Added by Balram Dhakar on January 31, 2019 at 10:30pm — 14 Comments
बह्र : 1222 1222 122
तुम्हारे शहर से मैं जा रहा हूँ
बिछड़ने से बहुत घबरा रहा हूँ
वहाँ दुनिया को तू अपना रही है
यहाँ दुनिया को मैं ठुकरा रहा हूँ
उठा कर हाथ से ये लाश अपनी
मैं अपने आप को दफ़ना रहा हूँ
तुम्हारे इश्क़ में बन कर मैं काँटा
सभी की आँख में चुभता रहा हूँ
नहीं मालूम जाना है कहाँ पर
न जाने मैं कहाँ से आ रहा हूँ
मुहब्बत रात दिन करनी थी तुमसे
तुम्हीं से…
ContinueAdded by Mahendra Kumar on January 31, 2019 at 7:51pm — 8 Comments
रूप सँवरा और खुशबू है बनेली जिस्म की
हो गयी है क्यों हवस ही अब सहेली जिस्म की।१।
ये शलभ यूँ ही मचलते पास तब तक आयेंगे
जब तलक यारो जलेगी लौ नवेली जिस्म की।२।
ये चमन ऐसा है जिसमें साथ यारो उम्र के
सूखती जाती है चम्पा औ'र चमेली जिस्म की।३।
रूप का मेहमान ज्यों ही जायेगा सब छोड़ के
हो के रह जायेगी सूनी ये हवेली जिस्म…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 31, 2019 at 7:25pm — 10 Comments
षट ऋतु हाइकु
चैत्र वैशाख
छायी 'बसंत'-साख।
बौराई शाख।
**
ज्येष्ठ आषाढ़
जकड़े 'ग्रीष्म'-दाढ़
स्वेद की बाढ़।
**
श्रावण भाद्र
'वर्षा' से धरा आर्द्र
मेघ हैं सांद्र।
**
क्वार कार्तिक
'शरद' अलौकिक
शुभ्र सात्विक।
**
अग्हन पोष
'हेमन्त' भरे रोष
रजाई तोष।
**
माघ फाल्गुन
'शिशिर' है पाहुन
तापे आगुन।
*******
मौलिक व अप्रकाशित
Added by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on January 31, 2019 at 12:00pm — 5 Comments
इतनी सी बात थी ....
एक शब के लिए
तुम्हें माँगा था
अपनी रूह का
पैरहन माना था
मेरी इल्तिज़ा
तुम समझ न सके
तुम ज़िस्म की हदों में
ग़ुम रहे
मेरा समर्पण
तुम्हारी रूह पर
दस्तक देता रहा
लफ्ज़
अहसासों की चौखट पर
दम तोड़ते रहे
रूह का परिंदा
करता भी तो क्या
हार गया
दस्तक देते -देते
उल्फ़त की दहलीज़ पर
तुम
समझ न सके
बे-आवाज़ जज़्बात को
ज़िस्म की हदों में कहाँ
उल्फ़त के अक़्स होते…
Added by Sushil Sarna on January 30, 2019 at 6:39pm — 4 Comments
( १४ मात्राओं का सम मात्रिक छंद सात-सात मात्राओं पर यति, चरणान्त में रगण अर्थात गुरु लघु गुरु)
कर जोड़ के, है याचना, मेरी सुनो, प्रभु प्रार्थना।
बल बुद्धि औ, सदज्ञान दो, परहित जियूँ, वरदान दो।।
निज पाँव पे, होऊं खड़ा, संकल्प लूँ, कुछ तो बड़ा।
मुझ से सदा, कल्याण हो, हर कर्म से, पर त्राण हो।।
अविवेक को, मैं त्याग दूँ, शुचि सत्य का, मैं राग दूँ।
किंचित न हो, डर काल का, विपदा भरे, जंजाल का।।
लेकर सदा, तव नाम को, करता रहूँ, शुभ…
ContinueAdded by नाथ सोनांचली on January 30, 2019 at 11:01am — 4 Comments
(१२२२ १२२२ १२२२ १२२२ )
कभी तन्हा अगर बैठें तो ख़ुद से गुफ़्तगू कीजे
खुदा मौजूद है अंदर उसी की जुस्तजू कीजे
***
नुज़ूमी चाल क़िस्मत की क्या हमारी बताएगा
पढ़ा किसने मुक़द्दर है भला क्या आरजू कीजे
***
कहाँ तक नफ़रतों का ज़ुल्म सहते जायेंगे यारों
मुहब्बत के शरर से रोशनी अब चार सू कीजे
***
तभी करना मुहब्बत जब निभा…
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on January 30, 2019 at 10:00am — 8 Comments
स्वार्थ बाधित
अहिंसा का अस्तित्व
पशुतावाद
**
हिंसा सिखाती
है स्वार्थलोलुपता-
वेदनाहीन
**
हिंसा की धाक
गांधीगीरी मज़ाक
व्यापारिकता
***
सह-अस्तित्व
हिंसा-आधुनिकता
धन-प्रभुत्व
**
लुप्त अस्तित्व…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on January 29, 2019 at 7:30pm — 5 Comments
२१२२/२१२२/२१२२/२१२
नींद में भी जागता रहता है जो सोता नहीं
हर बुढ़ापा जिन्दगी भर बेबसी खोता नहीं।१।
है जवानी भी कहाँ अब चैन के परचम तले
सिर्फ बचपन ही कभी चिन्ताओं को ढोता नहीं।२।
ज़िन्दगी यूँ तो हसीं है, इसमें है बस ये कमी
जो भी अच्छा है वो फिर से यार क्यों होता नहीं।३।
नफरतों का तम सदा को दूर हो जाये यहाँ
आदमी क्यों…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 29, 2019 at 7:30pm — 6 Comments
पूर्ण विराम :
ओल्ड हो जाता है जब इंसान
ऐज हो जाती है लहूलुहान अपने ही खून के रिश्तों से
होम में जल जाते हैं सारे कोख के रिश्ते
बदल जाता है
एक घर
जब
ढाँचा चार दीवारों का
पुराना ज़िस्म
जब
पुराना सामान हो जाता है
वो
ओल्ड ऐज होम का
सामान हो जाता है
अपनों के हाथों पड़ी खरोंचों के
झुर्रीदार चेहरे
मृत संवेदनाओं की
कंटीली झाड़ियों के साथ
शेष जीवन व्यतीत करने वालों के लिए
अंतिम सोपान हो जाता…
Added by Sushil Sarna on January 28, 2019 at 1:30pm — 6 Comments
अवनि के विस्तृत पटल पर
प्रकृति के नित नव सृजन,
संगीत की अद्भुत समन्वित
राग-रागनियों के रस , लय ,
छन्द का विस्तार देखो
स्वयं को एक बार देखो
चहुँ दिशाओं में थिरकतीं
इन्द्रधनुषी नृत्य करतीं
रंगों की मनहर ऋचाएँ
सृष्टिकर्ता प्रकृति का प्रतिपल
नया अभिसार देखो
स्वयं को एक बार देखो
विपुल रवि , ग्रह , चन्द्र मंडित
गहन अनुशासित अखंडित
ज्योति किरणों से प्रभासित
व्योम में , गतिमान
सामंजस्य का श्रृंगार देखो…
Added by Usha Awasthi on January 27, 2019 at 8:30pm — 3 Comments
(२२१ २१२१ १२२१ २१२ )
दस्तूर इस जहाँ के हैं देखे अजीब अजीब
दुश्मन भी एक पल में बने देखिये हबीब
***
बनती बिगड़ती बात अचानक कभी कभी
बिगड़े नसीब वालों के खुल जाते हैं नसीब
***
वादा किया था हम से सजा लेंगे ज़ुल्फ़ में
लेकिन सजा है ज़ीस्त में क्यों आपके रक़ीब
***
नज़दीक आज लग रहा होता है दूर कल
जो दूर दूर रहता वो हो जाता है क़रीब
***
होता है पर कभी कभी ऐसा भी मो'जिज़ा
बनता ग़रीब बादशा और बादशा ग़रीब
***
हैरत है बातिलों…
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on January 27, 2019 at 5:00pm — 4 Comments
बह्र : 2122 1122 1122 22/112
मैंने देखा है कि दुनिया में क्या क्या होता है
मुझसे मत बोलिए मंज़ूर-ए-ख़ुदा होता है
इश्क़ ही सबसे बड़ा ज़ुर्म है इस दुनिया में
ये ख़ता कर लो तो हर शख़्स ख़फ़ा होता है
जो गलत करते हैं, वो लोग सही होते हैं
और जो अच्छा करे तो वो बुरा होता है
मैं भी इस ज़ख़्म को नासूर बना डालूँगा
दर्द बतलाओ मुझे कैसे दवा होता है
कभी दिखता था ख़ुदा मुझको भी मेरे अन्दर
और अब इस पे भी…
ContinueAdded by Mahendra Kumar on January 27, 2019 at 11:30am — 10 Comments
ग़ज़ल
2122 2122 2122 212
नफरतों को छोड़ लगता पास चल कर आ गए
हो न कुर्सी दूर फिर, वो दल बदल कर आ गए।
जंगलों पे राज करने का जुनूँ जो सर चढ़ा
शेर जैसी शक्ल में गीदड़ भी ढल कर आ गए।
इश्क में देखो उन्होंने यूँ निभाई है वफ़ा
चाहने वाले के सारे ख़्वाब दल कर आ गए।
ठंड की जो चाह में उन तक गए ले मन-बदन
गुप्त शोलों में वो बस चुपचाप जल कर आ गए।
सामने कमजोर प्राणी उनको जो दिखने लगा
है गज़ब सारे शिकारी ही मचल कर आ…
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on January 27, 2019 at 6:30am — 8 Comments
अनरोई आँखें ...
बहुत रोईं
अनरोई आँखें
मन की गुफाओं में
अनचाहे गुनाहों में
शमा की शुआओं में
अंधेरों की बाहों में
बेशजर राहों में
किसी की दुआओं में
प्यासी निगाहों में
खामोश आहों में
सच
बहुत रोईं
ये कम्बख़्त
अनरोई आँखें
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on January 26, 2019 at 5:30pm — 4 Comments
समझ न आया कि पत्थर से प्यार कैसे हुआ
हसीन हादसे का मैं शिकार कैसे हुआ
***
कहा है तूने कि ये हादसा नहीं है गुनाह
हुआ गुनाह तो फिर बार बार कैसे हुआ
***
हुई है कोई ग़लतफ़हमी आपको मुंसिफ़
करे जो प्यार कोई गुनहगार कैसे हुआ
***
करेगा कौन यक़ीं गर मुकर भी जाओ तो
चला न तीर तो फिर आर पार कैसे हुआ …
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on January 26, 2019 at 2:30pm — 12 Comments
सूक्ष्म कविता - गणतंत्र - डॉo विजय शंकर
गण का तंत्र
या
तंत्र का गण ?
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Dr. Vijai Shanker on January 26, 2019 at 10:47am — 6 Comments
बह्र - फैलुन *४
जो मेरी दीवानी होगी
आग नहीं वो पानी होगी
हाथ बढ़ाया है जब उसने
कुछ तो मन में ठानी होगी
एक नजर में लूट लिया दिल
कुछ तो बात पुरानी होगी
…
ContinueAdded by बसंत कुमार शर्मा on January 25, 2019 at 3:42pm — 5 Comments
1-
जन्मों तक होता नहीं, यात्राओं का अंत।
सभी सफर में हैं यहाँ,सुर नर संत महंत।।
सुर नर संत महंत, जन्म जिसने भी पाया।
पंचतत्व की एक, मिली सबको ही काया।।
मन में ईर्ष्या द्वेष, लिए अवसर जो खोता।
यात्रा में वह जीव, अस्तु जन्मों तक होता।।
2-
यात्रा का वर्णन करूँ, या फिर लिखूँ पड़ाव।
लिख दूँ सभी उतार भी, या फिर सिर्फ चढ़ाव।।
या फिर सिर्फ चढ़ाव, लिखूँगा विवरण पूरे।
कार्य हुए जो पूर्ण, और जो रहे अधूरे।।
हानि-लाभ सुख-दुक्ख, बराबर सबकी…
Added by Hariom Shrivastava on January 25, 2019 at 12:00pm — 1 Comment
ग़ज़ल
गण हुए तंत्र के हाथ कठपुतलियाँ
अब सुने कौन गणतंत्र की सिसकियाँ
इसलिए आज दुर्दिन पड़ा देखना
हम रहे करते बस गल्तियाँ गल्तियाँ
चील चिड़ियाँ सभी खत्म होने लगीं
बस रही हर जगह बस्तियाँ बस्तियाँ
पशु पक्षी जितने थे, उतने वाहन हुए
भावना खत्म करती हैं तकनीकियाँ.
कम दिनों के लिए होते हैं वलवले
शांत हो जाएंगी कल यही आँधियाँ
अब न इंसानियत की हवा लग रही
इस तरफ आजकल बंद…
Added by सूबे सिंह सुजान on January 25, 2019 at 6:27am — 4 Comments
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