(कल्पना करे कि यह पत्र छोटे भाई को तब मिला जब बड़े भाई की मृत्यु हो चुकी थी i
प्रिय जी. एन.
मै तुमसे कुछ मन की बाते करना चाहता था i पर तुम नहीं आये I तुम अगर मेरे मन की हालत समझ पाते तो शायद ऐसा नहीं करते I अब तुम्हारे आने की उम्मीद मुझे नहीं जान पड़ती I इसीलिये यह पत्र लिख रहा हूँ I अगर कोई बात अनुचित लगे तो मुझे क्षमा कर देना I
मेरे भाई, आज हम जीवन के उस मोड़ पर पहुँच चुके हैं, जहा से आगे का जीवन उतना भी बाकी नहीं है जितना हम अब तक भोग आये हैं I इस…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 26, 2014 at 5:00pm — 15 Comments
“ अरे! बेटा..तैयार हो रहे हो. अगर बाहर तक जा रहे हो तो अपने पिता कि दवाई ले आओ, कल कि ख़त्म हुई है”
“ अरे! यार मम्मी!! मैं जब भी बाहर निकलता हूँ , आप टोंक देती हो. आपको पता है न, हमारी पूरी एन.जी.ओ. की टीम पिछले हफ्ते से गरीब और असहाय लोगों कि सहायता के लिए गाँव-गाँव घूम रही है. शायद ! आप जानती नही हो, अभी मेरी सबसे बढ़िया प्रोग्रेस है पूरी टीम में ”
जितेन्द्र ‘गीत’
(मौलिक व् अप्रकाशित)
Added by जितेन्द्र पस्टारिया on July 26, 2014 at 1:30pm — 26 Comments
इक ज़माना हो जाता है …
आदमी
कितना छोटा हो जाता है
जब वो पहाड़ की
ऊंचाई को छू जाता है
हर शै उसे
बौनी नज़र आती है
मगर
पाँव से ज़मीं
दूर हो जाती है
उसके कहकहे
तन्हा हो जाते हैं
लफ्ज़ हवाओं में खो जाते हैं
हर अपना बेगाना हो जाता है
ऊंचाई पर उसकी जीत
अक्सर हार जाती है
वो बुलंदी पर होकर भी
खुद से अंजाना हो…
Added by Sushil Sarna on July 26, 2014 at 1:00pm — 12 Comments
कँपकपी
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तुम कौन हो भाई ?
जो शीत से कँपकपाती मेरी देह की कँपकपी को झूठी बता रहे हो
शीत एक सत्य की तरह है
और कंपकपी मेरी देह पर होने वाला असर है
शीत-सत्य पर मेरा अर्जित अनुभव , व्यक्तिगत , सार्वभौमिक तो नहीं न
क्या तुम्हारे माथे पर उभर आयीं पसीने की बून्दें भी झूठी है
क्या मैने ऐसा कहा कभी ?
ये तुम्हारा व्यक्तिगत अनुभव है , इस मौसमी सच की आपकी अपनी अनुभूति
तुम्हारी देह की प्रतिक्रिया पसीना है , तो है , इसमे…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on July 26, 2014 at 12:00pm — 9 Comments
खेती - किसानी -दोहे //प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा //
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मौसम फसल खरीफ का पानी की दरकार
खेतों में पानी नही सोती है सरकार
खेती खुद करना भली जानत है सब कोय
बटाई में जबहि दिये फल मीठा नहि होय
फसल समय से बोइये ध्यान से सुने बात
बढ़िया फसल होय सदा सुखी रहो दिन रात
खाद संतुलित डालिये मिट्टी जाँच कराय
बंजर भूमि नही बने इसका यही उपाय
खेत सुरक्षित रहे सदा चिंता करें न…
Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on July 25, 2014 at 1:30pm — 4 Comments
गाड़ी रुकते ही सामने से एक छोटी बच्ची अपने पीठ पर भाई को टांगे हुए लपकी । "बाबूजी , कुछ दे दो ना , भाई को भूख लगी है" , सुनते ही एक पल को तो दया आई लेकिन फिर न जाने क्यों क्रोध आ गया । "तुम लोग भी , इतनी कम उम्र में भीख मांगने लगते हो , पता नहीं कैसे माँ बाप हैं जो पैदा करके इनको सड़क पर छोड़ देते हैं"।
" चल बाबू , ये साहब भी भाषण ही देंगे , कुछ और नहीं दे सकते" और वो दूसरे गाड़ी की ओर बढ़ गयी ।
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by विनय कुमार on July 25, 2014 at 1:41am — 5 Comments
ये तो गूंगों की नगरी है भैया जी
सरकार हमारी बहरी है भैया जी
दंगों में दोस्त दोस्त क्यों मरते हैं
प्यार मुहब्बत भी बकरी है भैया जी
राजा को वनवास कहाँ अब मिलता है
आस लगाये अब शबरी है भैया जी
दिखावटी का अफ़सोस जताता है वो
वो शख्स बड़ा ही शहरी है भैया जी
कुछ खत जले कहीं जब शहनाई गूँजी
आशिक की डूबी गगरी है भैया जी
मौलिक व अप्रकाशित
गुमनाम पिथौरागढ़ी
Added by gumnaam pithoragarhi on July 24, 2014 at 10:00pm — 8 Comments
क्यों होती बेटियाँ
थोड़ी पराईं सी ?
होती हैं बेटियाँ
माँ की परछाईं सी।
घर से वो निकलें जब
थोड़ा सा सहम-सहम
करती वो गलती बुरे
लोगों पर रहम कर
क्यों होती बेटियाँ
थोड़ी पछताईं सी?
जग करता मुश्किल
उनकी हर राहें
करतीं हैं पीछा शातिर निगाहें
क्यों होतीं बेटियाँ
तोड़ीं घबराईं सी ?
पैरों में उनके रिश्तों की पायल
तानें देके सभी करते हैं घायल
क्यों होती…
ContinueAdded by kalpna mishra bajpai on July 24, 2014 at 8:30pm — 4 Comments
धूप
जिधर देखो आज
धुन्धलाइ सी है धूप.
न जाने आज क्यों?
कुम्हलाई सी है धूप.
आसमाँ के बादलों से
भरमाई सी है धूप.
पखेरूओं की चहचाहट से
क्यों बौराई सी है धूप?
पेड़ों की छाँव तले
क्यों अलसाई सी है धूप?
चैत के माह में भी
बेहद तमतामाई सी है धूप.
हवाओं की कश्ती पर सवार
क्यों आज लरज़ाई सी है धूप?
"मौलिक व…
ContinueAdded by Veena Sethi on July 24, 2014 at 5:30pm — 8 Comments
11212 11212 11212 11212
न तो आँधियाँ ही डरा सकीं , न ही ज़लजलों का वो डर रहा
तेरे नाम का लिये आसरा , सभी मुश्किलों से गुजर रहा
न तो एक सा रहा वक़्त ही , न ही एक सी रही क़िस्मतें
कभी कहकहे मिले राह में , कभी दोश अश्कों से तर रहा
कोई अर्श पे जिये शान से , कहीं फर्श भी न नसीब हो
कहीं फूल फूल हैं पाँव में , कोई आग से है गुज़र रहा
तेरी ज़िन्दगी मेरी ज़िन्दगी , हुआ मौत से जहाँ सामना
हुआ हासिलों…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on July 24, 2014 at 2:30pm — 22 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on July 24, 2014 at 10:55am — 14 Comments
सावन के झूलों ने मुझको बुलाया
डॉ० ह्रदेश चौधरी
मदमस्त चलती हवाएँ, और कार में एफएम पर मल्हार सुनकर पास बैठी मेरी सखी साथ में गाने लगती है “सावन के झूलों ने मुझको बुलाया, मैं परदेशी घर वापिस आया”। गाते गाते उसका स्वर धीमा होता गया और फिर अचानक वो खामोश हो गयी, उसको खामोश देखकर मुझसे पूछे बिना नहीं रहा गया। वो पुरानी यादों में खोयी हुयी सी मुझसे कहती है कहाँ गुम हो गए सावन में पड़ने वाले झूले, एक…
ContinueAdded by DR. HIRDESH CHAUDHARY on July 23, 2014 at 7:30pm — 8 Comments
१२२ १२२ १२२ १२
जहाँ गलतियाँ हों बता दें मेरी
चुभें ये अगर साफ़ बातें मेरी
तुम्हें जिन्दगी दी तो हक़ भी मिला
तुम्हारे कदम पे निगाहें मेरी
हर इक मोड़ पर तुम मुझे पाओगे
नहीं हैं जुदा तुमसे राहें मेरी
तुम्हें नींद आती नहीं है अगर
कहाँ फिर कटेंगी ये रातें मेरी
छुपा क्या सकोगे जबीं की शिकन
हमेशा पढ़ेंगी ये आँखें मेरी
तुम्हारी हिफ़ाज़त करूँ जब तलक
चलेंगी तभी तक…
ContinueAdded by rajesh kumari on July 23, 2014 at 11:30am — 17 Comments
Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on July 23, 2014 at 9:30am — 18 Comments
"ये क्या मम्मी , फिर आपने इस ठेले वाले से सब्ज़ी खरीद ली । कितनी बार कहा है की सामने वाले शॉपिंग माल से ले लिया करो । सब्ज़ियाँ ताज़ी भी मिलती हैं और अच्छी भी । क्या मिलता है आपको इसके पास"।
"बेटा , इसकी सब्ज़ी में अपनापन है और उसमे जो स्वाद मिलता है न वो और कहीं नहीं मिलता"।
मौलिक एवँ अप्रकाशित
Added by विनय कुमार on July 23, 2014 at 3:00am — 12 Comments
वह लड़की!
मैं उसे बदलना चाहती थी
उसे पुराने खोह से निकालकर
पहनाना चाहती थी एक नया आवरण.
उसके बाल लम्बे होते थे
अरण्डी के तेल से चुपड़ी
भारी गंध से बोझिल
वह ढीली-ढाली सलवार पहनती थी
वह उस में नाड़ा लगाती थी
उसके नाखून होते थे मेँहदी से काले
एकाध बार सफ़ेद किनारा भी दिख जाता.
वह चलती थी सर झुकाये.
वह चुप रहती
मगर....उसके मन में सागर की लहरों
का सा होता घोर गर्जन.
आँखों में हरदम एक तूफ़ान लरजता
उसकी…
Added by coontee mukerji on July 22, 2014 at 9:12pm — 10 Comments
२१२२ १२२२ २
झोपड़ी को डुबाने निकले
सारे बादल दिवाने निकले
खेत घर हो गए बंजर से
बच्चे बाहर कमाने निकले
द्रोपदी सी प्रजा है बेबस
जब से राजा ये काने निकले
आदमी भूल आदम की पर
पाक खुद को बताने निकले
जब्त गम को किया तब हम भी
इस जहां को हँसाने निकले
माँ को खोया तो समझा मैंने
हाथ से जो खजाने निकले
मौलिक व अप्रकाशित
गुमनाम पिथौरागढ़ी
Added by gumnaam pithoragarhi on July 22, 2014 at 7:00pm — 10 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on July 22, 2014 at 1:16pm — 14 Comments
रीति संप्रदाय पर चर्चा करने से पूर्व यह स्पष्ट कर देना समीचीन होगा कि भारतीय हिन्दी साहित्य के रीति-काल में प्रयुक्त ‘रीति’ शब्द से इसका कोई प्रयोजन नहीं है I रीति-काल में लक्षण ग्रंथो के लिखने की एक बाढ़ सी आयी, जिसके महानायक केशव थे और इस स्पर्धा में कवियों के बीच आचार्य बनने की होड़ सी लग गयी I परिणाम यह हुआ कि अधिकांश कवि स्वयंसिद्ध आचार्य बने और कोई –कोई कवि न शुद्ध आचार्य रह पाए और न कवि I इस समय ‘रीति ‘ शब्द का प्रयोग काव्य शास्त्रीय लक्षणों के लिए हुआ I किन्तु, जिस रीति संप्रदाय की…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 22, 2014 at 11:30am — 17 Comments
सामाजिक सुरक्षा को तरसे
एकल परिवारों में जो पले,
आर्थिक सुरक्षा और -
स्नेह भाव मिले
संयुक्त परिवार की ही
छाया तले |
घर परिवार में
हर सदस्य का सीर
बुजुर्ग भी होते भागीदार,
बच्चो की परवरिश हो,
संस्कार या व्यवहार |
अभिभावक व माता पिता
जताकर समय का अभाव
नहीं बने
अपराध बोध के शिकार,
संयुक्त परिवार तभी
रहे और चले |
प्रतिस्पर्था से भरी
सुरसा सामान…
ContinueAdded by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 22, 2014 at 10:30am — 10 Comments
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