अपने मौसम को ………
तुम ही तो थे
मेरे नेत्रों के वातायन से
असमय विरह पीर को
बरसाने वाले
मुझे अपने बाहुपाश में
प्रेम के अलौकिक सुख का
परिचय कराने वाले
मेरी झोली में विरह पलों को डालने वाले
क्या आलिंगन के वो मधुपल भ्रम थे
पर्दे के पीछे मेरी विरह वेदना को
सिसकियों में पिघलते
मूक बन कर देखते रहे
क्यों एक बार भी हाथ बढ़ा कर
मेरे व्यथित हृदय को
ढाढस…
Added by Sushil Sarna on June 5, 2014 at 4:56pm — 16 Comments
इन कंक्रीटों के जंगल में नहीं लगता है मन अपना
जमीं भी हो गगन भी हो ऐसा घर बनातें हैं
ना ही रोशनी आये ना खुशबु ही बिखर पाये
हालात देखकर घर की पक्षी भी लजातें हैं
दीबारें ही दीवारें नजर आये घरों में क्यों
पड़ोसी से मिले नजरें तो कैसे मुहँ बनाते हैं
मिलने का चलन यारों ना जानें कब से गुम अब है
टी बी और नेट से ही समय अपना बिताते हैं
ना दिल में ही जगह यारों ना घर में ही जगह यारों
भूले से भी मेहमाँ को ना नहीं घर में टिकाते हैं
अब…
ContinueAdded by Madan Mohan saxena on June 5, 2014 at 3:09pm — 9 Comments
छप्पय छंद
बेटी होना पाप, त्रास में जीवन सारा ।
जन्म पूर्व ही घात, उसे कितनों ने मारा ।।
कंपित होती सांस, वायु है दूषित सारी ।
छेड़ छाड़ हर पाद, नगर गांव बलात्कारी ।।
गली गली में भेडि़या, नोचें बेटी मांस को ।
जीवित होकर लाश हैं, बेटी सह इस त्रास को ।।
.................
मौलिक अप्रकाशित
Added by रमेश कुमार चौहान on June 5, 2014 at 3:00pm — 14 Comments
जिया जरे दिन रात हे पीऊ
तड़प के रात बिताऊं
----------------------------------
भोर उठूँ जब बिस्तर खाली
गहरी सांस ले मन समझाऊँ
दुल्हन जब कमरे से झाँकू
पल-पल नैन मिलाती
अब हर आहट बाहर धाती
'शून्य' ताक बस नैन भिगोती
फफक -फफक मै रो पड़ती पिय !
फिर जी को समझाती
जी की शक्ति आधी होती
दुर्बल काया कैसे दिवस बिताऊं ?
जिया जरे दिन रात हे पीऊ
तड़प के रात…
Added by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on June 5, 2014 at 1:30pm — 16 Comments
2122 2122 2122 22
मैं कभी तुझसे बिछुड़ने का न मंजर देखूँ
मछलियों से ना कभी ख़ाली समंदर देखूँ
कब जमीं आकाश दोनों इस जहाँ में मिलते
मैं ये संगम तो सदा दिल के ही अन्दर देखूँ
हर सितारा तेरी किस्मत का बुलंदी पर हो
मैं न कोई हार से टूटा सिकंदर देखूँ
झेल लूँ मैं वार खुद तेरी परेशानी के
जीस्त में गड़ता हुआ ग़म का न खंजर देखूँ
जिंदगी में काश कोई दिन न आये…
ContinueAdded by rajesh kumari on June 5, 2014 at 10:58am — 29 Comments
जिन्होंने रास्तों पर खुद कभी चलकर नहीं देखा
वही कहते हैं हमने मील का पत्थर नहीं देखा
.
मिलाकर हाँथ अक्सर मुस्कुराते हैं सियासतदाँ
छिपा क्या मुस्कराहट के कभी भीतर नहीं देखा
.
उन्हें गर्मी का अब होने लगवा अहसास शायद कुछ
कई दिन हो गए उनको लिए मफलर नहीं देखा
.
सड़क पर आ गई थी पूरी दिल्ली एक दिन लेकिन
बदायूं को तो अब तक मैंने सड़कों पर नहीं देखा
.
फ़क़त सुनकर तआर्रुफ़ हो गया कितना परेशां वो
अभी तो उसने मेरा कोई भी तेवर नहीं…
Added by Rana Pratap Singh on June 5, 2014 at 10:26am — 19 Comments
Added by विजय मिश्र on June 5, 2014 at 9:51am — 25 Comments
2122 1212 22/112
मुल्क़ में किस्सा इक नया तो हो
अब अज़ीयत की इंतिहा तो हो अज़ीयत =यातना
ग़म से किसको मिली नजात यहाँ
मर्ज़ कहते हो फिर दवा तो हो
जी उठेगा फिर अपनी राख से पर
वो मुकम्मल अभी जला तो हो
दीनो-ईमाँ की बात करते हैं
हो हरम दिल में बुतकदा तो हो हरम =मस्जिद, बुतकदा =मंदिर
ज़ह्र अपनी ज़बान से छूकर
कह रहे हैं कि तज़्रिबा तो…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on June 4, 2014 at 9:32pm — 24 Comments
लकीरें गहरी हो गयी है ,
बुधुआ मांझी के माथे की .
स्याह तल पर उभर आये कई खारे झील .
सिमट गया है आकाश का सारा विस्तार
उसके आस पास.
दुनियां हो गयी है दो हाथ की.
मिट्टी का घर, छोटे बच्चे, बैल, बकरियां और
खेत का छोटा सा टुकड़ा
इससे आगे है एक मोटी दीवार
बिना खेत और घर के कैसे जियेगा?
इससे जुदा क्या दुनियां हो सकती है ?
उनकी जमीन के नीचे ही क्यों निकलता है कोयला ?
पर वह किस पर करे…
ContinueAdded by Neeraj Neer on June 4, 2014 at 7:57pm — 16 Comments
गा कोयल गा...
गीत प्रेम के
गा कोयल.....
मन के सुप्त तारों को जगा.
प्रकृति के वक्ष के आर-पार
अनु विस्फ़ोटक के सप्त स्वर में
अपनी गायन शक्ति भर
तीव्र सुर में गा कोयल......
ग्रीष्म की तपती धूप है
कर बादलों का आह्वान
बादल कुछ ऐसा बरसे
तरल हो धरती का कण-कण
निकले सीप से मोती
सुख-समृद्धि की बरसात हो
गा कोयल.....
बनी रहे आम्रतरु की जड़ें
वसंत में मंजरी खिली रहे
मिटे घर घर से मौत की…
Added by coontee mukerji on June 4, 2014 at 6:08pm — 10 Comments
वो नदी जो गिरि
कन्दराओं से निकल
पत्थरों के बीच से
बनाती राह
कितनो की मैल धोते
कितने शव आँचल मे लपेटे
अन्दर कोलाहल समेटे
अपने पथ पर,
कोई पत्थर मार
सीना चीर देता
कोई भारी चप्पुओं से
छाती पर करता प्रहार
लगातार,
सब सहती हुई
राह दिखाती राही को
तृप्त करती तृषा सब की
अग्रसर रहती अनवरत
तब तक, जब तक खो न…
ContinueAdded by Meena Pathak on June 4, 2014 at 12:58pm — 22 Comments
समय के पाँव भारी हैं इन दिनों !
संसद चाहती है -
कि अजन्मी उम्मीदों पर लगा दी जाय बंटवारे की कानूनी मुहर !
स्त्री-पुरुष अनुपात, मनुस्मृति और संविधान का विश्लेषण करते -
जीभ और जूते सा हो गया है समर्थन और विरोध के बीच का अंतर !
बढती जनसँख्या जहाँ वोट है , पेट नहीं !
पेट ,वोट ,लिंग, जाति का अंतिम हल आरक्षण ही निकलेगा अंततः !
हासिए पर पड़ा लोकतंत्र अपनी ऊब के लिए क्रांति खोजता है
अस्वीकार करता है -
कि मदारी की जादुई…
ContinueAdded by Arun Sri on June 4, 2014 at 10:30am — 10 Comments
2122 2122 2
दिन टपक के सूख जाता है
हाथ में कुछ भी न आता है
मै पराया , वो पराया है
कौन किसमें अब समाता है ?
ग़म हक़ीक़ी भी मजाज़ी भी
देख किसको कौन भाता है
दर्द मै अपना दबा भी लूँ
ग़म तुम्हारा पर रुलाता है
खार चुभते जो रिसा था ख़ूँ
रास्ता वो अब दिखाता है
सूर्य तो ख़ुद जल रहा यारों
वो किसी को कब जलाता है
ख़्वाबों में आ आ के शिद्दत…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on June 4, 2014 at 9:39am — 22 Comments
Added by Zaif on June 3, 2014 at 9:01pm — 8 Comments
दरिया रहा कश्ती रही लेकिन सफर तन्हा रहा
हम भी वहीं तुम भी वहीं झगड़ा मगर चलता रहा
साहिल मिला मंजिल मिली खुशियां मनीं लेकिन अलग
खामोश हम खामोश तुम फिर भी बड़ा जलसा रहा
सोचा तो था हमने, न आयेंगे फरेबे इश्क में
बेइश्क दिल जब तक रहा इस अक्ल पर परदा रहा
शिकवे हुए दिल भी दुखा दूरी हुई दोनों में पर
हर बात में हो जिक्र उसका ये बड़ा चस्का रहा
छाया नशा जब इश्क का 'चर्चित' हुए कु्छ इस कदर
गर ख्वाब में…
Added by VISHAAL CHARCHCHIT on June 3, 2014 at 2:30pm — 13 Comments
२१२२, २१२२,२१२२, २१२२
क्या सुनाऊं दोस्त तुझको ज़िन्दगानी की कहानी,
चार सू तूफ़ान हैं और अपनी कश्ती बादबानी.
***
जब मिले पहले पहल तुम, ख्व़ाब थे रंगीन सारे,
सुर्ख आँखें हैं मेरी उस दौर की ज़िन्दा निशानी.
***
याद की इन आँधियों में दिल बिखर जाता है ऐसे,
जिल्द फटने पर बिखरती डायरी जैसे पुरानी.
***
देर तक रोता रहा क़ातिल मेरा, मैंने कहा जब,
जान तू ले ले मेरी तो होगी तेरी मेहरबानी.
***
खो गए है हर्फ़ सारे, बुझ गए…
Added by Nilesh Shevgaonkar on June 3, 2014 at 11:00am — 31 Comments
[1]
पूजनीय हैं माँ-पिता, सदा करो सम्मान ।
जीवन दाता है यही, खुदा यही भगवान ॥
खुदा यही भगवान, धर्म निज खूब निभाते ।
संतानों को पाल - पोस कर नेह लुटाते ॥
मन से दो तुम मान सदा ये बंदनीय है ।
करें अहेतुक प्यार हमारे पूजनीय हैं ॥
[2]
माया छलना मोहती , धारे रूप अनेक ।
केवल माला फेरता, कैसे हो तू नेक ॥
कैसे हो तू नेक, फंसाए तुझको माया ।
जाल बिछा हर ओर उलझती जाती काया ॥
मानो …
ContinueAdded by annapurna bajpai on June 2, 2014 at 11:30pm — 14 Comments
मैं मूक बन जाती हूँ …।
नहीं, अब मैं इस गहन तम में नभ को न निहारूंगी
अपनी अभिलाषाओं को तम के गहन गर्भ में दबा दूंगी
दर्द की नमी को पलकों में ही दफना दूंगी
अपने गिले -शिकवों का बवंडर अपने दिल के किसी कोने में छुपा लूंगी
कितना विशवास था
तुम तो मेरे हृदय की टीस को पहचानोगे
यौवन की दहलीज़ पर पाँव रखते ही
हर निशा मैं तुम्हें निहारती थी
शशांक मेरे पागलपन पर मुस्कुराता था
पवन मुझे…
Added by Sushil Sarna on June 2, 2014 at 12:39pm — 18 Comments
ना रंग, ना रूप
ना छाया, ना धूप
ना ख्वाहिश, ना सपने
ना पराये, ना अपने
खाली धरती, सूना आसमाँ
ना चाहत कोई, ना अरमाँ
ना ख़ुशी, ना, कोई गम
ना सब, ना तुम, ना हम
चाबी भरा, एक जिन्दा खिलौना
हँसता मुस्कुराता ख्वाब सलोना
बोझ सी साँसें, बोझिल आँखें
कुछ सुनी, कुछ अनसुनी बातें
हिलत, डुलती, नाचती चमड़ी
जाला बुनती, वक़्त की मकड़ी
चलता सफ़र थकती साँसें
अश्क़ भरी, मुस्कुराती आँखें
फ़र्ज़ के बंधन, रूह…
ContinueAdded by RACHNA JAIN on June 2, 2014 at 11:07am — 3 Comments
कुछ नई सी बात है
आज सुरमई प्रभात है
उम्मीद नहीं विश्वास है
एक अच्छी शुरुवात है
एक पग आगे बढ़ा
कोटि पग भी बढ़ चले
हाथों से हाथ मिले
दिलों के तार जुड़ते चले
ये भी जज्बात है
एक अच्छी शुरुवात है……….
जैसे छिप गया हो तम
अँधेरे की बौछार से
नवल कोंपलें खिल उठीं
बसंत की पुकार से
प्रकॄति की सौगात है
एक अच्छी शुरुवात है………….
हौसलों की उड़ान भर
उद्धमी मन थकता नहीं
असंभव को संभव…
ContinueAdded by Maheshwari Kaneri on June 1, 2014 at 7:49pm — 12 Comments
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