२१२२ १२१२ २२
फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ैलुन
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रंग ख़ुशियों के कल बदलते ही,
ग़म ने थामा मुझे फिसलते ही,
मैं जो सूरज के ख़्वाब लिखती थी,
ढल गयी हूँ मैं शाम ढलते ही,
राह सच की बहुत ही मुश्किल है,
पाँव थकने लगे हैं चलते ही
वो मुहब्बत पे ख़ाक डाल गया
बुझ गया इक चराग़ जलते ही,
ख़्वाब नाज़ुक हैं काँच के जैसे,
टूट जाते हैं आँख मलते ही…
ContinueAdded by Anita Maurya on October 25, 2017 at 7:27pm — 10 Comments
Added by डॉ छोटेलाल सिंह on October 25, 2017 at 3:31pm — 9 Comments
Added by नाथ सोनांचली on October 25, 2017 at 1:31pm — 41 Comments
काफिया : अर ;रदीफ़ : है
बह्र ; १२२२ १२२२ १२२२ १२२२
वज़ीरों में हुआ आज़म, बना वह अब सिकंदर है
विपक्षी मौन, जनता में खमोशी, सिर्फ डरकर है |
समय बदला, जमाने संग सब इंसान भी बदले
दया माया सभी गायब, कहाँ मानव? ये’ पत्थर हैं |
लिया चन्दा जो’ नेता अब वही तो है अरब धनपति
जमाकर जल नदी नाले, बना इक गूढ़ सागर है |
ज़माना बदला’ शासन बदला’ बदली रात दिन अविराम
गरीबो के सभी युग काल में अपमान मुकद्दर है…
ContinueAdded by Kalipad Prasad Mandal on October 25, 2017 at 11:00am — 8 Comments
२१२२/ १२१२/ २२ (११२)
ख़त हमारे अगर जलाता है
राख दुनिया को क्यूँ दिखाता है.
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हम को उम्मीद है तो ग़ैरों से,
कौन अपनों के काम आता है?
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सुन रखी होगी आग जंगल की
क्यूँ शरर को हवा दिखाता है.
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शम्स मुझ सा शराबी है शायद
शाम ढलते ही डूब जाता है.
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ज़र्द चेहरा है बाल बिखरे हैं
इस तरह कौन दिल लगाता है.
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देख! दुनिया का कुछ नहीं होगा
ख्वाहमखाह इस में सर खपाता है.
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इस पे चलता है रब्त का धंधा
कौन क्या…
Added by Nilesh Shevgaonkar on October 24, 2017 at 1:00pm — 34 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on October 24, 2017 at 10:29am — 21 Comments
Added by नाथ सोनांचली on October 24, 2017 at 5:47am — 20 Comments
Added by Naveen Mani Tripathi on October 24, 2017 at 12:16am — 16 Comments
बाहर हैं तो अभी सीधा घर जाइये
घर जाकर टी.वी. में आग लगाइये
सभी जाति -धर्म के लोग दिखाई देगें
फिल्म - सीरियल पर नजर दौड़ाइये
बच्चों को उस स्कूल में डालिये
जहां आपकी जाति के शिक्षक होने चाहिये
सामान हर दुकान से मत खरीदिये
दुकान भी आपकी जाति धर्म की होनी चाहिए
किस धर्म के आदमी ने बनाया है ये सामान ?
अपनी जाति के दुकानदार से पुछवाईये
आप सेकुलर नहीं जो किसी के भी हाथ का खालें
इसलिए कुछ दिन…
Added by जयति जैन "नूतन" on October 23, 2017 at 11:00pm — 9 Comments
पहनावा ही बोलता, लोगों का व्यक्तित्व ।
वस्त्रों के हर तंतु में, है वैचारिक स्वरितत्व ।।
है वैचारिक स्वरितत्व, भेद मन का जो खोले ।
नग्न रहे जब सोच, देह का लज्जा बोले ।
फैशन का यह फेर, नग्नता का है लावा ।
आजादी के नाम, युवा का यह पहनावा ।।
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मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by रमेश कुमार चौहान on October 23, 2017 at 11:00pm — 4 Comments
सुख की एक लाश ...
एक अंतराल के बाद
विस्मृति भंग हुई
तो चेतना
सूनी आँखों से
उबलते लावों में
परिवर्तित हो
बह निकली
व्याकुलता के कुंड में
प्रश्नों की ज्वाला में तप्ती
असंख्य अभिलाषाओं को समेटे
जीवन के अंतिम क्षितिज पर
ज़िंदा थी
एक लाश
सुख की
छिल गए
भरे हुए
घाव सभी
जब स्मृति जल ने
अपने खारेपन से
उनपर नमक छोड़ दिया
जलती रही देर तक
मात हो चुकी बाज़ी की
अवचेतन में सोयी…
Added by Sushil Sarna on October 23, 2017 at 8:16pm — 10 Comments
महाकवि कालिदास ने मेघ का मार्ग अधिकाधिक प्रशस्त करने के ब्याज से प्रकृति के बड़े ही सूक्ष्म और मनोरम चित्र खींचे है, इन वर्णनों में कवि की उर्वर कल्पना के चूडांत निदर्शन विद्यमान है जैसे - हिमालय से उतरती गंगा के हिम-मार्ग में जंगली हवा चलने पर देवदारु के तनों से उत्पन्न अग्नि की चिंगारियों से चौरी गायों के झुलस गए पुच्छ-बाल और झर-झर जलते वनों का ताप शमन करने हेतु यक्ष द्वारा मेघ को यह सम्मति देना कि वह अपनी असंख्य जलधाराओं से वन और जीवों का संताप हरे .
मेघ को पथ निर्देश करता यक्ष…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 23, 2017 at 12:20pm — 4 Comments
जहाँ ये दिलों की दगा का अखाड़ा,
किसी ने मिलाया किसी ने पछाड़ा;
यहाँ प्यार है बेसहारा बगीचा,
किसी ने बसाया किसी ने उजाड़ा;
.
मौलिक और अप्रकाशित
Added by Ramkunwar Choudhary on October 23, 2017 at 9:30am — 10 Comments
Added by Ram Awadh VIshwakarma on October 23, 2017 at 5:51am — 8 Comments
Added by नाथ सोनांचली on October 23, 2017 at 5:42am — 9 Comments
Added by पंकजोम " प्रेम " on October 22, 2017 at 7:30pm — 16 Comments
Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on October 22, 2017 at 6:43pm — 9 Comments
काफिया –आँ , रदीफ़ –पर
बहर : १२२२ १२२२ १२२२ १२२२
कुटिल जैसे बिना कारण, किया आघात नादाँ पर
भरोषा दुश्मनों पर है, नहीं है फ़क्त यकजाँ पर |
अयाचित आपदा का फल, कहे क्या? अब पडा जाँ पर
गुनाहों की सज़ा मिलती है’, फिर क्यों प्रश्न जिन्दां पर ?
चुनावों में शरारत कर, सभी सीटों को’ जीता है
सिकंदर है वही जो जीता,’ क्यों आरोप गल्तां पर ?
वो’ मूसलधार बारिश, कड़कती धूप सूरज की
सभी मिलकर उजाड़े बाग़ को,…
ContinueAdded by Kalipad Prasad Mandal on October 22, 2017 at 2:50pm — 2 Comments
Added by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on October 22, 2017 at 11:11am — 16 Comments
Added by Samar kabeer on October 22, 2017 at 10:56am — 45 Comments
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