तुम्हारे और मेरे बीच है
कांच की एक मोटी दीवार
जो कभी कभी अदृश्य प्रतीत होती है
और पैदा करती है विभ्रम
तुम्हारे मेरे पास होने का
मैं कह जाता हूँ अपनी बात
तुम्हें सुनाने की उम्मीद में
तुम्हारे शब्दों का खुद से ही
कुछ अर्थ लगा लेता हूँ.
क्या तुम समझ पाती होगी
मैं जो कहता हूँ
क्या मैं सही अर्थ लगाता हूँ
जो तुम कहती हो ..
कांच की इस दीवार पर
डाल दिए हैं कुछ रंगीन छीटें
ताकि विभ्रम की स्थिति में
मुझे…
Added by Neeraj Neer on June 23, 2014 at 8:00pm — 16 Comments
(सभी गुरुजनों की समीक्षार्थ ... सादर -)
चिंता चित पर ज्यों चढ़े, पल-पल मन झुलसाय|
चिंता रथ पर जो चढ़े, चिता तलक पहुँचाय ||
चिता तलक पहुँचाय , रहे तन छिन-छिन घुलता |
छिने दिमागी चैन , नींद से वंचित फिरता ||
देत न कोय उपाय, सुख व सेहत की हंता |
करें चिंतन सदैव, करें न कभी भी चिंता ||
.
मौलिक व अप्रकाशित
Added by shalini rastogi on June 23, 2014 at 6:30pm — 9 Comments
जब हाथों हाथ लेते थे अपने भी पराये भी
बचपन यार अच्छा था हँसता मुस्कराता था
बारीकी जमाने की, समझने में उम्र गुज़री
भोले भाले चेहरे में सयानापन समाता था
मिलते हाथ हैं लेकिन दिल मिलते नहीं यारों
मिलाकर हाथ, पीछे से मुझको मार जाता था
सुना है आजकल कि बह नियमों को बनाता है
बचपन में गुरूजी से जो अक्सर मार खाता था
उधर माँ बाप तन्हा थे इधर बेटा अकेला था
पैसे की ललक देखो दिन कैसे दिखाता था
जिसे देखे हुआ अर्सा , उसका हाल जब पूछा
बाकी…
Added by Madan Mohan saxena on June 23, 2014 at 1:07pm — 5 Comments
2122 2122 2122 212
******************************
पाँव छूना रीत रश्में मानता अब कौन है
सर पे आशीषों की छतरी तानता अब कौन है
***
जोड़ना आता नहीं पर , बाँटनें की फितरतें
धर्म हो या हो सियासत जानता अब कौन है
***
रो रहे क्यों वाक्य को तुम मानने की जिद लिए
शब्द भर बातें सयानों मानता अब कौन है
***
सिर्फ दौलत को यहाँ पर रोज भगदड़ है मची
प्यार की खातिर मनों को छानता अब कौन है
***
सबको…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 23, 2014 at 11:30am — 31 Comments
1212 1122 1212 22
हुई न खत्म मेरी दास्ताने ग़म यारो
हरेक लफ़्ज़ अभी अश्क़ से है नम यारो
है ज़िन्दगी तो यहाँ मुश्किलात भी होंगी
चलो जियें इसे हर सांस दम ब दम यारो
इधर चराग का जलना उधर हवा की रौ
ये मेरा ज़ोरे जिगर और वो सितम यारो
लिबास ही से न होगा कभी नुमायाँ सच
सफ़ेदपोश तो लगते हैं मुह्तरम यारो
रहा न बस कोई तहरीर पर किसी का अब
चलाना भूल गईं उँगलियाँ क़लम यारो
मैं रफ़्ता-…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on June 23, 2014 at 10:13am — 21 Comments
ग़ज़ल -
फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन
२१२२ २१२२ २१२२ २१२
मौत का आना है तय उससे बचा कोई नहीं |
काम आ पायेगी अब शायद दुआ कोई नहीं |…
ContinueAdded by Abhinav Arun on June 23, 2014 at 7:30am — 22 Comments
ज़िन्दगी की ढिबरी
डूबती संध्याओं की उदास झुकी पलकों में
एक रिश्ते-विशेष के साँवलेपन की झलक
बरतन पर लगी नई कलाई की तरह
हर सुबह, हर शाम और रात पर चढ़ रही, मानो
गम्भीर उदास सियाह अन्तर्गुहाओं में व्याकुल
मूक अन्तरात्मा दुर्दांत मानव-प्रसंगों को तोल रही
रिश्ते के साँवलेपन में समाया वह दानवी दर्द
अतीत की आँखों से टपक-टपक कर अब
क्यूँ है मेरी रुँधी हुई आवाज़ में छलक…
ContinueAdded by vijay nikore on June 23, 2014 at 7:00am — 24 Comments
दिनांक 22 जून की शाम इलाहाबाद के अदबघर, करेली में अंजुमन के सौजन्य से आयोजित तरही-मुशायरे में मेरी प्रस्तुति तथा कुछ अन्य शेर --
2122 2122 212
यदि सुशासित देश-सूबा चाहिये..
शाह क्या जल्लाद होना चाहिये !?…
Added by Saurabh Pandey on June 23, 2014 at 1:00am — 64 Comments
मैं बहुत जीता हूँ, …….
जीता हूँ ….
और बहुत जीता हूँ …..
ज़िन्दगी के हर मुखौटे को जीता हूँ //
हर पल …..
इक आसमाँ को जीता हूँ ……
हर पल …….
इक जमीं को जीता हूँ //
मैं ज़मीन -आसमाँ ही नहीं …..
अपने क्षण भंगुर …..
वजूद को भी जीता हूँ //
कभी हंसी को जीता हूँ ….
तो कभी ग़मों के जीता हूँ …..
जिंदा हूँ जब तक …..
मैं हर शै को…
Added by Sushil Sarna on June 22, 2014 at 8:30pm — 22 Comments
मेरे वज़ूद की
ज़मीं पे
उग आये हैं
यादों के तमाम
कैक्टस और बबूल
जो लम्हा - लम्हा
छलनी करते जा रहे हैं
मेरे जिस्मो जाँ को
और अब
मेरे जिस्म पे
छप गयी है
नीली स्याही से
एक उदास नज़्म
किसी गोदने की तरह
जो मेरी,
पहचान बनती जा रही है
मुकेश इलाहाबादी -----
(मौलिक/अप्रकाशित)
Added by MUKESH SRIVASTAVA on June 22, 2014 at 5:00pm — 10 Comments
एक पुरुष करता है
अपनी स्त्री से बहुत प्यार.
उसने डाल दी है
उसके पांवों में बेड़ियाँ.
वह उसे खोना नहीं चाहता.
स्त्री भी करती है
उससे बेपनाह मुहब्बत.
वह भी उसे खोना नहीं चाहती.
पर वह नहीं डाल पाती है
उसके पैरों में बेड़ियाँ.
बेड़ियाँ मिलती हैं बाजार में
खरीदी जाती हैं पैसों के बल पर.
नीरज कुमार नीर ..
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Neeraj Neer on June 22, 2014 at 3:00pm — 15 Comments
(१)
पिसते हरदम ही रहे , मन में पाले टीस
तुझको भी मौका मिला, तू भी ले अब पीस
तू भी ले अब पीस , बना कर खा ले रोटी
हम चालों के बीच , सदा चौसर की गोटी
पूछ रहा विश्वास , कहाँ बदला है मौसम
घुन गेहूँ के साथ , रहे हैं पिसते हरदम ||
(२)
बिल्ली है सम्मुख खड़ी , घंटी बाँधे कौन
एक अदद इस प्रश्न पर , सारे चूहे मौन
सारे चूहे मौन , घंटियाँ शंख बजाते
मजबूरी में नित्य , आरती सारे …
Added by अरुण कुमार निगम on June 22, 2014 at 3:00pm — 6 Comments
इन्द्र्देव ने भेज दिया है
धरती को पैगाम।
बूँदों से है लिखी इबारत।
बदलेगी जन-जन की किस्मत।
मानसून इस बार करेगा
सबके मन की पूरी हसरत।
भर चौमासा घन बरसेंगे
झूम झूम अविराम।
हरषेगा खेतों में हँसिया।
अन्न बीज रोपेगा हरिया।
उड़ जाएगी निकल नीड़ से,
बेबस हो महँगाई…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on June 22, 2014 at 2:42pm — 12 Comments
क्यों घूंघट में है सच?
क्योंकि तुमने प्रयास नहीं किया
कभी इस और ध्यान नहीं दिया.
उलझे रहे जीवन के उहापोह में
परायों के दोष अपनों के मोह में.
अगर तुमने हिम्मत दिखाई होती
कभी अपनी अंतरात्मा जगाई होती.
देखा होता उठाकर तुमने घूंघट,
ख़ुशी भरा होता आँगन खचाखच.
डॉ.विजय प्रकाश शर्मा.
मौलिक और अप्रकाशित
Added by Dr.Vijay Prakash Sharma on June 22, 2014 at 10:00am — 14 Comments
“देखो नेहा वो अभी भी घूर रहा है” झूमू ने नेहा का हाथ पकड़े-पकड़े हर की पौढ़ी पर गंगा में डुबकी लगाते हुए कहा|”बहुत बेशर्म है अभी भी बैठा है इसको पता नहीं किस से पाला पड़ा है, इसका मजनू पना अभी उतारते हैं शोर मचाकर” उसको थप्पड़ दिखाती हुई नेहा आस पास के लोगों को उकसाने लगी|
इसी बीच में न जाने कब झूमू का हाथ छूट गया और वो तीव्र बहाव में बहने लगी|छपाक!!!!! आवाज आई और कुछ ही देर में वो युवक झूमू को बचाकर बाहर निकाल लाया|
थोड़ी दूर खड़ा एक पुलिस वाला भी आ गया और “बोला इन साहब का…
ContinueAdded by rajesh kumari on June 22, 2014 at 8:30am — 40 Comments
Added by Abhinav Arun on June 22, 2014 at 7:15am — 25 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on June 22, 2014 at 6:27am — 12 Comments
वज्न ~ 1222 1222 122
शिकायत है, नही कुछ भी जियादा
मुहब्बत है, नही कुछ भी जियादा
करे वह वार मुझ पे पीठ पीछे
अदावत है, नही कुछ भी जियादा
.
बदलते रंग क्यों गिरगिट के जैसे
ये आदत है, नही कुछ भी…
Added by वेदिका on June 22, 2014 at 1:30am — 14 Comments
जाने कहाँ गईं ?
Added by AVINASH S BAGDE on June 22, 2014 at 12:30am — 9 Comments
लग कर छाती से हुए, बडे और बलवान
निज जननी के सामने, ठाडे सीना तान
ठाडे सीना तान , लाज आये ना उनको
बेशर्मी ली लाद , न भाये अपने मन को
आहत है माँ खूब, दुखी रातों में जगकर
चूसे मां का खून , पले जो छाती लगकर ||
मीना पाठक
मौलिक अप्रकाशित
Added by Meena Pathak on June 21, 2014 at 11:13pm — 17 Comments
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