सुगंध बनकर आ जाओ तुम
मेरे जीवन के मधुबन में
प्रेम सिंचित हरी वसुंधरा
पल पल में जीवन महकाओ
परितप्त ह्रदय के मरुतल पर
मेघा दल बन कर छा जाओ
बस जाओ न प्रतिबिम्ब बनकर
मेरे जीवन के दर्पण में.
सुगंध बनकर आ जाओ तुम
मेरे जीवन के मधुबन में ..
तुझ से ही है मेरा होना
तुझ से मिलकर हँसना रोना
तुम चन्दा , मैं टिम टिम तारा
अर्पण तुझ पर जीवन सारा
तुझ से दूर रहूँ मैं कैसे
आसक्त बंधा हूँ बंधन में
सुगंध बनकर आ जाओ…
Added by Neeraj Neer on April 9, 2014 at 10:01am — 14 Comments
चल पड़े राह जो गुनाह में थे ।
गुम गए वो सभी सियाह में थे ।
वो क्या थी अदा हमें दिखाई ,
जब हमारी रहे निगाह में थे ।
वो क्या ये बतायें तुझे अब ,
जब रहे वो न उस सलाह में थे ।
हम कहें भी क्या तो वेसा क्या ,
जब रहे हम उसी पनाह में थे ।
क्यों लगे वो यहीं रुके होंगे ,
जो सदा के लिए प्रवाह में थे।
"मौलिक व अप्रकाशित"
Added by मोहन बेगोवाल on April 9, 2014 at 1:00am — 7 Comments
खिलना नहीं है बाग में
मिलना है जिसको खाक में
ध्यान में उसका धरूँ
कितने दिनों के वास्ते ?
विश्वास अपनों का धरूँ
उपहास अपना क्यों करूँ ?
इतिहास अपना ही लिखूँ
कितने दिनों के वास्ते ?
अवसाद सपनों पर करूँ
फरियाद अपनों से करूँ
नित याद में खोई रहूँ
कितने दिनों के वास्ते ?
अभिमान मन की भूल है
अरमान मन की चूक है
इस चूक को वरदान समझूँ
कितने दिनों के वास्ते…
ContinueAdded by kalpna mishra bajpai on April 8, 2014 at 11:00pm — 22 Comments
सह विनाश या सह विकास
दुनियाँ
परमाणु बम पर बैठी हुयी है
बस एक हिट की –
ज़रूरत है ,
मनु – युग मे जाने की
ज़रूरत नहीं होगी
तब मालूम होगा
अस्तित्व
सह विनाश का ।
पर यदि
नयी उमर की नयी फसल -
देखनी है
तो सम्राट अशोक को
फिर से
बुद्ध के शरण मे आना होगा
गांधी और किंग की भावनाओं को
अपनाना होगा
फिर कल – कारखानों से
सुमधुर संगीत जो…
ContinueAdded by S. C. Brahmachari on April 8, 2014 at 9:47pm — 5 Comments
आंखों देखी – 15 बैरागी अभियात्री, साधारण इंसान
आसमान में बादल थे लेकिन दृश्यता (visibility) अच्छी होने के कारण छठे अभियान दल के दलनेता ने दक्षिण गंगोत्री आने का निर्णय लिया. नियमानुसार, जहाज़ के अंटार्कटिका पहुँचने के साथ ही अभियान की पूरी कमान नए दल के दलनेता के हाथों आ जाती है हालाँकि वे हालात के अनुसार लगभग सभी निर्णय शीतकालीन दल के स्टेशन कमाण्डर के साथ विचार-विमर्श करने के बाद ही लेते हैं. शिष्टाचार के अतिरिक्त इसका मुख्य कारण है शीतकालीन दल का विशाल अनुभव…
ContinueAdded by sharadindu mukerji on April 8, 2014 at 5:15pm — 4 Comments
देख चुनावी वर्ल्ड कप, का सज गया मैदान
ट्रोफी इसकी पाने को , सब नेतागन परेशान
सोच रहे हैं सब कैसे, मतदाता को रिझायें
कम ओवर मैं अब कैसे, रन तेजी से बनायें
कैसे उसे मनाये जो, मतदाता पहले से रूठा
निकल जाये न मैच, कैच जो हाथों से छूटा
जो बॉलर भी आये समक्ष, उसको मारो बल्ला
चाहे चौका लग न पाये, मचे छक्के का हल्ला
जीतेंगे है हर हाल मैं हमतो, ठोंक रहे हैं ताल
गति गेंद की तेज रहे चाहे, हो जाये नो…
Added by Sachin Dev on April 8, 2014 at 4:30pm — 8 Comments
मात्रिक छंद
असुरों के सुर उच्च हुए हैं, मौन मंत्र सिखलाना होगा।
राम, तुम्हें फिर से कलियुग में, भारत भू पर आना होगा।
ओढ़ चदरिया राम नाम की, घूम रहे चहुं ओर अधर्मी।
धर्म-पंथ उनको दिखलाकर, गूढ़-ज्ञान फैलाना होगा।
मानवता का ढोंग रचाकर, रावण ताज सजा …
ContinueAdded by कल्पना रामानी on April 8, 2014 at 11:00am — 18 Comments
२१२२ २१२२ २१२२ २१२
रोक लो तूफ़ान चिंगारी भड़क फ़िर जाएँगी
नफ़रती लपटें जमीं से अर्श तक फ़िर जाएँगी
इन दरारों पे जरा आँचल बिछा कर छाँव दो
आंच पाकर बैर की वरना दहक फ़िर जाएँगी
अम्न- ओ-इंसानियत से चूर थी गलियाँ यहाँ
देख वो अपने उसूलों से भटक फ़िर जाएँगी
खाई जाती थी कसम जो दोस्ती के दरमियाँ
उस वफ़ा की पाक़ मीनारें चटक फ़िर जाएँगी
फिर झडेंगे शाखों से पत्ते ख़जां आये बिना
बिजलियाँ जब उन…
ContinueAdded by rajesh kumari on April 8, 2014 at 11:00am — 14 Comments
पहन मुखौटा घूमते, आया पास चुनाव,
खेती बो विश्वास की, तापे खूब अलाव ।
छलियाँ बनकर लूटने, करे प्रेम की बात,
सबकी बाते मानते, दिन हो चाहे रात ।
मीठा मंतर मारते, मन में रखते खोट,
बंजर को उर्वर कहे, लेने इनको वोट ।
पाखण्डी कुछ आ गए, देख हमारे गाँव,
आकर लूटे कारवाँ, बोझिल से है पाँव ।
देख हवा के रूख को, झट पलटी खा जाय,
अपने दल को छोड़कर, दूजे दल में जाय |
होड़ लगी है मंच पर, फिसला…
ContinueAdded by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on April 8, 2014 at 9:43am — 12 Comments
1222 1222 1222 1222
***
सियासत पूछ मत तुझमें पतन क्या-क्या नहीं देखा
बहुत खुदगर्ज देखे हैं मगर तुझ सा नहीं देखा
**
महज कुर्सी को दुश्मन से करे तू लाख समझौते
चरित तुझ सा किसी का भी यहाँ गिरता नहीं देखा
**
सपन में भी दिखा करती मुझे तो बस सियासत ही
सियासत से मगर कच्चा कोई रिश्ता नहीं देखा
**
बराबर बाटते देखी मुहब्बत भी समानों सी
बड़ा-छोटा करे माँ प्यार का हिस्सा नहीं …
ContinueAdded by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 7, 2014 at 12:30pm — 23 Comments
“अरे! रामेश्वर भाई..समझ नही आता क्या करें ? किस को क्या समझाएं ? किस दुःख में शामिल होने चलें?”
“सही कह रहे हो..तुम किशन भाई, वहां बेचारे दीनानाथ जी का शव अंतिम संस्कार की राह देख रहा है और उनके चारों बेटे आपस में बटवारे को लेकर झगड़ रहे है..”
" हाँ भाई..! रामेश्वर , दीनानाथ जी ने अपनी अर्थी के लिए चार काँधे तैयार किये थे, न जाने क्या कमी रह गई "
जितेन्द्र 'गीत'
(मौलिक व् अप्रकाशित)
Added by जितेन्द्र पस्टारिया on April 7, 2014 at 11:09am — 30 Comments
Added by इमरान खान on April 6, 2014 at 8:30pm — 31 Comments
अब होश करौ मदहोश न हो,
नहीं तौ फिर से दुख पइहौ।
उप्पर सफेद अंदर करिया,
ई नेता केर स्वरूप आय।
घड़ियाली आंसू ढुरुकि क्यार,
वोटन का लेवैक रूप आय।
जौ जाति धर्म मां बंटि जइहौ,
तौ पांच साल तक पछितइहौ
अब होश करौ मदहोश न हो,
नाहीं तौ फिर से................।
ई प्रजा तंत्र तब बचि पाई,
जब रिश्ता नाता ना देखौ,
टेटे कै पैसा ना लेखौ,
गाड़ी कै बवंडर ना देखौ।
अब होश करौ मदहोश न हो,
नाहीं तौ फिर से................।
ई देश बचावै के खातिर,
गुंडन…
Added by Atul Chandra Awsathi *अतुल* on April 6, 2014 at 7:14pm — 7 Comments
गाँव की फिजाओं में
अब नहीं गूंजते
बैलों के घूँघरू ,
रहट की आवाज.
नहीं दिखते मक्के के खेत
और ऊँचे मचान .
उल्लास हीन गलियां
सूना दृश्य
मानो उजड़ा मसान.
नहीं गूंजती गांवों में
ढोलक की थाप पर
चैता की तान
गाँव में नहीं रहते अब
पहले से बांके जवान.
गाँव के युवा गए सूरत, दिल्ली और
गुडगांव
पीछे हैं पड़े
बच्चे , स्त्रियाँ, बेवा व बूढ़े
गाँव के स्कूलों में शिक्षा की जगह
बटती है खिचड़ी.
मास्टर साहब…
Added by Neeraj Neer on April 6, 2014 at 12:30pm — 26 Comments
मुक्तक
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मै भी खुश और तुम भी खुश लेकिन दुखिया सारा संसार
कथनी करनी में भेद रखता कैसे हो सुखी परिवार
आओ मिल हम खुशियां बोयें उन्नत हो सकल संस्कार
टुकड़ों में हम बंटे है फिरते सबका एक जगत आधार
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जिंदगी की भाग दौड़ में रास्ते बदल जाते हैं
लाख रंजिश सही मिलते ही कदम ठहर जाते हैं
आसां नही यूँ ही किसी को इस कदर भुला देना
जख्म इतने सीने में सूखते फिर हरे हो जाते हैं…
Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 5, 2014 at 9:47pm — 21 Comments
उसे मजदूरी में जितने रूपये मिले थे उसकी रोटियाँ खरीदी और खाने के बाद दो रोटियाँ बचा ली, उसने सोचा कल पता नहीं काम मिले या नहीं, इतने में उसकी नज़र एक बच्चे पर पड़ी वो उन रोटियो की तरफ कातर दृष्टि से देख रहा था। उसे दया आ गई, उसने रोटियाँ उस बच्चे को दे दी।
उधर - एक आम मध्यमवर्गीय परिवार में शादी थी मेहमानों के चले जाने के बाद काफी खाना बच गया था इतना कि कम से कम 20 भूखे पेट भर सकते थे। मेजबान से पूछा गया इस खाने का क्या करें ? ……………?
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by शिज्जु "शकूर" on April 5, 2014 at 8:30pm — 14 Comments
2122 2122 2122 2122
चद्दरों से, सिर्फ़ कचरों को दबाया जा रहा है
साफ सुथरा इस तरह खुद को जताया जा रहा है
लूट के लंगोट भी बाज़ार में नंग़ा किये थे
फिर वही लंगोट दे हमको मनाया जा रहा है
रोशनी सूरज की सहनी जब हुई…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on April 5, 2014 at 4:00pm — 31 Comments
(1)
अंग्रेजियत का, दंभ भरते, क्या दिये संस्कार।
रावण बनें कुछ, कंस भी हैं, पूतना भरमार ॥
नारी सुरक्षा, देश रक्षा, विफल है सरकार।
हैं बलात्कारी, आततायी, व्याप्त भ्रष्टाचार ॥
(2)
नेता लफंगे, संग चमचे, जब पधारे गाँव।
वो गिड़गिड़ायें, वोट माँगें, पकड़ सब के पाँव॥
जीते अगर तो, भूल से भी, दिखें न बदमाश।
मंत्री बने तो, देश का फिर, करें…
ContinueAdded by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on April 5, 2014 at 11:30am — 17 Comments
1212212122
समय हमें क्या दिखा रहा है।
कहाँ ज़माना ये जा रहा है।
कोई बनाता है घर तो कोई,
बने हुए को ढहा रहा है।
बुझाए लाखों के दीप जिसने,
वो रोशनी में नहा रहा है।
गुलों को माली ही बेदखल कर,
चमन में काँटे उगा रहा है।
कुचलता आया जहाँ उसी को,
जो फूल खुशबू लुटा रहा है।
जो बीज बोकर उगाता रोटी,
वो भूख से बिलबिला रहा है।
हो बाढ़ या सूखा दीन का तो,
सदा…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on April 5, 2014 at 9:50am — 24 Comments
चेतनाहीन
मैं
एक सपेरा हूँ , मदारी हूँ
कश्मीर से कन्या कुमारी , और –
गुजरात से अरुणाचल तक
दिल्ली
मेरी पिटारी है ।
बंद हैं इसमे काले विषधर साँप , बंदर
पर अफसोस –
ये गाँधीवादी नहीं
इनके आँख , कान और मुंह
सभी बंद हैं
क्यूँ कि ये अवसरवादी हैं ।
मैं गाँधी
एक सपेरा , मदारी !
खड़ा बजा रहा हूँ बीन
पर , अफसोस –
ये चेतनाहीन हो गए से लगते हैं ।
-------…
ContinueAdded by S. C. Brahmachari on April 4, 2014 at 9:30pm — 5 Comments
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