"लो! एक और गया! .. बह गया बेचारा!"
"वो देखो! एक तो अब आ गया न!" आशावादी दृष्टिकोण वाले युवक ने तेज बहाव वाले जलप्रपात के किनारे वाली चट्टान पर खड़ी भीड़ से आसमान की ओर देखते हुए कहा। रेस्क्यू ऑपरेशन में भेजे गये इकलौते चॉपर हेलिकॉप्टर से लगभग चालीस लोगों को जलसमाधि से बचाना था। घने काले बादलों के अंधकार और रुक-रुक कर हो रही बारिश को झेलते हुए रेस्क्यू दल-सदस्य 'रस्सी की सीढ़ी' से पार्वती नदी के बीच चट्टान में फंसे चार-पांच युवाओं को ही बचाने में सफल हुए। क़रीब तीन सौ मीटर दूर किनारे…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on August 15, 2018 at 10:30pm — 4 Comments
स्वतंत्रता दिवस पर ३ रचनाएं :
एक चौराहा
लाल बत्ती
एक हाथ में कटोरा
भीख का
एक हाथ में झंडा बेचता
कागज़ का
न भीख मिली
न झंडा बिका
कैसे जलेगा
चूल्हा शाम का
क्या यही अंजाम है
वीरों के बलिदान का
सुशील सरना
.... .... ..... ..... ..... ..... ....
हाँ
हम आज़ाद हैं
अब अंग्रेज़ नहीं
हम पर
हमारे शासन करते हैं
अब हंटर की जगह
लोग
आश्वासनों से
पेट भरते हैं
महंगाई,भ्रष्टाचार
और…
Added by Sushil Sarna on August 15, 2018 at 1:00pm — 14 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on August 15, 2018 at 9:59am — 8 Comments
1222 1222 1222 1222
बड़ी उम्मीद थी उनसे वतन को शाद रक्खेंगे ।
खबर क्या थी चमन में वो सितम आबाद रक्खेंगे ।।
है पापी पेट से रिश्ता पकौड़े बेच लेंगे हम।
मगर गद्दारियाँ तेरी हमेशा याद रक्खेंगे ।।
हमारी पीठ पर ख़ंजर चलाकर आप तो साहब ।
नये जुमले से नफ़रत की नई बुनियाद रक्खेंगे ।।
विधेयक शाहबानो सा दिये हैं फख्र से तोहफा ।
लगाकर आग वो कायम यहां उन्माद रक्खेंगे ।।
इलक्शन आ रहा है दाल गल जाए न फिर उनकी।
तरीका…
Added by Naveen Mani Tripathi on August 14, 2018 at 8:06pm — 8 Comments
122 122 122 122
उजाले हमें फिर लुभाने लगे हैं
नया गीत हम आज गाने लगे हैं।1
बढ़े जो अँधेरे, सताने लगे हैं
गये वक्त फिर याद आने लगे हैं।2
कदम से कदम हम मिलाके चले थे
पहुँचने में क्यूँ फिर जमाने लगे हैं? 3
लुटे जालिमों से,यहाँ भी ठगे हम
लुटेरे मसीहा कहाने लगे हैं।4
अदाओं ने मारा बहाने बनाकर,
बसे जो ज़िगर खूं बहाने लगे हैं।5
"मौलिक व अप्रकाशित"
Added by Manan Kumar singh on August 14, 2018 at 7:13pm — 11 Comments
खुदापरस्ती ... (अतुकांत)
मुअम्मे कुछ ऐसे जो हम जीते रहे
पर ज़िन्दगी भर हमसे बयां न हुए
कैसी है तिलिस्मी मुसर्रत की तलाश
मशगूल रखती रही है शब-ओ-रोज़
हसरतें भी देती हैं छलावा…
ContinueAdded by vijay nikore on August 13, 2018 at 9:08pm — 8 Comments
मैं
आस था
विश्वास था
अनभूति का
आभास था
पथ पथरीला प्रीत का
लम्बा और उदास था
जाने किसके हाथ थे
जाने किसका साथ था
गोधूलि की बेला में
अंतिम जीवन खेला में
आहटों की देहरी पर
अटका
मेरा
श्वास था
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on August 13, 2018 at 6:30pm — 14 Comments
कैसे-कैसे सवालों का जवाब है जिंदगी
कांटों के साथ-साथ गुलाब है जिंदगी
तुम समझ सके न जिसे हम समझ सके
ऐसे मसाएलों का अजाब (दुख/संत्रास) है जिंदगी
शज़र (वृक्ष) की ओट में चांद ठहर गया है
चांदनी कह रही है, माहताब है जिंदगी
मेरे औ चांद के जो दरम्यान था
शज़र का हल्का सा नक़ाब है जिंदगी
तेरी मुस्कुराहटों, रुसवाईयों से अलग
भूख और गुरबतों का असबाब है जिंदगी
तू रहे कहीं, मुझ से जुदा रह नहीं…
ContinueAdded by SudhenduOjha on August 13, 2018 at 10:30am — 3 Comments
भले थोड़ी रुकावट आज है
पतवार के आगे
किनारा भी मिलेगा कल,
हमें मँझधार के आगे.
अमन की क्यारियाँ सींचो,
मुहब्बत को महकने दो.
हृदय में आज अपने तुम,…
ContinueAdded by बसंत कुमार शर्मा on August 12, 2018 at 12:08pm — 10 Comments
"अरे, भाबीजी तुम तो अब भी घर पर ही जमी हो!" मोती ने बड़े ताअज्जुब से कहा - "ऊ दिना तो तुम बड़ी-बड़ी बातें फैंक रईं थीं कि अब नईं रहने इते हाउस-वाइफ़ बनके; बहोत सह लई!"
"तो का अकेलेइ कऊं भग जाते! ई मुटिया को न तो कोनऊ फ़ादर है, न गोडफ़ादर.. कोनऊ लवर या फिरेंड मिलवे को तो सवालइ नईये, मोती बाबू!"
"तुम तो कैरईं थीं कि पड़ोसन के घरे झांक-झांक के दुबले-पतले होवे की कसरतें सीख लईं तुमने और डाइटिंग करवा रये थे मुन्ना भाइसाब तुमें!"
"दुबरो करावे को उनको मकसद दूसरो हतो!…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on August 11, 2018 at 6:30am — 5 Comments
चक्रव्यूह - लघुकथा –
"ए लड़की, क्या झाँक रही हो की होल से अंदर"?
सरकारी शाँती बालिका कल्याण संस्थान की व्यस्थापक सुमित्रा देवी गोमती को चोटी से पकड़ कर लगभग घसीटते हुए अपने कार्यालय ले गयीं। गोमती पीड़ा से बेचेन होकर छटपटा रही थी। वह लगातार रोये जा रही थी।
“क्या ताक झाँक कर रही थी वहाँ”? सुमित्रा जी ने लाल आँखें दिखाते हुए पुनः वही प्रश्न दोहराया।
"मैडम, मेरी बहिन को उस कमरे में एक सफ़ेद कुर्ता धोती वाला नेताओं जैसा आदमी पहले तो बहला फ़ुसला कर ले जाना चाह रहा था।…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on August 10, 2018 at 12:40pm — 10 Comments
Added by Ajay Kumar Sharma on August 10, 2018 at 10:27am — 12 Comments
कब यहाँ पर प्यार की बातें हुईं
जब हुईं तकरार की बातें हुईं
दो मिनट कचनार की बातें हुईं
फिर अधिकतर खार की बातें हुईं
बाढ़ में जब बह चुका सब, तब कहीं
नाव की, पतवार की बातें हुईं
…
ContinueAdded by बसंत कुमार शर्मा on August 10, 2018 at 9:30am — 10 Comments
उसका सपना था कि दुनिया ख़त्म हो जाए और दुनिया ख़त्म गयी। अब अगर कोई बचा था तो सिर्फ़ वो और उसकी टूटी-फूटी मोहब्बत।
"अब तो इसे मुझसे बात करनी ही पड़ेगी।" खण्डहर बन चुके शहर की वीरान सड़क पर खड़े उस शख़्स ने कहा।
वह उससे बेपनाह मुहब्बत करता था। वह चाहता था कि वो उसे देखे, उसे समझे, उससे बात करे मगर वो हमेशा ही किसी न किसी और को ढूँढ लेती थी। वह इस बात से हमेशा दुःखी रहता था कि उसे छोड़कर वो बाकी सबसे बात करती है मगर उससे नहीं। उसने कहीं पढ़ा था कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है।…
ContinueAdded by Mahendra Kumar on August 10, 2018 at 8:30am — 10 Comments
आज फिर अब्बू सुबह सुबह शुरू हो गए थे, “तुझे फौजी ही बनना चाहिए, और कुछ नहीं”.
दरअसल आज फिर अखबार के पहले पन्ने पर छपा था कि दहशतगर्दों से लड़ाई में कई फौजी शहीद हो गए और उनकी अन्त्येष्टि पूरे राजकीय सम्मान के साथ की जाएगी.
पिछले कई दिन से वह अपने प्ले के रिहर्सल में लगा हुआ था. वर्तमान राजनीति और धर्म के घालमेल के दुष्परिणाम पर आधारित उसका प्ले, जिसे खुद उसी ने लिखा था. और अपने कुछ रंगकर्मी दोस्तों के साथ आने वाले स्वतन्त्रता दिवस पर लोगों के सामने प्रदर्शित करने की पुरजोर कोशिश…
Added by विनय कुमार on August 9, 2018 at 1:00pm — 8 Comments
मां, गुजराती चादर दे दे!
मैं 'फ़ादर' सा बन जाऊं!
जनता अपने राष्ट्र की
स्वामियों, बापुओं सा आदर दे दे!
अंग्रेज़ों सा व्यापारी बन कर,
तोड़ूं-फोड़ूं और मारूं-काटूं
विदेशी सूट पहन इतराऊं!
मां किसी 'गांधी' सी 'चादर' ओढ़ाकर
तस्वीरें, मूर्तियाँ मेरी सजवादे
मैं भी जिंदा लीजेंड, किंवदंती कहलाऊं!
मुग़ल, अंग्रेज़, हिटलर, कट्टर
सब से शिक्षायें ले लेकर
आतंक कर आतंकी न कहलाऊं !
मां 'धर्म' की बरसाती दे दे
बदनामियों सा न भीग जाऊं!
मां…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on August 9, 2018 at 6:38am — 8 Comments
ट्रेन स्टेशन छोड़ चुकी थी, रिज़र्वेशन वाले डब्बे में भी साधारण डब्बे जैसी भीड़ थी. अपना बैग कंधे पर टाँगे और छोटा ब्रीफकेस खींचते हुए शंभू डब्बे में अंदर बढ़े. लगभग हर सीट पर कई लोग बैठे हुए थे और शंभू को कहीं जगह नजर नहीं आ रही थी. जहां भी वह बैठने का प्रयत्न करते, लोग उन्हे झिड़क देते. अचानक साइड वाली एक सीट पर उनकी नजर पड़ी जहां सिर्फ एक ही व्यक्ति बैठा हुआ था. शंभू लपक कर सीट पर एक तरफ बैठ गये और अपना ब्रीफकेस उन्होने सीट के नीचे घुसा दिया. अक्सर सफर करनेवाले शंभू को इन परिस्थितियों से भी…
ContinueAdded by विनय कुमार on August 8, 2018 at 2:00pm — 6 Comments
रफ़्ता रफ़्ता अपनी मंज़िल से जुदा होते गए,
राह भटके लोग जिनके रहनुमा होते गए.
.
तज़र्बे मिलते रहे कुछ ज़िन्दगी में बारहा
कुछ तो मंज़िल बन गए कुछ रास्ता होते गए.
.
चुस्कियाँ ले ले के अक्सर मय हमें पीती रही
वो नशा होती गयी हम पारसा होते गए.
.
उन चिराग़ों के लिए सूरज ने माँगी है दुआ
सुब्ह तक जलते रहे जो फिर हवा होते गए.
.
ज़िन्दगी की राहों पर जब धूप झुलसाने लगी
पल तुम्हारे साथ जो गुज़रे घटा होते गए.
.
फिर मुहब्बत के सफ़र…
Added by Nilesh Shevgaonkar on August 8, 2018 at 1:46pm — 14 Comments
आधुनिक भारत के आधुनिक शहर की आधुनिक सड़कों पर एक बार फिर भावुक और अहसानमंद भीड़ एकत्रित थी। आम आदमी तो भीड़ में थे ही, नेता-अभिनेता और मीडिया भी था। कुछ करुणाद्र थे, कुछ कृतज्ञ और कुछ समर्थक या पूजक और कुछ अवसरवादी ढोंगी समर्थक भी थे! दृश्य बेहद करुणामय था। कुछ तो रोये ही जा रहे थे अपने प्रिय व्यक्तित्व या आका के स्वास्थ्य और जीवन संबंधित शुभकामनाओं और प्रार्थनाओं के साथ। जबकि कुछ ऐच्छिक समाचार सुनने की प्रतीक्षा में थे।
"समर्थकों, उपासकों, अहसानमंदों और अवसरवादियों की मिली-जुली…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on August 8, 2018 at 12:22am — 7 Comments
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 8, 2018 at 12:00am — 10 Comments
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