2122 2122 2122 212
पा लिया, खोया किसीने,चल रहा यह सिलसिला
ख्वाहिशें अनजान थीं जो कुछ मिला अच्छा मिला।1
गर्दिशों के दौर में अरमान मचले कम नहीं
पर सरे पतझड़ यहाँ उम्मीद का अँखुआ खिला।2
घाव देकर हँस रहे हैं आजकल बेख़ौफ़ वे
कौन अपनों से करेगा बोलिये फिर से गिला?3
डर गये जीते शज़र सब आँधियों के जोर से
सूखता-सा जो खड़ा है कब सका कोई…
Added by Manan Kumar singh on April 9, 2017 at 10:30am — 18 Comments
Added by Mahendra Kumar on April 9, 2017 at 10:05am — 6 Comments
2122 2122 212
धारणायें हों मुखर, तो चुप रहें
सच न पाये जब डगर, तो चुप रहें
शब्द ज़िद्दी और अड़ियल जब लगें
और ढूँढें, अर्थ अगर तो चुप रहें
जब धरा भी दूर हो आकाश भी
आप लटके हों अधर, तो चुप रहें
कृष्ण हो जाये किशन, स्वीकार हो
शह्र पर जब हो समर तो चुप रहें
सीखने वालों पे यारों पिल पड़ें
जब ग़लत हो नामवर, तो चुप रहें
तेल औ’र पानी मिलाने के लिये
कोशिशें देखें…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on April 9, 2017 at 8:00am — 24 Comments
Added by Samar kabeer on April 9, 2017 at 12:13am — 37 Comments
2122 2122 2122 212
सच यहाँ पर कुछ नहीं जब खुद है झूठा आदमी|
जानकर भी आज सब अनजान देखा आदमी|
जग पराया देश है अपना यहाँ कुछ भी नहीं
कुछ दिनों के वास्ते इस जग में आया आदमी|
लोग अपने वास्ते जीते हैं दुनिया में मगर
जो पराया दर्द समझे है वो आला आदमी
ये ख़जाना और दौलत सब यही रह जाएगा
सिर्फ तेरा कर्म ही बस साथ देगा आदमी|
बेवफ़ा सी ज़िन्दगी जिस दिन तुझे ठुकराएगी
आदमी को लाश कहकर…
ContinueAdded by DR. BAIJNATH SHARMA'MINTU' on April 8, 2017 at 12:00am — 7 Comments
221 221 212
वह दौर था जो गुजर गया
था इक नशा जो उतर गया
देखा था उसने फरेब से
दिल आशिकाना सिहर गया
मुफलिस समझ के जनाब वो
पहचानने से मुकर गया
जिस पर भरोसा किया बहुत
वह यार जाने किधर गया
जब साथ था तो कमाल था
अब जिन्दगी का हुनर गया
इक ठेस ही थी लगी मुझे
मैं कांच सा था बिखर गया
जिस नाग ने था डसा मुझे
मैंने सुना है कि मर…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 7, 2017 at 9:19pm — 10 Comments
Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on April 7, 2017 at 4:30pm — 3 Comments
Added by Zaif on April 7, 2017 at 11:03am — 7 Comments
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on April 7, 2017 at 7:00am — 19 Comments
Added by Naveen Mani Tripathi on April 6, 2017 at 11:14pm — 5 Comments
२१२२/१२१२/२२
हमने अपने ही पाँव काटे हैं,
इस सड़क पर के छाँव काटे हैं।
जो परींदा मजे से रहता था,
उनके तो सारे ठाँव काटे हैं।
दौड़ना चाहती है हर बेवा,
पर ये दुनिया ने पाँव काटे हैं।
वार जिसने भी करना चाहा तो,
उसके तो सारे दाँव काटे हैं।
जानकर जा रहे शहर(१२) तुम भी,
इस शहर(१२)ने ही गाँव काटे हैं।
मौलिक व अप्रकाशित
Added by Hemant kumar on April 6, 2017 at 9:00pm — 12 Comments
2122 2122 2122 212
कट गये सर वो मगर शमशीर को समझे नहीं
घर जला, पर आग की तासीर को समझे नहीं
ख़्वाब ए आज़ादी कभी ताबीर तक पहुँचे भी क्यूँ
सबको समझे वो मगर जंजीर को समझे नहीं
वो मुसव्विर पर सभी तुहमत लगाने लग गये
जो उभरते मुल्क़ की तस्वीर को समझे नहीं
मजहबों में बाँट, वो नफरत दिलों में बो गये
और हम भी उनकी इस तदबीर को समझे नहीं
उनका दावा है, वो चार: दर्द का करते रहे
हमको शिकवा है…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on April 6, 2017 at 9:00am — 23 Comments
Added by Samar kabeer on April 6, 2017 at 12:29am — 31 Comments
नदी का वो घाट पर जहाँ दूर-दूर तक मुर्दों के जलने से मांस की सड़ांध फैली रहती थी साँस लेना भी दूभर होता था वहीँ थोड़ी ही दूरी पर एक झोंपड़ी ऐसी भी थी जो चिता की अग्नि से रोशन होती थी|
भैरो सिंह का पूरा परिवार उसमे रहता था दो छोटे छोटे बच्चे झोंपड़ी के बाहर रेत के घरोंदे बनाते हुए अक्सर दिखाई दे जाते थे |
दो दिन से घाट पर कोई चिता नहीं जली थी बाहर बच्चे खेलते-खेलते उचक कर राह देखते- देखते थक गए थे कि अचानक उनको राम नाम सत्य है की आवाजें सुनाई दी सुनते ही बच्चे ख़ुशी से उछल पड़े…
ContinueAdded by rajesh kumari on April 5, 2017 at 9:00pm — 20 Comments
लिख दें इबारत इश्क की,
आओ ज़रा सा झूम लें..
इक दूसरे को जी सकें, कब वक़्त ही इतना मिला
बस दूरियाँ थामे रहीं नज़दीकियों का सिलसिला,
कुछ पल मिले हैं साथ के आओ इन्हें जी लें अभी
हमको मिलें ये पल न जाने ज़िंदगी में फिर कभी,
ले उँगलियों में उँगलियाँ
आओ ज़रा सा घूम लें ...
लिख दें...
जब प्यार के एहसास के पहलू कई हैं अनछुए
क्यों पूछते हैं आप फिर गुमसुम भला हम क्यों हुए ?
सपने हमारे…
Added by Dr.Prachi Singh on April 5, 2017 at 6:06pm — 4 Comments
मैं चुप रही ....
रात के पिछले पहर
पलकों की शाखाओं पर
कुछ कोपलें
ख़्वाबों की उग आई थीं
याद है तुम्हें
तुम ने
चुपके से
मेरे ख्वाबों की
कुछ कोपलें
चुराई थीं
मैं चुप रही
तुमने
अपने स्पर्श से
उनमें बैचैनी का
सैलाब भर दिया
मैं चुप रही
तुमने
मेरी पलकों की
शाखाओं पर
अपने अधरों से
सुप्त तृष्णा को
जागृत किया
मैं चुप रही
रात की उम्र
ढलती रही…
Added by Sushil Sarna on April 5, 2017 at 5:50pm — 14 Comments
व्यर्थ है......
व्यर्थ है
कुछ भी कहना
बस
मौन रहकर
देखते रहो
दुनिया को
तमाशाई नज़रों से
पूरे दिन
व्यर्थ है
कुछ भी सुनना
अर्थहीन शब्दों के
कोलाहल में
भटकते भावों की
तरलता में लुप्त
संवेदना के
स्पंदन को
व्यर्थ है
कुछ भी ढूंढना
इस नश्वर संसार में
आदि और अंत का
भेद पाने के लिए
स्वयं में
स्वयं से
मिलने का
प्रयास करना …
Added by Sushil Sarna on April 5, 2017 at 3:30pm — 8 Comments
Added by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on April 5, 2017 at 11:49am — 3 Comments
२१२२/२१२२/२१२२/२१२
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इस तरह हर इक गुनह का सामना करना पड़ा,
हश्र में ख़ुद के किये पे तब्सिरा करना पड़ा.
.
सुल्ह फिर अपने ही दिल से यूँ हमें करनी पड़ी,
फ़ैसले को टालने का फ़ैसला करना पड़ा.
.
क़ामयाबी की ख़ुशी में चीखता है इक मलाल,
सोच कर निकले थे क्या कुछ और क्या करना पड़ा.
.
एक मुद्दत से कई चेहरे थे आँखों में असीर,
आँसुओं की शक्ल में सब को रिहा करना पड़ा.
.
झूठ के नक्क़ारखाने में बला का शोर है,…
Added by Nilesh Shevgaonkar on April 5, 2017 at 9:16am — 18 Comments
Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on April 4, 2017 at 7:59pm — 1 Comment
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