कोई झील बे-चैन सी,
कोई प्यास बे-खुद सी,
कोई शोखी बे-नज़ीर सी,
तेरी आँखों के और कितने नाम है.....
कोई ख़्याल बे-शक्ल सा,
कोई सितारा बे-नूर सा,
कोई बादल बे-आब सा,
मेरे अरमानों के और कितने नाम है.....
कोई रात बे-पर्दा सी,
कोई बिजली बे-तरतीब सी,
कोई अंगडाई बे-करार सी,
तेरी अदाओं के और कितने नाम है ....
कोई पत्थर बे-दाम सा,
कोई झरना बे-ताब सा,
कोई मुसाफिर बे-घर…
ContinueAdded by Nilesh Shevgaonkar on April 28, 2015 at 9:08am — 27 Comments
धरती के सीने में
अमृत छलकता है
धरती के ऊपर पानी है
अन्दर भी पानी है
ये धरती की मेहेरबानी है
कि बादल में पानी है
बादल तरसते हैं
तो धरती अपना पानी
नभ तक पहुंचा
उनकी प्यास बुझाती है
बादल बरस कर
एहसान नहीं करते
सिर्फ़ बिन सूद
कर्ज चुकाते हैं
क्यूंकि पानी तो वो
धरती से ही पाते हैं
फिर भी धरती पर गरजते हैं
बिजली गिराते हैं
जहाँ से जीवन पाते हैं
उसी को सताते हैं
जननी का हाल
कुछ ऐसा ही बताया था
परमार्थ का बीज बोया…
Added by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on April 28, 2015 at 7:59am — 14 Comments
....जागते रहो
शहर के उस कोने में बजबजाता
एक बड़ा सा बाजार
जहॉ बिखरे पड़े हैं सामान
असहजता के शोरगुल में
तोल-मोल करते लोग
कुछ सुनाई नहीं देता
बस! दिखाई देता है, एक गन्दा तालाब
उसमें कोई पत्थर नहीं फेंकता
उसमे तैरती हैं...मछलियां, बत्तखें और
बेखौफ पेंढुकी भी
वे जानती है, और सब समझतीं भी हैं...
इस संसार में सब कुछ बिकाऊ हैं-
कुछ पैसे लेकर और कुछ पैसे देकर
यहां शरीर से लेकर आस्था तक, .....सब!
तालाब की मिट्टी में सने ...देव…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 27, 2015 at 9:42pm — 14 Comments
याद आते हैं
अक्सर
पुराने जमाने ,
बैलों की गाड़ी
वो भूजे के दाने ,
दादी माँ की कहानी
उन्हीं की जुबानी,
भूले से भी न भूले
वो पुरवट का पानी |
अक्सर ही बागों में
घंटों टहलना
पके आमों पे
मुन्नी का मचलना
गुलेलों की बाज़ी
गोलियों का वो खेला
सुबह शाम जमघट पे
लगे मानो मेला
वो मुर्गे की बांग पे
भैया का उठना
रट्टा लगाके
दो दूना पढ़ना
कपडे के झूले पे
करेजऊ का झुलना
छोटी-छोटी…
Added by Chhaya Shukla on April 27, 2015 at 9:30pm — 8 Comments
किसी साहित्यिक गोष्ठी में पहली बार शामिल हुआ था वह I सीखने को आतुर मन !! चर्चा जोरों पर थी साहित्य का स्वरुप क्या हो ? असमंजस में पड़ गया वो !! दिल से लिखी गयी कुछ पंक्तियों के लिए कल कितनी कटु आलोचना सहनी पड़ी थी उसे I मन का लेखक अब लेखनी से त्रस्त होकर सोच रहा था कि ...... " किसके लिए लिखे वो ? "
मीना पाण्डेय
बिहार
मौलिक व् अप्रकाशित
Added by meena pandey on April 27, 2015 at 9:00pm — 4 Comments
तन्हाईयों में लौट जाएगी......
किसको सदायें देते हो
कोई रूह को चुराये जाता है
यादों के खंज़र से
आज खामोशी का दामन
तार- तार हुआ जाता है
हवाओं में
साँसों की सरगोशियों का शोर है
आँखों की मुंडेरों पर
दर्द के मौसम आ बैठे है
धड़कनें ज़ंजीरों में कैद हैं
भला दिल की सदा
कौन सुन पायेगा
ये पत्थरों का शहर है
यहां दिल शीशे सा टूट जायेगा
हर मौसम का यहां
अलग मजाज़ है
हर मौसम अब यहां
चश्मे सावन में डूब जाएगा…
Added by Sushil Sarna on April 27, 2015 at 8:04pm — 14 Comments
उस घर के आँगन में लोगों का जमावड़ा लगा हुआ और माहौल एकदम शांत था. अचानक जैसे ही तिरंगे में लिपटे हुए शव को सेना के वाहन से लाया गया तो सबसे पहले अपना होश खोकर वो घर के अन्दर से पागलों की तरह चीख मारती हुयी अपने दस वर्षीय बेटे के साथ, बाहर आकर सीमा पर शहीद हुए अपने पति के शव से लिपट-लिपट कर रोने लगी. शहीद सीमा सुरक्षा बल का जवान था. उसने दुश्मनों की सीमा में घुसकर उनके दल-बल को तहस-नहस कर डाला. बाद में दुश्मनों ने धोखे से उसे बंदी बनाकर रखा, फिर उसकी आँखें फोड़ दी गईं और शरीर को गोलियों से…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on April 27, 2015 at 12:18pm — 23 Comments
Added by विवेक मिश्र on April 27, 2015 at 8:30am — 9 Comments
पूरी जवानी उसने नशे और जुएँ की लत और बाप की नीली बत्ती के रौब में होम कर दी ।
"अभी माँ व बाप को मरे अभी साल भर ही नहीं हुआ, और तुम्हारा नशे में यूँ दिन रात झूमना , आखिर तुम कब इसे छोड़ोगे ?
देखना रमन ! यह ड्रग्स कभी तुम्हारी जान ले के छोड़ेगी आज घर की एक एक चीज नीलाम हो चुकी है , यहाँ तक की नाते-रिश्तेदार , नौकर चाकर सब साथ छोड़ कर चले गये । मैं तुमसे तंग आ चुकी हूँ अब तुम्हारे साथ और नहीं…
ContinueAdded by Pankaj Joshi on April 27, 2015 at 7:30am — 14 Comments
देह में तृष्णा के सागर
रेशम में ढकी गागर
इत्र से दबी गंध
लहू के धब्बों में
धुन्दलाया चेहरा
मुखोटों के पीछे
छिपाया मोहरा
न कोई मंजिल
ना कोई पहचान
बैठ ऊँचे मचान पर
ढूंढे नये आसमान
बे-माईने वक़्त का ये जहान
प्रेम परिभाषा ढूँढता वासना में
तम के घेरे में घिरा इंसान !!
******************************************
मौलिक व अप्रकाशित
Added by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on April 27, 2015 at 6:30am — 18 Comments
आरव ने खेल खेल में मेज पर प्लेट और गिलास से एक मीनार बना दी थी।""
"आरव बेटा यह क्या किया आपने"
आरव की मम्मा ने जिज्ञासावश आरव से पूछा।
"मम्मा मैंने यह अलार्म बनाया है ,अब जैसे ही भूकंप आयेगा हम जल्दी से घर से बाहर निकल जायेगे।कैसा है यह अलार्म मम्मा "
"बेटा जी अलार्म तो बहुत अच्छा है ।पर भगवान ना करें कि इसके बजने की नौबत आये"!
"मौलिक एवंम अप्रकाशित"
Added by neha agarwal on April 27, 2015 at 2:00am — 18 Comments
चाँद,
फ़क़त तुम्हारा नहीं,
मेरा भी है.
इसलिए नहीं की मै,
उसे निहारता हूँ,
किसी रेतीले किनारे से
या इंतज़ार करता हूँ,
ईद के चाँद…
ContinueAdded by Nilesh Shevgaonkar on April 26, 2015 at 12:30pm — 24 Comments
"सर, कुछ देर पहले उत्तर भारत में बड़ा भूकम्प आया है|"
"ओह, तुरंत कार्यवाही करो| संस्था के बीस बैनर और बनवा दो, पिछले भूकम्प वाले पत्र दिनांक और स्थान बदल कर सभी दानदाताओं को भिजवा दो| मैं भूकम्प प्रताड़ित क्षेत्र में चला जाता हूँ, गाड़ी तैयार करवा देना और राहत सामग्री के साथ उसमें दस-पन्द्रह खाली बैग रखना मत भूलना|"
(मौलिक और अप्रकाशित)
Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on April 26, 2015 at 12:00pm — 8 Comments
स्वेच्छा से बिंधता रहा, बिना किसी प्रतिकार
हिय से हिय की प्रीत को, शूलदंश स्वीकार
ईश्वर प्रेम स्वरूप है, प्रियवर ईश्वर रूप
हृदय लगे प्रिय लाग तो, बिसरे ईश अनूप
कब चाहा है प्रेम ने, प्रेम मिले प्रतिदान
प्रेमबोध ही प्रेम का, तृप्त-प्राप्य प्रतिमान
भिक्षुक बन कर क्यों करें, प्रेम मणिक की चाह ?
सत्य न विस्मृत हो कभी, 'नृप हम, कोष अथाह' !
प्रवहमान निर्मल चपल, उर पाटन…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on April 26, 2015 at 11:30am — 19 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on April 26, 2015 at 10:00am — 14 Comments
मुफाइलतुन मुफाइलतुन मुफाइलतुन
हयात मेरी न लज़्ज़ते कायनात मेरी
सहर को है वक्त और सियाह रात मेरी
निचोड़ के खून तक मेरे जिस्म से वो कहें
कि बख़्श दी जान देखिये इल्तिफ़ात* मेरी *कृपा
न दोस्त न दिलनवाज़* रहा कोई मेरा अब *दिल को तसल्ली देनेवाला
ख़ुदा से ही कहता हूँ मैं हर एक बात मेरी
उतरने लगेंगे खोल वफ़ा के अब पसे मर्ग *मौत के…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on April 26, 2015 at 9:00am — 14 Comments
अटल नियम है सृष्टि की, देखें आंखे खोल ।
प्राणी प्राणी एक है, आदमी पिटे ढोल ।।
इंसानी संबंध में, अब आ रही दरार ।
साखा अपने मूल से, करते जो तकरार ।।
खग-मृग पक्षी पेड़ के, होते अपने वंश ।
तोड़ रहे परिवार को, इंशा देते दंश ।।
कई जाति अरू वर्ण के, फूल खिले है बाग ।
मिलकर सब पैदा करे, इक नवीन अनुराग ।।
वजूद बगिया के बचे, हो यदि नाना फूल ।
सब अपने में खास है, सबको सभी कबूल ।।
पत्ते छोड़े पेड़ जो, हो…
ContinueAdded by रमेश कुमार चौहान on April 25, 2015 at 2:54pm — 6 Comments
मौसा, मौसी, ताऊ, फूफा
दुल्हे के सब साथी
बज रहे हैं गाजे बाजे
नाच रहे बाराती.
मेट्रो सी चमक रही
दिल्ली वाली भाभी
चक्करघिन्नी सी घूमे अम्मा
टांग कमर में चाभी
घुटनों का दर्द छुपाये
देख सभी को मुस्काती
नई सूट पहन कर भैया,
नाश्ते का पैकेट बाँट रहा
अपने लिए भी कोई
कटरीना, करीना छांट रहा
लहंगा चोली पहन के छोटी
घूमती है इतराती
जनक जीवन की मुश्किल बेला
विदा हो रही सीता
भीतर में कुछ टूट रहा…
Added by Neeraj Neer on April 25, 2015 at 12:03pm — 14 Comments
"अरे राधेलाल,फिर चाय का ठेला! तुम तो अपना धंधा समेटकर अपने बेटे और बहू के घर चले गए थे।"
"अरे सिन्हा साब!वो घर नही,काला पानी है काला पानी!सभी अपने ज़िन्दगी में इतने व्यस्त हैं कि न कोई मुझसे बात करता और न कोई मेरी बात सुनता।बस सारा दिन या तो टी वी देखो या फिर छत और दीवारों को ताको।भाग आया।यहाँ आपलोगों के साथ बतियाते और चाय पिलाते बड़ा अच्छा समय बीत जाता है।अरे,आप किस सोच में पड़ गए?"
"सोच रहा हूँ कि मै तो तुम्हारी तरह चाय का ठेला भी नही लगा सकता।बेटा बहुत बड़ा अफ़सर जो ठहरा।"फीकी हँसी…
Added by Mala Jha on April 25, 2015 at 10:00am — 23 Comments
Added by Poonam Shukla on April 25, 2015 at 9:55am — 5 Comments
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