गजल (रहनुमा)
2122 2122 2122 2122
इस शहर मैं रस्मे-आमद लोग इस तरह निभाते हैं
हाथों मैं गुल होते नहीं और पत्थर लिए नजर आते हैं
तेरी सूरत मेरी सूरत से हसीं नहीं बताने को ये
आने वाले हर शख्स को वो आईना दिखलाते हैं
वो भी देख लें कभी गिरेवां मैं अपने झांककर यारों
दूसरों पे जो यूँ ही अक्सर उँगलियाँ ऊठाते हैं
मैं जो निकला हूँ सफर पे तो मंजिल पा ही लूँगा कभी
फिर क्यूँ मुझे मेरी मंजिल का पता बतलाते हैं
जाने किस भेष…
Added by Sachin Dev on March 22, 2014 at 5:00pm — 14 Comments
घनाक्षरी- (कलाधर) -छन्द........होली....!
गुरू लघु गुणे 15 अन्त में एक गुरू कुल 31 वर्ण होते हैं।
अंग अंग में तरंग, बोलचाल में बिहंग, धूप सृष्टि में रसाल, बौर रूप आम है।
रूप रंग बाग लिए, अग्नि बाण ढाक लिए, शम्भु ने कहा अनंग, सौम्य रूप काम है।।
प्राण-प्राण में उमंग, रास रंग में बसंत, ऊंच - नीच, भेद - भाव, टूटता धड़ाम है।
प्रेम का प्रसंग फाग, रंग - भंग भी सुहाग, अंग से मिला सुअंग, हर्ष को प्रणाम है।।
के0पी0सत्यम-मौलिक व अप्रकाशित
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 22, 2014 at 10:30am — 3 Comments
बीज मन्त्र..................!
दोहा- बीज बीज से बन रहा, बीज बनाता कौन?
बीज सकल संसार ही, बीज मन्त्र बस मौन।।
चौ0- निष्ठुर बीज गया गहरे में। संशय शोक हुआ पहरे में।।
मां की आखों का वह तारा। दिल का टुकड़ा बड़ा दुलारा।।
सींचा तन को दूध पिलाकर। दीन धर्म की कथा सुनाकर।।
बड़े प्रेम से सिर सहलाती। अंकुर की महिमा समझाती।।
शिशु की गहरी निन्द्रा टूटी। अहं द्वेष माया भी छूटी।।
अंकुर ने जब ली…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 22, 2014 at 9:30am — 5 Comments
ग़ज़ल
फाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फैलुन
२१२२ ११२२ ११२२ २२
फूल की ख़ुशबू को हम यूं भी लुटा देते हैं |
करते हैं इश्क़ ज़माने को बता देते है |
एक चिंगारी है सीने में हवा देते हैं |
हम ग़ज़ल कहते हुए ख़ुद को सज़ा देते हैं |
जिसकी शाखों पे घरौंदों में मुहब्बत ज़िंदा ,
ऐसे पेड़ों को परिंदे भी दुआ देते हैं |
इश्क़ लहरों से अगर है तो क़िला गढ़ना क्या ,
रेत के घर को बनाते हैं मिटा देते हैं |…
Added by Abhinav Arun on March 22, 2014 at 7:30am — 20 Comments
शौख से आशियाँ उजाड़ ,ये इख्तियार है तुझे ,
खानाबदोश हूँ ,ठहरना मेरी फितरत भी नहीं है
मेरे जख्मों पर नमक छिड़क गया ,वो आज ,
उसके ही दिए तोहफों कि याद दिला गया वो आज
उसकी नफरतों के जाम को भी
शांती कि कीमत समझ पिया…
ContinueAdded by Dr Dilip Mittal on March 21, 2014 at 7:22pm — 6 Comments
कहो प्रिय , कैसे सराहूँ
मैं सौंदर्य तुम्हारा.
मैं चाहता हूँ,
तुम्हारे मुख को कहूँ माहताब.
अधरों को कहूँ लाल गुलाब .
महकती केश राशि को संज्ञा दूँ
मेघ माल की .
लहराते आँचल को कहूँ
मधु मालती .
पर, अपवर्तन का अपना नियम है,
मेरी दृष्टि गुजरती है,
तुम तक पहुचने से पहले
संवेदना के तल से,
और हो जाती है अपवर्तित
सड़क किनारे डस्टबिन में
खाना ढूंढते व्यक्ति पर,
प्लेटफार्म पर भीख मांगते
चिक्कट बालों वाली…
Added by Neeraj Neer on March 21, 2014 at 7:00pm — 10 Comments
2122- 2122- 2122
दिल से निकले वो तराना चाहता हूँ
इक मसर्रत का फसाना चाहता हूँ (मसर्रत =खुशी)
देख कर मुझको छलक जायें न आँसू
तेरी खातिर मुस्कुराना चाहता हूँ
जी लिया मैंने बहुत बचते हुये अब
मुश्किलों को आजमाना चाहता हूँ
बेझिझक मै पत्थरों के शह्र जाके
उनको आईना दिखाना चाहता हूँ
सुब्ह की चुभती हुई इस धूप को मैं
अपनी आँखों से हटाना चाहता हूँ
हर…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on March 21, 2014 at 6:30pm — 28 Comments
रिश्ते बनते प्यार से, मत करना तकरार
खुशियाँ बसती हैं यहाँ, चहक उठें परिवार /
चहक उठें परिवार, सभी जो मिलझुल रहते
मुश्किल करते दूर ,सुख दुःख मिलकर सहते
सुदृढ बने परिवार ,तो बसें वहाँ फरिश्ते
तनिक न रहे खटास ,बनाना ऐसे रिश्ते //
........................................................
.............मौलिक व अप्रकाशित................
Added by Sarita Bhatia on March 21, 2014 at 9:38am — 8 Comments
आंखों देखी – 13 पुराने दिन नयी बातें
रूसी आतिथ्य के शानदार अनुभव (देखिये आंखों देखी – 12) के बाद नोवो स्टेशन जाने का आकर्षण स्वत: कम हो गया था. हम लोगों ने शिर्माकर ओएसिस के खूबसूरत झील ‘प्रियदर्शिनी’ के किनारे स्थित भारतीय शिविर को साफ़ किया. डेढ़ दो महीने बाद अगले अभियान दल को पहुँचना था अत: यह सुनिश्चित करना कि नए दल के सदस्यों को “मैत्री” पहुँचकर कोई असुविधा न हो हमारा नैतिक दायित्व था. शिर्माकर में हम लोग 12 दिन रहे जिस दौरान हिमनदीय, भूवैज्ञानिक और जीवविज्ञान सम्बंधी…
Added by sharadindu mukerji on March 21, 2014 at 4:48am — 6 Comments
एक गज़ल
(मफ़ाईलुन,मफ़ाईलुन,मफ़ाईलुन,मफ़ाईलुन)
कहीं सूरत नहीं मिलती,कहीं सीरत नहीं मिलती ॥
वफ़ा करकॆ मुनासिब सी,हमॆं कीमत नहीं मिलती ॥१॥
लियॆ उल्फ़त फिरॆ दर-दर,वफ़ाऒं का भरम पालॆ,
ज़हां मॆं प्यार की हमकॊ,खरी दौलत नहीं मिलती ॥२॥
मिटा दीं आज हमनॆ सब, लकीरॆं हाँथ की अपनॆ,
मिटा दूँ नाम इक तॆरा, यही ताक़त नहीं मिलती ॥३॥
सुनॆं हैं प्यार कॆ किस्सॆ, ज़मानॆ कॊ बहुत कहतॆ,
किताबॊं मॆं लिखा तॊ है,मगर चाहत नहीं मिलती ॥४॥
दिलॆ -…
Added by कवि - राज बुन्दॆली on March 21, 2014 at 2:30am — 9 Comments
नयनों की इस झील का, कितना निर्मल नीर।
बूँद बूँद कहती रही, देखो तल की पीर॥
वो आती हैं जब यहाँ, होता है आभास!
तपते पग को ज्यों मिले,पथ पर कोमल घास!!
मन शुक फिर बनने लगा,चखने चला रसाल !!
कितना मोहक रूप है,कितने सुन्दर गाल!!
केश कहूँ या तरु सघन,होता है यह भ्राम!!
इन केशों की छाँव में,कर लूँ मैं विश्राम!!
प्रेममयी इस झील का,अविरल मंद प्रवाह!
इसकी परिधि अमाप है,और नहीं है थाह!!
रंगों की वर्षा…
ContinueAdded by ram shiromani pathak on March 20, 2014 at 8:00pm — 11 Comments
ऐसा कोई दिन नहीं गुजरता जब यौन शोषण की घटनाएँ खबरों में नहीं आती। खबर पढ़कर हृदय ग्लानि और अपराध-बोध के दलदल में धँस जाता है। खुद से पूछता हूँ- यह यौन शोषण है क्या? अब आप कहेंगे- कैसा अनपढ़ और गवाँर हूँ। यौन शोषण का अर्थ तक नहीं समझता। तो मैं आपसे पूछता हूँ। क्या आप सही मायने में इसका उत्तर बता सकते हैं? मेरा तात्पर्य उस प्रश्न से ही जुड़ा है। आखिर यह शोषण हमेशा स्त्रियों के साथ ही क्यों होता है? क्या यह शारीरिक रूप से पीड़ादायी है या मानसिक रूप से भी? क्या यह केवल शारीरिक है या पूर्णतः मानसिक?…
ContinueAdded by Kundan Kumar Singh on March 20, 2014 at 4:00pm — 1 Comment
अपने आँसू दे गए ,किया हमें बेहाल
नया साल लाये नई खुशियाँ करें कमाल /
खुशियाँ करें कमाल, दूर हों उलझन सारी
छाए नया बसंत, खिले अब बगिया न्यारी
सरिता करे गुहार, पूरे हों सभी सपने
करना रक्षा ईश ,बिछुड़े नहीं अब अपने//
...................................................
...........मौलिक व अप्रकाशित.............
Added by Sarita Bhatia on March 20, 2014 at 10:30am — 12 Comments
1222 1222 1222 1222
किया माथे तिलक झट से कहा नाकाम भी मुझको
बहुत ठोका लुहारों सा दिया आराम भी मुझको
*
गिरा तो भी समझ मेरी न आयी शातिरी उसकी
बिठाया पास भी अपने किया बदनाम भी मुझको
*
पता है साथ उसके तो न आया था कभी सूरज
जलाता क्यो न जाने फिर शरद का घाम भी मुझको
*
हसाता चोट देकर भी बड़ा जालिम खुदा पाया
रूला देता न मरने का सुना पैगाम भी मुझको
*
अजब सी रहमतें उसकी अजब ही सब…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 20, 2014 at 6:30am — 14 Comments
अपनों नें जो मुझपर फेंका पत्थर है
वो गैरों के फूलों से तो बेहतर है
दुनिया समझी थी वो कोई शायर है
जिसका दामन मेरे अश्कों से तर है
ऐ खुशियों तुम सावन बनकर मत आना
पिछली बारिश ने तोडा मेरा घर है
भूखा मंदिर जायेगा क्या पायेगा
रोटी बन पाता क्या संगेमरमर है
धरती सौ हिस्सों में बाँटो होगा क्या
पक्षी का तो आना जाना उड़कर है
चूल्हा जलने से रोको इस बस्ती में
इस बस्ती में आंधी आने का…
ContinueAdded by भुवन निस्तेज on March 19, 2014 at 2:00pm — 18 Comments
इक उसके चले जाने से कुछ पास नही है
ज़िंदा हूँ मगर जीने का एहसास नही है
वो दूर गया जब से ये बेजान है महफिल
साग़र है सुराही हैं मगर प्यास नही है
सुनने को तिरे पास भी जब वक़्त नही तो
कहने को मिरे पास भी कुछ ख़ास नहीं है
इस रूह के आगोश में है तेरी मुहब्बत
माना के तिरा प्यार मिरे पास नही है
रावण तो ज़माने में अभी ज़िंदा रहेगा
क़िस्मत में अभी राम के बनवास नही है
फिर कैसे यक़ी तुझपे करेगा ये ज़माना,
ख़ुद तुझको…
Added by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on March 18, 2014 at 11:30pm — 21 Comments
फागुन चला गया, अरे फागुन चला गया,
वह खुशमिजाज मौसम सगुन दे चला गया।
बागों में आम बौर बढ़े, फगुआ हवा में,
सर्दी के सितम से भी तो राहत दी पछुआ ने।
हर एक दिल को खुशनुमा करके चला गया,
फागुन चला गया, अरे फागुन ..................
सूरज की चमक को भी तो फागुन ने टटोला,
हर एक दिल को मौसमी अंदाज से तोला।
बूढ़ों को धूप, बच्चों को मुस्कान दे गया।
हर व्यक्ति को राहत भरा उनमान दे गया।
फागुन चला गया, अरे फागुन ..................
हम बात कहें, अन्नदाता के हिसाब…
Added by Atul Chandra Awsathi *अतुल* on March 18, 2014 at 9:22pm — 2 Comments
संध्या बेला मधुरिम पल है
लाल कपोल लिए तन सूरज
ढलता पल-पल छिन-छिन हर पल
सहलाती पद उसके संध्या
करती सेवा उसकी रज-रज।
मृग़ छौने थक जाते चलकर
दिवा चली सुस्ताने पल भर
स्वप्निल सपने देती संध्या
सब को मंजिल तक पहुंचाकर।
बीता वासर बिछी चाँदनी
वृक्ष खड़े अलसाए लत-पत
खग और विहग पुकारे हरि को
वन्य माधुरी फैली इत-उत।
सोचो संध्या गर ना होती
तो क्या सो पाते हम जी भर?
कर पाते,…
ContinueAdded by kalpna mishra bajpai on March 18, 2014 at 9:00pm — 6 Comments
------पानी में आग -----------
पानी में आग वे लगाने लगे है .
भूखे थे पर वे चहचहाने लगे है .
फूलों की मानिंद प्यार करते थे
काँटों से दोस्ती वे निभाने लगे है .
जो स्वयं पास न कर सके परीक्षा
ऐसे शिक्षक आज पढ़ाने लगे है .
पुलिस ने चोरो से की दोस्ती
गश्त में वे अपनी सुसताने लगे .
देशसेवा का जज्बा लिए थे जो
वे अपने देश को ही खाने लगे है…
ContinueAdded by Omprakash Kshatriya on March 18, 2014 at 6:30pm — 12 Comments
1222 1222 122
फ़क़त दो चार पल की बात है ये
हाँ, बस इक रात जैसी रात है ये
कबूतर, तुम यक़ीं करना समझ कर
कहूँ क्या? आदमी की जात है ये
रफ़ाक़त आप कैसे कह रहे हैं ?
असल में पीठ…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on March 18, 2014 at 5:00pm — 25 Comments
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2012
2011
2010
1999
1970
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