हँस-हँस कर करते हैं आँसू ,सुख दुःख का व्यापार ,
बाहर वाली चौखट दुखती , चुभते वन्दनवार !!
मुरझाकर भी हर पल सुरभित ,पात-पात साँसों का,
मन को मजबूती देता है ,संबल कुछ यादों का !
क्षण भर हँसता,बहुत रुलाता,कुछ अपनों का प्यार ,
सारी उमर बिता कर पाया,यह अद्भुत उपहार ..!!
सिहरन नस-नस में दौड़े जब,हाँथ हवा गह जाती,
गुजरी एक जवानी छोटी, बड़ी कहानी गाती !
यूँ तो गँवा चुके हैं अपनी,सज धज सब श्रृंगार ,
है अभिमान अभी तक करता,नभ झुककर सत्कार…
Added by भावना तिवारी on January 9, 2013 at 2:00pm — 8 Comments
दोहा सलिला:
गले मिले दोहा यमक
संजीव 'सलिल'
*
मनहर ने मन हर लिया, दिलवर दिल वर मौन.
पूछ रहा चितचोर! चित, चोर कहाँ है कौन??
*
देख रही थी मछलियाँ, मगर मगर था दूर.
रखा कलेजा पेड़ पर, कह भागा लंगूर..
*
कर वट को सादर नमन, वट सावित्री पर्व.
करवट ले फिर सो रहे, थामे हाथ सगर्व..
*
शतदल के शत दल खुले, भ्रमर करे रस-पान.
बंद हुए शतदल भ्रमर, मग्न करे गुण-गान..
*
सर हद के भीतर रखें, सरहद करें न पार.
नत सर गम की गाइये,…
Added by sanjiv verma 'salil' on January 9, 2013 at 11:30am — 6 Comments
इन दिनों
Added by rajluxmi sharma on January 9, 2013 at 8:15am — 10 Comments
Added by seema agrawal on January 9, 2013 at 7:32am — 12 Comments
जिस तरह दिनकर चमकता
व्योम में,
अलविदा कहता निशा को,
बादलों के झुण्ड को
पीछे धकेले ।
काश होता एक सूरज
ख़ुशी का भी ।
कोई तापता धूप सुबह की,
कोई बिस्तर डाल देता दोपहर के घाम में ।
खुशनुमा गरमी भी होती
कम व ज्यादा,
पूष से ज्येष्ठ तक ।
और पसीना भी निकलता,
इत्र सा ।
काश कल्पा हो उठे साकार,
एक 'खुशकर' हो भी जाये
दिवाकर सा ।।
Added by आशीष नैथानी 'सलिल' on January 8, 2013 at 7:30pm — 6 Comments
Added by राजेश 'मृदु' on January 8, 2013 at 11:30am — 4 Comments
जब हुई रुसवा तरन्नुम से ग़ज़ल इस ज़िन्दगी की
आंसुयों ने नज़्म लिखी रख दिया उनवान पानी
आइनों से शर्त रख दी मुस्कराहट की लबों पे
इसलिए झूठी ग़मों की कर रहा मैं तर्जुमानी
और भी अब बढ गयी दुश्वारियां मेरे सफ़र की
पत्थरों को ढूँढती फिरती मेरी किस्मत दीवानी
गर ये नादाँ सब्र होती तो मुनासिब था "अजय" …
Added by ajay sharma on January 7, 2013 at 11:00pm — 3 Comments
ईश की अनुपम कृति मानव
और उसकी जननी तुम
फिर क्यों हो प्रताड़ित , अपमानित
पराधीन, मूक , गुमसुम ?
खुश होना तो कोई पाप नहीं
मुस्कुराने की इच्छा स्वार्थ नहीं!
नए विचारों की उड़ान भरो
शिक्षा का स्वागत करो !
जीवन न जाय व्यर्थ यूँ ही...
सदियों के बंधन से मुक्ति चाहिए ?
विद्रोह तो होगा, न घबराओ
निर्भय बनो, मानसिक सबलता लाओ !
रात बहुत गहरी हो चुकी
भोर का संदेसा दे चुकी !
मुस्कुराओ, पंख फैलाओ
उड़ने को तैयार हो जाओ
क्योंकि
इस आसमान पर…
Added by Anwesha Anjushree on January 7, 2013 at 6:00pm — 5 Comments
हाईकू (१७ वर्ण, ५,७,५.)
भारतवर्ष
नारी देवी रुप है,
देवों में आस्था.
...........
तुम युवा हो,
माताएं व्यथित हैं,
सोना मना है,
..............
यौन शोषण,
सब संकल्प करें,
अब फांसी दो.
...........
पुलिस हा हा..
नारी असुरक्षित,
सब सुधरें.
..........
सभ्य समाज,
यह भी संभव है,
प्रण कर लें.
...............
बीता बरस,
युवा जाग गया है,
उम्मीद…
Added by Ashok Kumar Raktale on January 6, 2013 at 7:00pm — 9 Comments
रे मन करना आज सृजन वो
भव सागर जो पार करा दे l
निश्छल प्रण से, शून्य स्मरण से
मूरत गढ़ना मृदु सिंचन से,
भाव महक हो चन्दन चन्दन
जो सोया चैतन्य जगा दे l
रे मन करना आज सृजन वो
भव सागर…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on January 6, 2013 at 11:00am — 59 Comments
मैंने कुछ पंख जोड़ रखे हैं
कुछ रंगीन कुछ बदरंगे हैं
ज़रा हलके से हैं ये थोडे से
फूलों के संग ही मोड़ रखे हैं
मेरे पंखों में खुशबू फूलों की
उड़ेंगे संग में सुरभि की तरह
मन की उड़ान से अब क्या होगा
सच में उड़ना है बोल सच्चे हैं
कोई कहता है ज्ञान सागर है
मगर चिंतन में डुबकियां ही नहीं
कोई उड़ता है हवा बाजों सा
कहीं बैसाखियों…
Added by SUMAN MISHRA on January 5, 2013 at 11:30pm — 2 Comments
वो दिन कितने प्यारे थे
गाँव गाँव और
शहर शहर में
प्रेम पगे गलियारे थे ......
स्वार्थ नहीं
इक अपनापन था
परहित में
जीवन-यापन था
अमन चैन के
रंग में रंगे
आलोकिक भुनसारे थे ..........
कोई बुराई
नहीं करता था
अविश्वास
सदा मरता था
दोस्त दोस्त से
आस लगाये
राग द्वेष अंधियारे थे ............
इक होती थी
सबकी राय
कोई अपनी
नहीं चलाय
संग में
जब तब
होती मस्ती …
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on January 5, 2013 at 3:30pm — 6 Comments
कालजयी गीतकार नीरज के ८९ वें जन्म दिन पर काव्यांजलि:
संजीव 'सलिल'
*
गीतों के सम्राट तुम्हारा अभिनन्दन,
रस अक्षत, लय रोली, छंदों का चन्दन...
*
नवम दशक में कर प्रवेश मन-प्राण तरुण .
जग आलोकित करता शब्दित भाव अरुण..
कथ्य कलम के भूषण, बिम्ब सखा प्यारे.
गुप्त चित्त में अलंकार अनुपम न्यारे..
चित्र गुप्त देखे लेखे रचनाओं में-
अक्षर-अक्षर में मानवता का वंदन
गीतों के सम्राट तुम्हारा अभिनन्दन,
रस अक्षत, लय रोली, छंदों का…
Added by sanjiv verma 'salil' on January 5, 2013 at 11:01am — 10 Comments
जिंदगी हम भी समर तक आ गये।
गाँव से चलकर नगर तक आ गये।।
मुस्कुराते - मुस्कुराते वो सभी …,
रास्ते के पेड घर तक आ गये।
सामने आते ही उनके यूँ हुआ,
ज़ख़्म सब दिल के नज़र तक आ गये।
खूबसूरत सी बला लगती है वो,
बाल जब सर के कमर तक आ गये।
एक जंगल में पुराना पेड हूँ,
काटने को वो इधर तक आ गये।
प्यार एहसासों से निकला इस तरह,
दिल के रिश्ते अब खबर तक आ गये।।
……सूबे सिंह सुजान
Added by सूबे सिंह सुजान on January 4, 2013 at 9:30pm — 6 Comments
मिर्च बुझी तेजाबी आंखें
हांक रहे चीतल,मृग, बांके
बुदबुद करते मूड़ हिलाते
वेद अनोखे बांच रहे हैं
अर्ध्वयु हैं पड़े कुंड में
जातवेद भी खांस रहे हैं
चमक रही कैलाशी बातें
दमक रही तैमूरी रातें
सांकल की ठंडी मजबूरी
खाप जतन से जांच रहे हैं
विविध वर्ण के टोने-टोटके
कितने सूरज फांस रहे हैं
बागड़बिल्लों के कमान में
पंजे, नख मिलते बयान में
पड़ी पद्मिनी भांड़ के पल्ले
खिलजी जमकर नाच रहे हैं
मिनरल वाटर हलक…
Added by राजेश 'मृदु' on January 4, 2013 at 5:06pm — 3 Comments
इंसानो की बस्ती
हर ख्वाहिश हो जाये पूरी, यहाँ किसकी ऐसी हस्ती है,
लुटता है इंसान वहाँ, जहाँ इंसानो की बस्ती है ।
इंसानियत दफन हो गई, हैवानियत सब पे भारी है,
आत्मा है गिरवी सबकी, बेईमानो कि साहूकारी है,
बहता है लहु सडको पर, पानी की बुँदे बिकती है
लुटता है इंसान वहाँ, जहाँ इंसानो की बस्ती है ।
नारी ही नारी की आज, दुश्मन बन के बैठी है,
बच गई कोख मे तो, आग के हवाले…
ContinueAdded by बसंत नेमा on January 4, 2013 at 4:30pm — 4 Comments
एक दिन तुम देखना
एक दिन तुम देखना
खौफ और आतंक ऐसे
बढ़ रहा है आज कैसे
लाज लुटती राह में यूँ
लगता अंधा राज जैसे
संस्कृति के जो हैं भक्षक सब बनेंगे सरगना ...........................
मान मर्यादा मिटाई
नींव रस्मों की हिलाई
अपने में सीमित हुई है
आजकल की ये पढ़ाई
बदलो ये सब अब नहीं तो होगा खुद को कोसना ..............................
शून्य ही बस अंक होगा
पोखरों में पंक होगा
शुष्क होंगे वन और पर्वत …
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on January 4, 2013 at 3:58pm — 10 Comments
लिख कर अनुभव पत्रिका पार क्षितिज के पुराना साल गया |
ले कर कोरे पृष्ठ सहस्त्र देखो आया है फिर साल नया |
हों सम्बंध नए हों अनुबंध नए,
नव निर्मित बंधों के हों तटबंध नए,…
Added by लतीफ़ ख़ान on January 4, 2013 at 3:18pm — 8 Comments
मेरे दिलबर का जो भी ढब है.. ग़ज़ब है.
रूठ जाने का जो सबब है.. ग़ज़ब है.
ज़िंदगी से गिला बहुत है हमे, पर,
साँस लेने की जो तलब है.. ग़ज़ब है…
आम इंसान हूँ मै,तुम सा ..तुम्ही सा,
लोग कहते हैं तू अजब है…ग़ज़ब है.
वो है संग-दिल, है बेरहम, है सितमगर,
उसपे भी लखनवी अदब है.. ग़ज़ब है.
वो जिसे आज तक किसी ने न देखा,
ज़र्रे-ज़र्रे मे उसकी छब है …ग़ज़ब है.
हमने पूछा था,”चाँद, कब है अमावस?”
चाँद खुद पूछ बैठा, कब है??..ग़ज़ब…
Added by rajneesh sachan on January 4, 2013 at 3:04pm — 8 Comments
अकेल शेरनी
देख बहे अश्कों की धारा , जब चली गुड़िया हमारी !
दूर अकेल रहेगी कैसे , आँखों की पुतली हमारी !
माँ बाप को घर में छोड़कर , सपने ले चली दुलारी !
यों मिलती रही कामयाबी , खिलती जाती फुलवारी !
जब कामयाब हो कर निकली , बैरी राहों में आये !
देख कर अकेल शेरनी को , राहों में जाल बिछाए !
तडपती रही शिकार बनकर , बेबस पर रहम न आये !
वर्मा गयी वो इस दुनिया से , कैसे आंसू ना आये !
श्याम नारायण वर्मा
Added by Shyam Narain Verma on January 4, 2013 at 2:31pm — 2 Comments
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