उडी पतंग
छूट गयी जो डोर
कटी पतंग ।
कोख में मारा
बेटी को, जन्मे कैसे
कोई भी लाल ।
मेघों की दौड़
थक कर चूर, तो
बरसें कैसे ।
इच्छा किनारा
ज़िन्दगी की नदी में
आशा की नाव
संसार सार
जीवन है, सब हैं
शेष नि:स्सार
... मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Neelam Upadhyaya on July 19, 2018 at 4:00pm — 9 Comments
बड़े जतन से सिले थे’ माँ ने, वही बिछौने ढूँढ रहा हूँ
ढूँढ रहा हूँ नटखट बचपन, खेल-खिलौने ढूँढ रहा हूँ
नदी किनारे महल दुमहले, बन जाते थे जो मिनटों में
रेत किधर है, हाथ कहाँ वो नौने-नौने ढूँढ रहा हूँ
विद्यालय की टन-टन घंटी, गुरुवर के हाथों में…
ContinueAdded by बसंत कुमार शर्मा on July 18, 2018 at 5:30pm — 17 Comments
क्षणिका - तूफ़ान ....
शब्
सहर से
उलझ पड़ी
सबा
मुस्कुराने लगी
देख कर
चूड़ी के टुकड़ों से
झांकता
शब् की कतरनों में
उलझता
सुलझता
जज़्बात का
तूफ़ान
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on July 18, 2018 at 2:17pm — 6 Comments
एक लम्हा ....
मेरे लिबास पर लगा
सुर्ख़ निशान
अपनी आतिश से
तारीक में बीते
लम्हों की गरमी को
ज़िंदा रखे था
मैंने
उस निशाँन को
मिटाने की
कोशिश भी नहीं की
जाने
वो कौन सा यकीन था
जो हदों को तोड़ गया
जाने कब
मैं किसी में
और कोई मुझमें
मेरा बनकर
सदियों के लिए
मेरा हो गया
एक लम्हा
रूह बनकर
रूह में कहीं
सो गया
सुशील सरना
मौलिक एवं…
Added by Sushil Sarna on July 18, 2018 at 12:25pm — 13 Comments
(फाइ ला तुन _फाइ ला तुन _फाइ ला तुन _फाइ लु न)
हम अगर राहे वफ़ा में कामरां हो जाएँगे l
सारी दुनिया के लिए इक दास्तां हो जाएँगे l
आप ने हम को ठिकाना गर न कूचे में दिया
हम भरी दुनिया में बे घर जानेजाँ हो जाएँगे l
बे रुखी जारी रही फूलों से गर यूँ ही तेरी
खार भी तेरे मुखालिफ बागबां हो जाएँगे l
जैसे हम बचपन में मिलते थे किसे था यह पता
मिल नहीं पाएंगे वैसे जब जवां हो जाएँगे l
ज़िंदगी में इस तरह आएंगे…
ContinueAdded by Tasdiq Ahmed Khan on July 18, 2018 at 7:30am — 17 Comments
हिचक--
"कभी बेटे को भी गले से लगा लिया कीजिये, वह भी आपके सीने से लगकर कुछ देर रहना चाहता है", रिमी ने गहरी सांस लेते हुए कहा. रमन को सुनकर तो अच्छा लगा लेकिन वह उसे दर्शाना नहीं चाहता था.
"ठीक है, इससे क्या फ़र्क़ पड़ जायेगा. वैसे भी तुम तो जानती हो कि मैं इन सब दिखावों में नहीं पड़ता", रमन ने अपनी तरफ से पूरी लापरवाही दिखाते हुए कहा. अंदर ही अंदर वह जानता था कि इसकी कितनी जरुरत है आजकल के माहौल में, लेकिन एक हिचक थी जो उसे रोकती थी.
"फ़र्क़ पड़ता है, आखिर उसके अधिकतर दोस्त तो अपने…
Added by विनय कुमार on July 17, 2018 at 6:58pm — 12 Comments
क्षणिका :विगत कल
दिखते नहीं
पर होते हैं
अंतस भावों की
अभियक्ति के
क्षरण होते पल
कुछ अनबोले
घावों के
तम में उदित होते
द्रवित
विगत कल
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on July 17, 2018 at 6:50pm — 5 Comments
समाज - लघुकथा –
गौरीशंकर जी की आँख खुली तो अपने आप को शहर के सबसे बड़े अस्पताल के वी आई पी रूम में पाया। उनकी तीस जून को रिटायरमेंट थी। सारा विद्यालय तैयारी में लगा था क्योंकि वे विद्यालय के लोकप्रिय हैड मास्टर जो थे।
"कैसे हो मित्र"? उनके परम मित्र श्याम जी ने प्रवेश किया।
"भाई, मैं यहाँ कैसे"?
"कोई खास बात नहीं है? रिटायरमेंट वाले दिन मामूली सा अटैक आया था| चक्कर आये थे। बेहोश हो गये थे"?
"यार, मुझे तो कभी कोई शिकायत नहीं थी"?
"अरे यार कुछ बातें…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on July 17, 2018 at 11:24am — 10 Comments
(1) बूँदें नहीं
चाँदी के सिक्के गिरते हैं
बादलों की झोली से
और धरती लूट लेती है ।
*******
(2) वर्षा कुबेर
दोनों हाथों से लुटाता है
वर्षा -धन
नदियाँ, सरोवर और तालाब
लूटकर संग्रहित कर लेते हैं ।
*******
(3) बारिश की आत्मकथा
साल भर लिखते रहते हैं
पेड़-पौधे और हरियाली ।
*******
(4) बारिश की बूँदें
नई धुनें
तैयार करने लगती है
राग-मल्हार के लिए ।
*******
(5) बारिश का
अहसास कब होता है ?
जब…
Added by Mohammed Arif on July 17, 2018 at 8:36am — 27 Comments
कई दिनों से तलाश रहा हूँ
एक भूली हुई डायरी
कुछ कहानियाँ
जो स्मृतियों में धुंधली हो गई हैं |
कई सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद
मुड़ कर देखता हूँ
कदमों के निशान
जो ढूढें से भी नहीं मिलते हैं |
कामयाबी के बाद बाँटना चाहता हूँ
हताशा और निराशा
के वो किस्से
जो रहे हैं मेरी जिंदगी के हिस्से |
पर उसे सुनने का वक्त
किसी पे नहीं है
और ये सही है की
नाकामयाबी सिर्फ अपने हिस्से की चीज़ है…
ContinueAdded by somesh kumar on July 17, 2018 at 8:30am — 1 Comment
खरा सोना - लघुकथा –
आज मेरा अखबार नहीं आया था तो सुबह नाश्ते के बाद अपने मित्र जोगिंदर सिंह के घर अखबार पढ़ने की गरज़ से टहलते टहलते पहुँच गया।
जैसे ही लोहे का गेट खोल कर अंदर घुसा तो देखा कि जोगिंदर का बेटा धूप में खड़ा किताब पढ़ रहा था।
मैं उससे इसकी वज़ह पूछने ही वाला था कि जोगिंदर ने आवाज़ लगा दी,"आजा भाई मलिक, क्या सही वक्त पर आया है। चाय आ रही है"।
मैंने कुर्सी जोगिंदर के पास खींचते हुए पूछा,"भाई, यह तेरा छोरा इतनी तेज़ धूप में क्यों पढ़ रहा है। इससे क्या दिमाग तेज़…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on July 16, 2018 at 10:14pm — 16 Comments
जिंदगी यूँ तो लौट आएगी
पटरी पर
पर याद आएगा सफ़र का
हर मोड़
कुछ गडमड सड़कों के
हिचकोले
कुछ सपाट रस्तों पर बेवजह
फिसलना
और वक्त-बेवक्त तेरा
साथ होना |
याद आएगा एक पेड़
घना छाँवदार
जिसके आसरे एक पौधा
पेड़ बना |
मौसमों की हर तीक्ष्णता का
सह वार
पौधे को सदा दिया
ओट प्यार |
निश्चय ही मौसम बदलने से
होगा कुछ अंकुरित
पर वो रसाल है मेरी जड़ो…
ContinueAdded by somesh kumar on July 16, 2018 at 10:30am — 6 Comments
मापनी - 2122 2122 2122 212
जिन्दगी में ख्वाब कोई तो मचलना चाहिए
गर लगी ठोकर तो’ क्या, फिर से सँभलना चाहिए
सीखना ही जिन्दगी है उम्र का बंधन कहाँ
लोग बदलें या न बदलें, खुद बदलना चाहिए…
Added by बसंत कुमार शर्मा on July 16, 2018 at 9:30am — 12 Comments
उमड़-घुमड़ बदरा नभ छाये,
नाचें वन में मोर.
बाट जोहते भीगीं अँखियाँ,
आ भी जा चितचोर.
तेज हवा के झोंके आकर,
खोल गए खिड़की.
तभी कडकती बिजली ने भी,…
ContinueAdded by बसंत कुमार शर्मा on July 14, 2018 at 8:44pm — 10 Comments
अपने इस मुकाम पर वह अब अपनी डायरी और फोटो-एलबम के पन्ने पलट कर आत्मावलोकन कर रही थी।
"सांस्कृतिक परंपरागत रस्म-ओ-रिवाज़ों को निबाहती हुई मैं सलवार-कुर्ते-दुपट्टे से जींस-टॉप के फैशन की चपेट में आई और फिर आधुनिक कसी पोशाकों को अपनाती हुई वाटर-पार्क व स्वीमिंगपूलों के लुत्फ़ लेती हुई अत्याधुनिक स्वीमिंग सूट तक पहुंच ही गई!" तारीख़ों पर नज़रें दौड़ाती हुई एक आह सी भरती हुई उसने अपनी आपबीती पर ग़ौर फ़रमाते हुए अपने आप से कहा - "ओह, धन-दौलत और नाम कमाने की लालच में फैशनों का अंधानुकरण…
ContinueAdded by Sheikh Shahzad Usmani on July 14, 2018 at 7:27pm — 8 Comments
अस्तित्व की शाखाओं पर बैठे
अनगिन घाव
जो वास्तव में भरे नहीं
समय को बहकाते रहे
पपड़ी के पीछे थे हरे
आए-गए रिसते रहे
कोई बात, कोई गीत, कोई मीत
या…
ContinueAdded by vijay nikore on July 14, 2018 at 5:36pm — 22 Comments
हार ....
ज़ख्म की
हर टीस पर
उनके अक्स
उभर आते हैं
लम्हे
कुछ ज़हन में
अंगार बन जाते हैं
उन्स में बीती रातें
भला कौन भूल पाता है
ख़ुशनसीब होते हैं वो
जो
बाज़ी जीत के भी
हार जाते हैं
उन्स=मोहब्बत
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on July 13, 2018 at 6:41pm — 13 Comments
221 2121 1221 212
इन्साफ का हिसाब लगाया करे कोई।
होता कहीं तलाक़ हलाला करे कोई।।
उनको तो अपने वोट से मतलब था दोस्तों ।
जिन्दा रखे कोई भी या मारा करे कोई।।
मजहब को नोच नोच के बाबा वो खा गया ।
बगुला भगत के भेष में धोका करे कोई ।।
लूटी गई हैं ख़ूब गरीबों की झोलियाँ ।
हम से न दूर और निवाला करे कोई ।।
सत्ता में बैठ कर वो बहुत माल खा रहा ।
यह बात भी कहीं तो उछाला करे कोई ।।
आ जाइये हुजूर जरा अब ज़मीन…
ContinueAdded by Naveen Mani Tripathi on July 13, 2018 at 2:20pm — 15 Comments
2122---1212---22
ख़ुद-परस्ती का दायरा क्या था
मैं ही मैं था, मेरे सिवा क्या था
.
झूठ बोला तो बच गई गरदन
हक़-बयानी का फ़ाएदा क्या था
.
चाह मंज़िल की थी निगाहों में
ठोकरें क्या थीं आबला क्या था
.
पर निकलते ही थे उड़े ताइर !
ये रिवायत थी, सानेहा क्या था
.
दर्द, ग़ुस्सा, मलाल, मजबूरी
आख़िर उस चश्मे-तर में क्या क्या था
.
क्यों मैं बर्बादियों का सोग करूँ
जब मैं आया, यहाँ मेरा क्या…
Added by दिनेश कुमार on July 13, 2018 at 12:30am — 14 Comments
2122 2122 2122 212
तोड़ डाला खुद को तेरी आशिकी के रोग में नहीं
तुम नहीं लिक्खे थे मेरी कुंडली के योग में
अब तेरी तस्वीर दिल से मिट गई है इस तरह
जैसे ईश्वर को भुला डाले कोई भवरोग में
तेरे ग़म की,इश्क़ की मूरत थी मुझमें,ढह गई
आ नहीं सकती ये मिट्टी अब किसी उपयोग में
मिल गया,कुछ खो गया, कुछ मिलके भी खोया रहा
साथ थी तक़दीर भी जीवन के हर संयोग में
चैन तेरे इश्क़ के बिन मिल नही पाया कहीं
तेरे ग़म में जो…
Added by मनोज अहसास on July 12, 2018 at 10:30pm — 13 Comments
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