बहुत गहरा गए हैं अंधेरे हर सू
रोशनी की किरन अब कहां खोजें
गुम हो गई है कहां दुनिया में
आओ मिल के हम वफा खोजें
खतावार जब कि थे हम दोनों ही
क्यूं न इक जैसी ही सजा खोजें
जीत जाएं न कहीं दूरियां हमसे
आओ मिल के अपनी खता खोजें
नफरतों के वास्ते न जगह बाकी हो
पूरे जहान में एसा कोई पता खोजें
-----प्रियंका
"मौलिक व अप्रकाशित"
Added by Priyanka Pandey on August 12, 2014 at 11:00pm — 4 Comments
जैसे जैसे बिख़री रात,
बिस्तर बिस्तर पिघली रात.
.
चाँद के साथ बदलती रँग,
काली भूरी कत्थई रात.
.
चाँद ज़मीं पर उतरा था,
हुई अमावस पिछली रात.
.
एक शम’अ थी साथ मेरे,
फिर भी तन्हा सुलगी…
Added by Nilesh Shevgaonkar on August 12, 2014 at 10:24pm — 15 Comments
गुरु लघु और लघु गुरु, आपस में है मेल
चूक हुई तों समझिये, बिगड़े सारा खेल
खीरे सा मत होइये , गर्दन काटी जाय
दुनिया से तुम तो गये, स्वाद न उनको आय
इन्द्र देव नाखुश हुए, धरती सूखी जाय
फसल बाजरा तिल करें , दूजा न अब उपाय
जग में संगत बडन की, करो सोच सौ बार
जोड़ी सम होती भली , खाओ कभी न मार
चौबे जी दूबे बने, पीटत अपना माथ
छब्बे बनने थे चले, कुछ नहि आया हाथ
मोबाइल ले हाथ में , बाला करती चैट
गिटपिट…
Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on August 12, 2014 at 10:00pm — 6 Comments
Added by Ravi Prabhakar on August 12, 2014 at 6:00pm — 20 Comments
ख़्वाबों पे उसका पहरा है!
यादों का सागर गहरा है !!
चीखें वो फिर सुनाता कैसे!
मुझको तो लगता बहरा है !!
आईने में भी देखा कर !
क्या ये तेरा ही चेहरा है !!
बातें उसनें कर दी ऐसी !
दिल में सन्नाटा ठहरा है !!
कतरा -कतरा जीता हूँ मैं!
मेरे अन्दर भी सहरा है !!
*************************
राम शिरोमणि पाठक"दीपक"
मौलिक/अप्रकाशित
Added by ram shiromani pathak on August 12, 2014 at 1:00pm — 7 Comments
नवगीत
प्रेम भाव के सेतु बन्ध में,
कुटिल नीति के खम्भ गड़े हैं।
गहन सिंधु से मुक्त हुआ रवि,
पथ पर पर्वत अटल अड़े है।
प्रजातंत्र की जड़े हिला कर,
स्वर्ण कवच में सजल खड़े है।।1
कर लम्बे अति प्रखर सोच रति
तीक्ष्ण बाण से भीष्म बिंधे है।
श्वांस-श्वांस चलती लू-अंधड़,
संशय मन में प्रश्न बड़े हैं।।2
छलक रहे नित अश्रु गाल पर,
शुष्क होंठ भी सिले हुए हैं।
भाव-वचन पर शोध नही जब,
चींख रहे जन तंग घड़े…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 12, 2014 at 4:52am — 3 Comments
इक दिन अपना नाम बताकर !
हँसती है वो आँख चुराकर!!
पत्थर का है शहर जानलो!
घर से निकलना सर बचाकर !!
तेरी गर मासूका ना हो !
खुद को ही खत रोज़ लिखाकर!!
मुझको खुद से दूर कर दिया!
इतना अपने पास बुलाकर !!
इक दिन वो सुन लेगा तेरी !
बस तू जाके रोज़ कहाकर!!
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राम शिरोमणि पाठक"दीपक"
मौलिक/अप्रकाशित
Added by ram shiromani pathak on August 12, 2014 at 12:30am — 4 Comments
"सुनती हो, देखा तुमने गुप्ता जी की बेटी आज दौड़ में फर्स्ट आयी है, देखो हर फ़ील्ड में अव्वल है और एक हमारी बेटी है, पास हो जाती है यही उसका एहसान है, मैं पहले ही कहता था कि जिस रास्ते पर चल रही है वो सही नहीं है| दिन भर बस पता नहीं क्या सोचती रहती है | पांचवीं में पढ़ती है और बैठी ऐसे रहती है जैसे 50 साल की बुढ़िया हो |" - मदन जी चिल्लाते हुए अपने घर में दाखिल हुए|
उनकी पत्नी तो जैसे ये वाक्य सुनने को आतुर बैठी थी, उसने भी चिल्लाते हुए जवाब दिया, "अब आपके खानदान की है, और क्या…
ContinueAdded by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on August 11, 2014 at 6:30pm — 16 Comments
बिच्छू के डंक-से दिन ये खलते रहे
सर्प के दंश-सी रातें खलती रहीं
बंद पलकों में ले दर्द सारा पड़े
नव सृजन-सर्ग की आस पलती रही |
अहं से हृदय काँटा हुआ जा रहा
द्वेष-दावाग्नि घर-बार पकड़े हुए
भोग की यक्ष्मा भीतर घर कर गई
रात-दिन बुद्धि के ज्वर से हम तप रहे
जैसे बढ़ते ज़हरबाद का हो असर
क्रूरता-नीचता मन की बढ़ती रही |
आँख काढ़े-सा शैतान विज्ञान का
पीसकर दाँत आगे खड़ा हो रहा
महामारी-सा रुतबा है आतंक…
ContinueAdded by Santlal Karun on August 11, 2014 at 2:30pm — 4 Comments
इक ऐसा भी घर बनवाना!
जिसमे रह ले एक ज़माना !!
खुद से खुद की बातें करना !
जब खुद के ही हिस्से आना !!
वो मरा है तू भी मरेगा !
लगा रहेगा आना जाना !!
कुछ ऐसा भी कर ले पगले !
जो बन जाए एक फ़साना !!
खुद से ही भागेगा कब तक !!
खुद से चलता नहीं बहाना !!
भूल गया हो गर वो मुझको !
उसको मेरी याद दिलाना !!
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राम शिरोमणि पाठक"दीपक"
मौलिक/अप्रकाशित
Added by ram shiromani pathak on August 11, 2014 at 11:21am — 8 Comments
2122 2122 212
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जन्म से ही यार जो बेशर्म है
पाप क्या उसके लिए, क्या धर्म है
**
छेड़ मत तू बात किस्मत की यहाँ
साथ मेरे शेष अब तो कर्म है
**
बोलने से कौन करता है मना
सोच पर ये शब्द का क्या मर्म है
**
चाँद आये तो बिछाऊँ मैं उसे
एक चादर आँसुओं की नर्म है
**
शीत का मौसम सुना है आ गया
पर चमन की ये हवा क्यों गर्म है
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( रचना - 30 जुलाई 2014 )
मौलिक…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 11, 2014 at 11:00am — 15 Comments
मैं अपने ही साथ रहूँगा!
खुद में तुझसे बात करूँगा!!
अब चाहे जिससे मिलना हो!
दर्पण अपने साथ रखूँगा!!
मेरे कद को ढाँक सके जो !
ऐसी चादर साथ रखूँगा!!
उनको हँसकर मिलने तो दो!
मैं भी दिल की बात करूँगा!!
बातें बहुत ज़बानी कर लीं!
मैं भी खत इक बार लिखूँगा!!
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राम शिरोमणि पाठक"दीपक"
मौलिक/अप्रकाशित
Added by ram shiromani pathak on August 11, 2014 at 11:00am — 12 Comments
देश है नवीन किन्तु, राष्ट्र है सनातनी ये, मान्यता और संस्कार की लिये निशानियाँ
था समस्त लोक-विश्व क्लिष्ट तम के पाश में, भारती सुना रही थी नीति की कहानियाँ
संतति प्रबुद्ध मुग्ध थी सुविज्ञ सौम्य उच्च, बाँचती थी धर्म-शास्त्र को सदा जुबानियाँ
स्वीकार्यता चरित्र में, प्रभाव में उदारता, शांत मंद गीत में सदैव थीं…
Added by Saurabh Pandey on August 11, 2014 at 2:30am — 30 Comments
देखो ! न.. बेचारा नरेश बड़े शहर में नौकरी कर, अपनी पत्नि व् छोटे से बेटे के साथ-साथ गाँव में अपनी बूढी विधवा माँ और दो कुवांरे निकम्मे भाइयों का भी पालन करता रहा. उसने कई बार अपने दोनों भाइयो को काम-धंधे से लगवाया, किन्तु दोनों की मक्कारी और माँ के लाड़-प्यार ने उन्हें हमेशा से कामचोर भी बना रखा था.
हाँ भाई ! अभी पिछले माह ही तो सड़क दुर्घटना में नरेश की मौत हुई थी और देखो तो बेचारे नरेश की विधवा पत्नी और बेटे को घर से बाहर निकाल दिया, दोनों हरामी भाइयों ने. कम से कम ,माँ को तो…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on August 11, 2014 at 1:59am — 12 Comments
22121211221212
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जब रात ढल गई तो सितारे भी घर चले,
कुछ रिंद लड़खड़ाके चले थे, मगर चले.
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कुछ सोचने दो मुझ को कमाई का रास्ता.
शेरो सुखन के दम पे भला कैसे घर चले.
.
क्या है पड़ी मुझे कि जियूँ मै तेरे बग़ैर,
जब दिल की धड़कने हों थमीं, क्यूँ जिगर चले?
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अब छोड़िये भी फ़िक्र हमारी हुज़ूर आप, …
Added by Nilesh Shevgaonkar on August 10, 2014 at 11:00pm — 4 Comments
"गीत"
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श्याम घन नभ सोहते ज्योँ ग्वाल दल घनश्याम का ।
चंचला यमुना किनारे नृत्य रत ज्योँ राधिका ||
आ रहे महबूब मेरे
दिल कहे श्रृँगार कर ।
द्वार पर कलियाँ बिछा कर
बावरी सत्कार कर ।
प्यार पर सब वार कर
-दुल्हन सदृश अभिसार कर ।
अब गले लग प्राण प्रिय से
डर भला किस बात का |
श्याम घन नभ सोहते ज्योँ ग्वाल दल घनश्याम का ।
चंचला यमुना किनारे नृत्य रत ज्योँ राधिका ||
चाहती पलकें भी बिछना…
ContinueAdded by Chhaya Shukla on August 10, 2014 at 8:30pm — 29 Comments
अगम है प्रेम पारावार फिर भी प्रिये पतवार लेकर आ गया हूँ I
विकल मन में जलधि के ज्वार फूटे
तार संयम अनेको बार टूटे
प्राण आकंठ होकर थरथराये
नेह के बंधन सजीले थे न छूटे
प्यास की वासना उद्दाम ऐसी नयन सागर सहेजे आ गया हूँ I
नयन ने काव्य करुणा के रचे हैं
कौन से पाठ्यक्रम इससे बचे हैं
किसी कवि ने इन्हें जब गुनगुनाया
लाज ने तोड़ डाले …
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 10, 2014 at 2:30pm — 22 Comments
1222 1222 1222 1222
झुकी पलकों कि उल्फत का इशारा मिल गया होगा ।
कि सहरा को समंदर का नज़ारा मिल गया होगा ।
अभी था रो रहा बच्चा अभी है खेलता हँसता ,
कि खोया था खिलौना जो दुबारा मिल गया होगा ।
घटाओं की अँधेरी रात में उम्मीद जागी है ,
गगन में टिमटिमाता इक सितारा मिल गया होगा ।
सुखों की ख्वाहिशें जिसने समझ से छोड़ दी होंगी ,
उसे दुःख के भँवर से भी किनारा मिल गया होगा ।
निगाहों ने कहा मुझ से कि सूरत सी…
ContinueAdded by Neeraj Nishchal on August 10, 2014 at 2:00pm — 8 Comments
दूर देश ब्याही बहिन, बाबुल हुआ उदासl
भाई लेने चल दिया, सावन आया पासll
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बहना गहना डाल के, ले हाथों में थालl
भाई के घर आ गयी,तिलक मांडने भालll
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हाथों में मंहदी लगा, बहना है तैयार l
बाबुल के अँगना बही, सुखद नेह की धार ll
----
भाई बहना मिल रहे, खुश माँ का संसार l
बाबुल के मन गिर रही, सावन की बौछार ll
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कच्चे धागे में बंधा, भ्रात भगनि का प्यार l
अनुपम सकल जहान में, राखी का त्यौहार…
ContinueAdded by harivallabh sharma on August 10, 2014 at 12:30pm — 14 Comments
Added by seemahari sharma on August 10, 2014 at 11:30am — 10 Comments
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