सावन के दिन झर गये, ठरी पूस की रात.
रंग बसंती रो रही, पतझड़ करते घात.१
आंखों का सावन कभी, हुआ न तन का मीत.
कहें बसंती-फाग रस, पतझड़ जग की रीत.२
वन उपवन नद ताल को, देकर दु:ख अतीव.
दशा दिशा श्रुति ज्ञान सब, बिगड़े मौसम जीव.३
सरोकार रखते नहीं, जो समाज के साथ.
श्वेत वस्त्र उनके मगर, रंगे रक्त से हाथ.४
तंत्र मंत्र हर यंत्र जब, हारे हरि का नाम.
कृषक छात्र जन आज खुद, हुये कृष्ण-बलराम.५
राम…
ContinueAdded by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 14, 2016 at 9:00pm — 6 Comments
एक पारिवारिक फिल्म घर पर ही देखने के बाद दोनों के चेहरे ऐसे मुरझा गये थे, मानो फ़िल्म ने उन्हें आइना दिखाकर शर्मिन्दा कर दिया हो!
कुछ पलों के बाद वह उसके पास जाकर बैठ गया। लम्बी चुप्पी के बाद मन के भाव बह पड़े।
" सच है कि मैं तुम्हें कभी ख़ुश नहीं रख सका, और न ही तुम मुझे!"
वह चौंककर उसकी तरफ़ देखती रही, फिर बोल पड़ी, "मालूम है, बच्चों की वज़ह से तुमने मुझे तलाक़ नहीं दी, वरना..."
"वरना क्या? उस वक़्त मेरी माली हालत अच्छी नहीं थी, मेरी पसंद की कोई दूसरी मुझसे निकाह कैसे…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on March 14, 2016 at 8:00pm — 9 Comments
221 2122 2212 122
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मत पूछ किस लिए वो तेवर बदल रहे हैं
शह पा के दोस्तों की दुश्मन उछल रहे हैं l1l
होगी वफा वतन से यारो भला कहाँ अब
हुंकार जाफरों की शासन दहल रहे हैं l2l
हमको पता है लोगों शैलाब बढ़ रहा क्यों
दरिया के प्यार में कुछ पत्थर पिघल रहे हैं l3l
आँखों को सबकी यारों चुँधिया न दें कहीं वो
तम के दयार में से तारे निकल रहे हैं l4l
ताकत विरोध की तज अपनायी…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 14, 2016 at 11:15am — 14 Comments
Added by Seema Singh on March 14, 2016 at 9:49am — 10 Comments
122 122 122 122
निगाहें भला क्यूँ मिलाते नहीं हो।
मनस पृष्ठ मुझको पढ़ाते नहीं हो।।
छिपाते हो तुम राज अपने जिया के।
बताओ मुझे क्यों बताते नहीं हो।।
हैं चेहरे पे क्यों ये उदासी की पर्तें।
भला नूर क्यूँ तुम दिखाते नहीं हो।।
सघन वेदना के जो घन हैं हृदय में।
भला फिर क्यूँ दरिया बहाते नहीं हो।।
मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है।
सिवा इसके तुम मुस्कुराते नहीं हो।।
है 'पंकज'का नाता अगर नीर ही से।
तो नैनों में…
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on March 14, 2016 at 12:00am — 17 Comments
ग़ज़ल(एतबार न कर )
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2122 ----1212 -----112
मान मेरी सलाह प्यार न कर |
हुस्न वालों का एतबार न कर |
हो न जज़्बात जाएँ बेक़ाबू
जानेजां हद वफ़ा की पार न कर
बेच दी जिन सुख़नवरों ने क़लम
उनके जैसा मुझे शुमार न कर|
हुस्न वाले वफ़ा नहीं करते
तू यक़ीं उनपे बार बार न कर |
आँख भीगी है और हंसी लब पर
राज़े उल्फ़त को आशकार न कर |
वक़्ते रुख़सत निगाह नम…
ContinueAdded by Tasdiq Ahmed Khan on March 13, 2016 at 9:20pm — 12 Comments
Added by Rahul Dangi Panchal on March 13, 2016 at 9:00pm — 14 Comments
कैनवास ...
मुझे बहुत खुशी हुई थी
जब हर शख़्श
तुम्हें सलाम कर रहा था
तुम्हारे हर रंग की कद्र हो रही थी
तुम वाहवाही के नशे में गुम थे //
भीड़ में तन्हा
मैं तुम्हारे चहरे को निहार रही थी
इतने चहरे लिए
न जाने लोग कैसे जी लेते हैं
खुद को ज़िंदा रखने के लिए
न जाने
कितनों की खुशियाँ पी लेते हैं //
तुम कैसे पुरुष हो
औरत चाहते हो पर
उसे समझ नहीं पाते
उसके अहसासों से खिलवाड़ करते हो
न जाने कौन से…
Added by Sushil Sarna on March 13, 2016 at 6:16pm — 12 Comments
Added by शिज्जु "शकूर" on March 13, 2016 at 3:30pm — 6 Comments
सोने की चिडिया - (लघुकथा ) -
"भाई साहब, आपने घनश्याम के साथ बहुत बडा अन्याय कर दिया"!
"ऐसा क्या होगया छोटे, कुछ साफ़ साफ़ बोल ना"!
"आपके इस फ़ैसले पर सारी बिरादरी और खानदान थू थू कर रहा है"!
"किस फ़ैसले की बात कर रहा है "!
" घनश्याम की शादी का फ़ैसला ! ऐसी बदसूरत लडकी आजतक पूरे समाज और रिश्तेदारी में नहीं आयी, ना रंग, ना रूप, पता नहीं घनश्याम जैसे गोरे चिट्टे, सुंदर,सजीले , शिक्षित और प्रोफ़ेसर बेटे के लिये यही एक लडकी मिली थी आपको"!
" छोटे, कभी कभी…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on March 13, 2016 at 10:45am — 10 Comments
पूरा अधूरा वायदा
शब्दों के अभाव में कहे-अनकहे के
कढ़वे अन्तराल में
पार्क में पत्थर के बैंच को साक्षी बना
आसान था कितना
हम दोनों का अलविदा के समय कह देना ...
" हो सके तो भूल जाना तुम मुझको "
" तुम भी ..."
उस शाम के मेघों की वाणी में कुछ था, कुछ कहा
अत: वायदा वह पूरा हो न सका, न तुमसे, न मुझसे
रुँधी हुई ज़िन्दगी में भुलाने के असफ़ल प्रयास में
स्मृतिओं के धुँआते खंडहर के…
ContinueAdded by vijay nikore on March 13, 2016 at 6:35am — No Comments
२१२२ १२१२ २२
सूर्य से जो लड़ा नहीं करता
वक़्त उसको हरा नहीं करता
सड़ ही जाता है वो समर आख़िर
वक्त पर जो गिरा नहीं करता
जा के विस्फोट कीजिए उस पर
यूँ ही पर्वत झुका नहीं करता
लाख कोशिश करे दिमाग मगर
दिल किसी का बुरा नहीं करता
प्यार धरती का खींचता इसको
यूँ ही आँसू गिरा नहीं करता
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 12, 2016 at 11:22pm — 8 Comments
औरत .
सिर्फ एक
माँ, पत्नी, प्रेमिका
बेटी, बहू, सास,
दादी, नानी
ही नहीं.....
एक जीता जागता उदाहरण भी है
त्याग, ममता, बत्सलता
और संघर्ष का भी...........
एक निर्मात्री भी
मूल्यों , संस्कारों, परम्पराओं
और इतिहास की...............
एक इज्जत भी
घर कुटुंब, गाँव
और देश की.....
पर शायद अर्थहीन हो गया है
उसका सब कुछ होना भी
सिमट गया है
उसका बिरात स्वरुप
सिर्फ…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Mishra on March 12, 2016 at 3:32pm — 3 Comments
ग़ज़ल
२२१/२१२/११२२/१२१२
कश्ती थी बादबानी, हवा ही नहीं चली,
मर्ज़ी नहीं थी रब की सो अपनी नहीं चली.
.
ज़ह’न-ओ-जिगर की, दिल की, अना की नहीं चली
मौला के दर पे क़िस्सा कहानी नहीं चली.
.
कितने थे शाह कितने क़लन्दर क़तार में,
धमक़ी तो छोड़ दीजिये, अर्ज़ी नहीं चली.
.
धुलवा दिए थे अश्क-ए-नदामत से सब गुनाह,
चादर वहाँ ज़रा सी भी मैली नहीं चली.
.
होता रहा हिसाब-ए-अमल, रोज़-ए-हश्र, ‘नूर’
कोई वहाँ पे बात किताबी नहीं…
Added by Nilesh Shevgaonkar on March 11, 2016 at 7:00pm — 18 Comments
Added by Jeevan s. Rajak on March 11, 2016 at 5:28pm — 3 Comments
कांच के जज़्बात, हिम्मत कांच की
यार ये कैसी है इज्जत कांच की
.
पालते हैं खोखले आदर्श हम-
माँगते हैं लोग मन्नत कांच की
.
पत्थरों के शहर में महफूज़ है-
देखिये अपनी भी किस्मत कांच की
.
चुभ…
ContinueAdded by Ravindra Prabhat on March 11, 2016 at 2:53pm — 2 Comments
गजल/धूप
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1222 1222 1222 1222
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करो तय दोस्तो थोड़ा जिगर में धूप का होना
मिटा सीलन को देता है कि घर में धूप का होना /1
दुआ मागी थी रिमझिम में जरा सी धूप तो दे दो
अखरता क्यों तुझे है अब डगर में धूप का होना /2
जहाँ देखो वहीं जलवा करें साए इमारत के
पता चलता किसे है अब नगर में धूप का होना /3
चलो आँगन में रख आए चटखती हड्डियों को अब
जरूरी है बुढ़ापे की उमर में धूप का होना…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 11, 2016 at 11:52am — 18 Comments
सदा सच से दूर भागते
धूप ताप सब सह जाते
भगवान की मूर्ति बनाते
पूजा के हैं नियम बनाते
धर्म के पीछे ढोग रचाते
धूप दीप और नैवेद चढ़ाते
हवन के नाम अन्न जलाते
पत्थर पर हैं दूध पिलाते
भूखे बालक दूध न पाते
शिल्पी इनको जरा न भाते
उसे मूर्ति को छूने नहीं देते
मूर्ति को भगवान बताते
मंत्रो का उच्चारण करते
सुबह शाम आरती करते
शंख मजीरा ढ़ोल बजाते
सदा सुख की आशा करते
नारायण की कथा…
ContinueAdded by Ram Ashery on March 11, 2016 at 9:00am — 5 Comments
Added by amod shrivastav (bindouri) on March 10, 2016 at 9:32pm — 3 Comments
Added by amod shrivastav (bindouri) on March 10, 2016 at 9:28pm — 4 Comments
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