ]

मेरे सीने में तेरी जुदाई का गम ।

मुझको जीने न दे बेवफाई का गम ।

बदले दुआ के दगा दे गये ।

मोहब्बत की ऐसी सजा दे गये ।

कोई जाकर उन्हें ये बताये ज़रा ,

क्या माँगा था हमने वो क्या दे गये ।

ये हाल दिल का मै किस से कहूँ ,

कौन समझेगा दिल की दुहाई का गम ।

मेरे टूटे दिल की वफ़ा के लिए ।

इन धडकनों की सदा के लिए ।

तुझको कसम है कि मिलने मुझे ,

बस एक बार आजा खुदा के लिए ।

जिसको मिला…

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Added by Neeraj Nishchal on July 10, 2013 at 11:12am — 16 Comments

कुण्डलिया छंद

बरखा रानी आ गई ,लेकर बदरा श्याम |

धरा आज है पी रही ,भर भर घट के जाम|| 

भर भर घट के जाम ,हो रही धरा है तृप्त |

पानी हुआ तुषार, हो रही ग्रीष्म है लुप्त ||

लोग हुए खुशहाल ,चला जीवन का चरखा |

बच्चे  ख़ुशी मनात , मेघा ले आय बरखा ||

|............................|

मौलिक व अप्रकाशित 

Added by Sarita Bhatia on July 10, 2013 at 9:00am — 17 Comments

!!! जीव-प्रकृति से प्यार करें !!!

जीव-प्रकृति से प्यार करें,

बनकर धरा हितेश!

पहाड़ों की शिखाओं पर

हरियाली से केश

कुछ घुंघराले

कुछ लट वाले

कुछ तने-तने रेश।1

बहे पवन पुरवाई या

पछुवा चले बयार

इठलाती औ

बलखाती ज्यों

झूमें मस्त दिनेश।2

गूंजें वन में कलरव धुन

ठुमरी औ मल्हार

नृत्य उर्वशी

रम्भा करती

किरने अर्जुन वेश।3

तितली-भौरें-पाखी-जन

करें सुमन से नेह

चूम-चूम तन

कण पराग मन

मिटे तमस औ…

Continue

Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on July 10, 2013 at 8:20am — 14 Comments

गीतिका ~

चेहरे पर चेहरे जड़े हैं,

अक्स लोगों से बड़े हैं !

खो गई पहचान जब से 
जहाँ थे अब तक खड़े हैं !

अभी फूलों मे महक है 

इम्तहां आगे कड़े हैं !

ठोकरों से दोस्ती है ?
राह मे पत्थर पड़े हैं !

इन्हें कुछ कहना नहीं 
दर्द हैं ,चिकने घड़े हैं !
_______________प्रो. विश्वम्भर शुक्ल 

(मौलिक और अप्रकाशित )

Added by प्रो. विश्वम्भर शुक्ल on July 9, 2013 at 9:30pm — 13 Comments

प्रिय तुम ही

सूरज की रश्मियों मे ,

चमक बन के रहते हो ।

जाग्रत करते सुप्त मन प्राण ,

सुवर्ण सा दमके  तन मन । 

चन्द्रमा की शीतलता मे ,

धवल मद्धम चाँदनी से तुम,

अमलिन मुख प्रशांत हो ।

सागर से गहरे हो तुम ,

कितना कुछ समा लेते हो ।

नूतन पथ के साथी ,

जीवन तरंगो के स्वामी ।

मन हिंडोल के बीच ,

सिर्फ तुम किलोल कालिंदी । .

सुनो प्रिय तुम ही ,

तुम ही .....प्रिय तुम ही ।..... अन्नपूर्णा…

Continue

Added by annapurna bajpai on July 9, 2013 at 8:30pm — 9 Comments

टूटते रिश्तों की किरचें

 

टूटे रिश्तों की किरचियाँ ,

कभी जुड़ नहीं पातीं ,

शायद कोई जादू की छड़ी ,

जोड़ पाती ये किरचियाँ ।

.

ये चुभ कर निकाल देतीं हैं ,

दो बूंद रक्त की , और अधिक

चुभन के साथ बढ़ जाती है ,

पीड़ा न दिखाई देती हैं ।

.

चुप रह कर सह जाती हूँ ,

आँख मूँद कर देख लेती हूँ ,

शायद कोई प्यारी सी झप्पी ,

मिटा पाती ये दूरियाँ। .... अन्नपूर्णा बाजपेई

 

 

अप्रकाशित एवं मौलिक

Added by annapurna bajpai on July 9, 2013 at 8:30pm — 6 Comments


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रोज शोलों में झुलसती तितलियाँ हम देखते हैं (ग़ज़ल "राज")

रोज शोलों में झुलसती तितलियाँ हम देखते हैं (ग़ज़ल "राज")

२ १ २ २  २ १ २ २  २ १ २ २  २ १ २ २ 

बहर ----रमल मुसम्मन सालिम

 रदीफ़ --हम देखते हैं 

काफिया-- इयाँ 

आज क्या-क्या जिंदगी के दरमियाँ हम देखते हैं 

जश्ने हशमत या मुसल्सल  पस्तियाँ हम देखते हैं 

 

खो गए हैं  ख़्वाब के वो सब जजीरे तीरगी में 

गर्दिशों  में डगमगाती कश्तियाँ हम देखते हैं 

 

ख़ुश्क हैं पत्ते यहाँ अब यास में…

Continue

Added by rajesh kumari on July 9, 2013 at 5:30pm — 40 Comments

उनको शत-शत नमन

उन शहीदों को मेरा

सलाम है सलाम

जाँ बचाते-बचाते

दे गए अपनी जान

नाज करते हैं हम

उनके जज्बात पर

देश के मान पर

तिरंगे के सम्मान पर

जाँ बचाते रहे

बेखौफ हो निडर

एक जिद थी कि

ज्यादा से ज्याद

बचाते रहें

नेक था इरादा

काम नेक था

विधाता ने लिखा पर

कुछ और लेख था

मौत जीती मगर

हो गए वो अमर

उनको शत-शत नमन

मौलिक व अप्रकाशित

 

Added by Pragya Srivastava on July 9, 2013 at 4:30pm — 7 Comments

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