2122 2122 2122
लंग सा जो भंग पैरों पर खड़ा है
हाँ, सहारा दो तो वो भी दौड़ता है
व्यक्तिगत सत्यों की सबको बाध्यता है
कौन कैसा क्यों है, ये किसको पता है
दानवों सा इस जगह जो लग रहा है
सच कहूँ ! कुछ के लिये वो देवता है
सत्य सा निश्चल नही अब कोई आदम
मौका आने पर स्वयम को मोड़ता है
आप अपनी राह में चलते ही रहिये
बोलने वाला तो यूँ भी बोलता है
उनकी क़समों का भरोसा…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on April 23, 2014 at 5:34pm — 36 Comments
छिड़ी हुई शब्दों की जंग | दिखा रहे नेता जी रंग ||
वैचारिकता नंगधडंग | सुनकर हैरत जन-जन दंग ||
जाति धर्म के पुते सियार | इनपर कहना है बेकार ||
बात-बात पर दिल पर वार | जन मानस पर अत्याचार ||
पांच वर्ष में एक चुनाव | छोड़े मन पर कई प्रभाव ||
महँगाई भी देती घाव | डुबो रही है सबकी नाव ||
नारी दोहन अत्याचार | मिला नहीं अबतक उपचार ||
सरकारें करती उपकार | निर्धन फिरभी हैं बीमार ||
तीर तराजू औ तलवार | किसे कहें अब जिम्मेदार…
ContinueAdded by Ashok Kumar Raktale on April 23, 2014 at 2:00pm — 27 Comments
(1)
मत अपना कर्तव्य है , मत अपना अधिकार
एक - एक मत से बनें , मनचाही सरकार
मनचाही सरकार , चुनें प्रत्याशी मन का
मन जिसका निष्पाप, चहेता हो जन-जन का
क्षणिक लाभ का लोभ, मिटा देता हर सपना
हो कर हम निर्भीक , हमेशा दें मत अपना ||
(2)
झूठे निर्लज लालची , भ्रष्ट और मक्कार
क्या दे सकते हैं कभी, एक भली सरकार
एक भली सरकार, चाहिए - उत्तम चुनिए
हो कितना भी शोर,बात मन की ही सुनिए
मन के निर्णय अरुण , हमेशा रहें अनूठे …
Added by अरुण कुमार निगम on April 23, 2014 at 9:00am — 15 Comments
गाँवों के पंछी उदास हैं
देख-देख सन्नाटा भारी।
जब से नई हवा ने अपना,
रुख मोड़ा शहरों की ओर।
बंद किवाड़ों से टकराकर,
वापस जाती है हर भोर।
नहीं बुलाते चुग्गा लेकर,
अब उनको मुंडेर, अटारी।
हर आँगन के हरे पेड़ पर,
पतझड़ बैठा डेरा डाल।
भीत हो रहा तुलसी चौरा,
देख सन्निकट अपना काल।
बदल रहा है अब तो हर घर,
वृद्धाश्रम में बारी-बारी।
बतियाते दिन मूक खड़े…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on April 23, 2014 at 9:00am — 27 Comments
हमारे जीवन मूल्य
सरेआम नीलाम हो जायेंगें
हम फिर से गुलाम हो जायेंगें ..
स्वतंत्रता का काल स्वर्णिम
तेजी से है बीत रहा
हासिल हुआ जो मुश्किल से
तेजी से है रीत रहा.
धरी रह जाएगी नैतिकता,
आदर्श सभी बेकाम हो जाएँगे .
हम फिर से गुलाम हो जायेंगे ..
कहों ना ! जो सत्य है.
सत्य कहने से घबराते हो
सत्य अकाट्य है , अक्षत
छूपता नहीं छद्मावरण से
जो प्राचीन है , धुंधला,
गर्व उसी पर करके बार बार दुहराते हो.
टूटे…
Added by Neeraj Neer on April 23, 2014 at 8:30am — 10 Comments
याद तेरी आविनाशी!
आह प्रिये! धूमिल अब हो गयी
याद तेरी अविनाशी!
मिलन तुम्हारा बारहमासी
कभी लगा ना उबासी
यादें तव मन मंदिर जग गयी
अलखन जगे जिमि काशी
आह प्रिये! धूमिल अब हो गयी
याद तेरी अविनाशी!
संग तुम्हारा था मधुमासी
मन ना छायी उदासी
चाँद सितारों में जा बस गयी
मधुर हँसी की उजासी
आह प्रिये! धूमिल अब हो गयी
याद तेरी अविनाशी!
मेरी दुनिया प्रेम पियासी
रसमयी…
ContinueAdded by Satyanarayan Singh on April 22, 2014 at 11:07pm — 14 Comments
बह्र : 212/212/212/212
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तंग हो हाथ पर दिल बड़ा कीजिए
चाहे जितने भी गम हों हंसा कीजिए
तितलियां लौट जाती हैं हो कर उदास
सुब्ह में फूल बन कर खिला कीजिए
है जलन उनको मैं चाहता हूं तुम्हें
मत सहेली की बातें सुना कीजिए
प्यार हो जाएगा है ये दावा मेरा
आप गजलें हमारी पढ़ा कीजिए
चांद से आपकी क्यों बहस हो गई
ऐसे वैसों के मुंह मत लगा कीजिए
यूं मकां है मगर घर ये हो जाएगा
बनके मेहमान कुछ दिन रहा…
Added by शकील समर on April 22, 2014 at 3:00pm — 18 Comments
चौपई छंद - प्रति चरण 15 मात्रायें चरणान्त गुरु-लघु
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किसी राष्ट्र के पहलू चार । जनता-सीमा-तंत्र-विचार ॥
जन की आशा जन-आवाज । जन का जन पर जनता-राज ॥
प्रजातंत्र वो मानक मंत्र । शोषित आम जनों का तंत्र ॥
किन्तु सजग है…
Added by Saurabh Pandey on April 22, 2014 at 2:00pm — 17 Comments
(कामरूप छंद 9-7-10 की यति)
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सेवक कभी थे अब ठगें ये नाम ’नेता’ तंज !
भोली प्रजा की भावना से खेलते शतरंज !!
हर चाल इनकी स्वार्थ प्रेरित ताकि पायें राज ।
पासा चलें हर सोच कर ये हाथ आये ताज ॥…
Added by Saurabh Pandey on April 22, 2014 at 1:30pm — 14 Comments
1222 1222 1222 1222
** **
हॅसी में राज पाया है, कि कैसे उन को मुस्काना
उदासी से तेरी सीखे, कसम से फूल मुरझाना
**
भले ही खूब महफिल में, हया का रंग दिखला तू
गुजारिश तुझ से पर दिल की, अकेले में न शरमाना
**
करो नफरत से नफरत तुम, इसी से दूरियाँ बढ़ती
मुहब्बत पास लाती है, भला क्या इससे घबराना
**
हमें है बंदिशों जैसे, कसम से रतजगे उसके
इसी से हो गया मुश्किल, सपन में यार अब…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 22, 2014 at 10:30am — 8 Comments
२१२२ २१२२ २१२२
साधुओं के भेष में शैतान कितने
लूटते विश्वास के मैदान कितने
फितरतें इनकी विषैली अजगरों सी
डस चुके हैं जीस्त में इंसान कितने
इस सियासी दौर में गुलज़ार हैं सब
रास्ते जो थे कभी वीरान कितने
हाथ में इतनी मिठाई देख कर वो
भुखमरी से जूझते हैरान कितने
छीनना ही था हमेशा काम जिनका
आज देते जा रहे हैं दान कितने
हड्डियाँ फेंकी उन्होंने सामने…
ContinueAdded by rajesh kumari on April 22, 2014 at 10:00am — 18 Comments
भारत हमारा
(कामरूप छंद)
भारत हमारा, देश न्यारा, सृष्टि का उपहार।
तहजीब अपनी, गंग जमुनी, नाज जिसपर यार।।
सीख दे ममता, और समता, कर्म गीता सार ।
जनतंत्र आगर, विश्व नागर,…
ContinueAdded by Satyanarayan Singh on April 21, 2014 at 10:30pm — 15 Comments
[1]
रूप मनभावन है मंद मंद मुस्कराये
नन्हें नन्हें पाँव लिए दौड़ी चली आती है
बार बार सहलाती अपने कपोल वह
छोटी छोटी गोल गोल आँखें मटकाती है
अम्मा पहना के जब पायल संवारती हैं
दौड़ती तो झनक झनक झंझनाती है
कायल है दादा दादी नाना नानी सभी अब
ठुमक ठुमक कर खूब इतराती है ॥
[2]
दादी अम्मा भोजन कराएं तो सताती वह
आगे आगे भागे पीछे अम्मा को छकाती है
कापी छीन लेती लेखनी वो तोड़ देती भाई
को है वो…
ContinueAdded by annapurna bajpai on April 21, 2014 at 8:30pm — 14 Comments
माँ की छोटी कोख में, पूत रहा नौ माह,
माँ को आश्रम भेज कर, मिली पूत को राह |
मिली पूत को राह, नहीं माँ वहां अकेली |
घरको से थी दूर, बहुत पर मिली सहेली
कह लक्ष्मण कविराय, पूत करले चालाकी
उसका ही सम्मान, करे जो पूजा माँ की |
(२)
परछाई भी दिख रही, अपने बहुत करीब
हाथ बढ़ा कर छू सकूँ, ऐसा नहीं नसीब |
ऐसा नहीं नसीब, भ्रमित मन होता इतना
स्वप्न मात्र संयोग, मिले नसीब में जितना
कह लक्ष्मण कविराय, स्वप्न में फटी बिवाई
उसे…
ContinueAdded by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on April 21, 2014 at 6:36pm — 8 Comments
खुदा के घर से किसी के दिल पर ,
ना हिन्दू ना मुसलमान की छाप लगकर आयी है ,
फिर क्यूँ तुमने हमपर जाती की तोहमत लगाई है ,
खुदा का वास्ता -
अब, ना हिन्दू ना मुसमान ना ईसाई बना हमको ,
इंसानियत हमारी ज़ात हैं ,कुछ और ना बना हमको
दिल जिगर गुर्दे ,तुम भी रखते हो ,हम भी रखते हैं ,
चाहो तो जंग के मैदान में आजमा सकते हो ,
और अगर चाहो तो -
ज़रूरतमंद को दान कर इंसान और इंसानियत ,
दोनों को बचा सकते हो
अप्रकाशित मौलिक
Added by Dr Dilip Mittal on April 21, 2014 at 4:33pm — 6 Comments
हाथ धरे बैठे नेताजि , नौका कैसे होवे पार !!
कैसे जीतें युद्ध चुनावी , लगा हुआ नेता दरबार !
सबके सब भिड गय जुगत मैं, रेडी खड़े सभी लठमार !!
भरा दिया पर्चा नेता का, भीड़ इकट्ठी हुई अपार !
लगा दिया फोटु भारी सा, होने लगा खूब परचार !!
पर्चा भर नेताजी पहुँचे , परम प्रभू भोले के द्वार !
परिक्रमा नेताजी करते , डोक लगाते बारमबार !!
मन मैं सिमर रहे नेताजि ,…
Added by Sachin Dev on April 21, 2014 at 1:30pm — 20 Comments
बह्र = 121 2122 2122 222
हर एक आदमी इंसान सा क्यूँ लगता है
खुदा तेरा मुझे भगवान् सा क्यूँ लगता है
हज़ारो लोग दौड़े आते हैं मंदिर मस्जिद
मुझे खुदा ही परेशान सा क्यूँ लगता है
कि सारी जिंदगी नाजों से था पाला जिसने
वो बूढ़ा बाप भी सामान सा क्यूँ लगता है
सियासी कूचों से होकर के गुजरने वाला
हर एक शख्स बे ईमान सा क्यूँ लगता है
इबादतों का कोई वक्त जो बांटूं भी तो
हर एक माह ही रमजान सा क्यूँ लगता है …
Added by Anurag Singh "rishi" on April 21, 2014 at 12:30pm — 26 Comments
कैसी शुष्कता है?
जो धूप में
बदन झुलसा रही..
भीतर इतनी आग
विरह की जो
केवल धुआँ
और धुआँ देती है
राख तक नसीब नहीं
जिसे रख दूँ संजो कर
तेरी हथेली पर
जब मिलन की बेला हो
और कहूँ कि....
यह पाया मैंने
तुझ बिन...!
जितेन्द्र ' गीत '
( मौलिक व् अप्रकाशित )
Added by जितेन्द्र पस्टारिया on April 21, 2014 at 11:00am — 58 Comments
आदरणीय गुरुजनों, अग्रजों एवं प्रिय मित्रों घनाक्षरी पर यह मेरा प्रथम प्रयास है कृपया त्रुटियों से अवगत कराएँ.
मनहरण - घनाक्षरी
क्रूरता कठोरता अधर्म द्वेष क्रोध लोभ
निंदनीय कृत्य पापियों का प्रादुर्भाव है,
दूषित विचार बुद्धि और हीन भावना है,
आदर सम्मान न ह्रदय में प्रेम भाव है,
नम्रता सहृदयता विवेक न समाज में,
सभ्यता कगार पर धर्मं का आभाव है,…
Added by अरुन 'अनन्त' on April 21, 2014 at 10:30am — 19 Comments
ये लोक तंत्र है
कहने के लिए
हम चुनते हैं
अपना प्रतिनिधि
वोट देकर
संविधान द्वारा स्थापित
प्रक्रिया
का सम्मान कर कर
लोकतंत्र की गरिमा
का
मन रख,
पर मिलता है हमें
धोखा
सरकार बने
फिर कैसी जनता
कैसा जनतंत्र?
संविधान हमारा
छत है
धुप, बारिश, पानी
सबसे बचाना इसका
काम है
पर अब
लगता है की
इस छतरी में छेद है.
जिसका पैसा
उसका कानून
और
फैसले भी उसके
पक्ष में.
क्या यही अवधारणा…
Added by ABHISHEK SHUKLA on April 21, 2014 at 12:44am — 5 Comments
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