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ग़ज़ल...लाज की मारी न रोये द्रोपदी

इस ग़ज़ल के साथ ओबीओ परिवार को नवरात्री की शुभकामनाएं.. जय माता की

फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन

हर कली में देवियों का वास हो

पत्थरों को दर्द का अहसास हो

फिर कोई अवतार आये भूमि पे

निश्चरों को मृत्यु का आभास हो

लाज की  मारी न रोये  द्रोपदी

अब नहीं वैदेही को वनवास हो

पीर की तासीर जाओगे समझ

लुट चुका कोई तुम्हारा खास हो

बात इतनी सी समझते क्यों नहीं

घात मिलती है जहाँ बिस्वास हो

(मौलिक एवं…

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Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 11, 2018 at 12:30pm — 17 Comments

जाना पहचाना अजनबी

मेरे चुटकी भर
मिलन को,,
उसका आकाश-भर
इंतेज़ार !
मेरे सौ झूठ...
उसका हज़ार ऐतबार !!
कुछ घबराता,
कुछ सकुचाता,
मेरे शहर से दूर..
मन के करीब आता ।
एक जाना पहचाना अजनबी,
हौले हौले ,
मेरे हृदय में
अपना घर बनाता है ।
जैसे टुकड़ा,
किसी बादल का ,,
बेजान दरख्तों में
जीवन भर जाता है!!
©Vrishty
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by V.M.''vrishty'' on October 11, 2018 at 9:53am — 4 Comments

कविता का जीवन

टूट कर बिखरते
हौले हौले संवरते
क्या देखा है आपने?
किसी कविता को,
गिरते-संभलते !!
मैंने देखा है--
अगणित बार..
हृदय-तल पर
शब्दो की उंगलियों का
सहारा पा-
किसी नन्हे शिशु की भांति
डगमगाते हुवे
एक एक कदम उठाते !
फिर आहिस्ता आहिस्ता
वाक्यों के लंबे लंबे डग
नापते !
हाँ देखा है मैंने!
कविता को-
टूटते-संवरते,
गिरते-संभलते,
बनते-बिगड़ते !!

मौलिक एवं अप्रकाशित
(अतुकांत कविता)

Added by V.M.''vrishty'' on October 10, 2018 at 10:50pm — 18 Comments

इन्वेस्टमेंट-लघुकथा

थाने के अंदर जाकर उसने एक किनारे अपनी बाइक खड़ी की और चारो तरफ का मुआयना करने लगा. काफी बड़ा अहाता था इस थाने का और एक तरफ संतरी बंदूक जमीन पर टिकाये उसी को देख रहा था. वह धीरे धीरे संतरी की तरफ बढ़ा तभी उसकी नज़र एक खम्भे से बंधे एक आदमी पर पड़ी. गंदे कपडे पहने उस पुरुष की पीठ उसकी तरफ थी और उसके पास दो पुलिस वाले खड़े थे.

इतने में इंस्पेक्टर बाहर आये और उसको देखते ही एक सिपाही को आवाज़ लगाया "अरे दो कुर्सी निकालो बाहर". उसने इंस्पेक्टर से हाथ मिलाया और दोनों कुर्सियों पर…

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Added by विनय कुमार on October 10, 2018 at 6:02pm — 14 Comments

छप्पय छंद-रामबली गुप्ता

ज्योतिपुंज जगदीश! रहो नित ध्यान हमारे।
कलुष-द्वेष-दुर्भाव, हृदय-तम हर लो सारे।।
सत्य-स्नेह-सद्भाव, समर्पण का प्रभु! वर दो।
जला ज्ञान का दीप, प्रभा-शुचि हिय में भर दो।
दो बल-पौरुष-सद्बुद्धि हरि! मार्ग चुनेें सद्कर्म का।
हर जनजीवन के त्रास हम, फहरायें ध्वज धर्म का।।

मौलिक एवं अप्रकाशित

रचनाकार-रामबली गुप्ता

शिल्प-प्रथम चार पद रोला छंद और अंतिम दो पद उल्लाला छंद के संयोग से छप्पय छंद की निष्पत्ति होती है।

Added by रामबली गुप्ता on October 9, 2018 at 11:30pm — 11 Comments

दोस्ती - लघुकथा -

दोस्ती - लघुकथा -

श्रद्धा एक मध्यम वर्गीय परिवार की मेधावी छात्रा थी।वह इस साल एम एस सी जीव विज्ञान की फ़ाइनल में थी। शिक्षा का उसका पिछला रिकार्ड श्रेष्ठतम था।इस बार भी उसका इरादा यूनीवर्सिटी में अब्बल आने का था।

मगर इंसान की मेहनत और इरादे से भी ऊपर एक चीज़ होती है भाग्य।जिस पर ईश्वर के अलावा किसी अन्य का जोर नहीं चलता। श्रद्धा के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ।

वह उस दिन क्लास रूम से बाहर निकल रही थी कि चक्कर खाकर गिर गयी।अफ़रा तफ़री मच गयी। सभी साथी सहपाठी चिंतित और परेशान हो…

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Added by TEJ VEER SINGH on October 9, 2018 at 8:06pm — 12 Comments

शहीदों के नाम....

रक्त से जिनके सना था,तर-ब-तर कण-कण धरा का,

हिन्द पर कुर्बान थे, भारत के सच्चे लाल थे जो !

सिंह की गर्जन लिए, टूटे फिरंगी गीदड़ों पर,

भय रहा भयभीत जिनसे, काल के भी काल थे जो!!

देख कर वीरत्व जिनका, विघ्न पथ को छोड़ देता ।

स्वयं विपदा काँप जाती,हाथ तूफ़ां जोड़ लेता ।।

जो कनक-सदृश तपाकर स्वयं को, जीते थे हरदम ।

जो कि कायरता, गुलामी, स्वार्थ से रीते थे हरदम ।।

जिनके आगे पर्वतों का कद सदा बौना रहा था ।

तपते अंगारों पे हरदम,जिनका बिछौना रहा था ।।

उष्णता…

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Added by V.M.''vrishty'' on October 9, 2018 at 4:30pm — 14 Comments

मौत आंगन में आकर टहलती रही

212 212 212 212

जिंदगी रफ़्ता रफ़्ता पिघलती रही ।

आशिकी उम्र भर सिर्फ छलती रही ।।

देखते देखते हो गयी फिर सहर ।

बात ही बात में रात ढलती रही ।।

सुर्ख लब पर तबस्सुम तो आया मगर ।

कोई ख्वाहिश जुबाँ पर मचलती रही ।।

इक तरफ खाइयाँ इक तरफ थे कुएं ।

वो जवानी अदा से सँभलती रही ।।

जाम जब आँख से उसने छलका दिया ।

मैकशी बे अदब रात चलती रही ।।

देखकर अपनी महफ़िल में महबूब को।

पैरहन बेसबब वह बदलती रही…

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Added by Naveen Mani Tripathi on October 9, 2018 at 10:00am — 16 Comments

आता जाता कौन है - गजल

मापनी - २१२२ २१२२ २१२२ २१२ 

चुपके’ चुपके रात में यूँ आता’ जाता कौन है

रोज आकर ख्वाब में नींदें उड़ाता कौन है

था मुझे विश्वास जिस पर दे गया धोखा वही

एक आशा फिर नई दिल में जगाता कौन है

घाव मुझको ज़िन्दगी से कुछ मिले तो हैं, मगर…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on October 9, 2018 at 9:35am — 15 Comments

बलातकार्य (छंदमुक्त कविता)

बलात हालात बलात नियंत्रण में हैं न!
देश-देशांतर तिजारात आमंत्रण में हैं न!
आचार-विहार, व्यवहार-व्यापार, प्रहार,
घात-प्रतिघात धार अभियंत्रण में हैं न!
**
बदले 'बदले के ख़्यालात' चलन में हैं न!
अगले-पिछले अहले-वतन फलन में हैं न!
बापू तुम्हारे ही देश में, देशभक्तों के वेश में
नोट-वोट, ओट-चोट-वोट अवकलन में हैं न!


(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 8, 2018 at 11:30pm — 8 Comments

टुकड़ों में बटा आदमी - डॉo विजय शंकर

टुकड़ों में बटा आदमी 

टुकड़ों की बात करता है , 

टुकड़ों को छोटे , और छोटे 

टुकड़ों…

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Added by Dr. Vijai Shanker on October 8, 2018 at 10:05pm — 18 Comments

३ क्षणिकाएं....

३ क्षणिकाएं....

भावनाओं की घास पर

ओस की बूंदें

रोती रही

शायद

बादलों को ओढ़कर

रात भर

चांदनी

... ... ... ... ... ... .

गोद दिया

सुबह की ओस ने

गुलाब को

महक

तड़पती रही

अहसासों के बियाबाँ में

यादों की नोकों पर

... ... ... .. .. .. .. . .

आकाश

ज़िंदगी भर

इंसान को

छत का सुकून देता रहा

उसे

धूप दी, पानी दिया ,

ईश के होने का

अहसास दिया

मगर

वह रे इंसान

आया जो…

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Added by Sushil Sarna on October 8, 2018 at 7:07pm — 18 Comments

फिर आएंगे नेता मेरे गांव में |

फिर आएंगे नेता मेरे गांव में |

अबके लूँगा सबको अपने दाव में |

पूछूँगा सड़क क्यों बनी नहीं ?

हैण्ड पम्प क्यों  लगा नहीं ?

क्यों बिजली नहीं आई मेरे गांव में…

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Added by Naval Kishor Soni on October 8, 2018 at 5:00pm — 4 Comments

सिद्धिर्भवति कर्मजा-----ग़ज़ल

22 122 12

गीता में लिक्खा गया
सिद्धिर्भवति कर्मजा

बिन फल की चिंता करे
सद्कर्म करिए सदा

दिखता है जो कुछ यहाँ
सब खेल है काल का

ऊर्जा का सिद्धांत है
लक्षण है जो आत्म का

बदले हैं बस रूप ही
ऊर्जा हो या आत्मा

मौलिक अप्रकाशित

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 8, 2018 at 4:51pm — 8 Comments

गजल कहें - लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२२१/२१२१/ १२२१/२१२



दिल से चिराग दिल का जलाकर गजल कहें

नफरत का तम जहाँ से मिटाकर गजल कहें।१।



पुरखे  गये   हैं   छोड़   विरासत   हमें   यही

रोते  हुओं  को   खूब  हँसाकर  गजल  कहें।२।



कोई न कैफियत है अभी जलते शहर को

आओ धधकती आग बुझाकर गजल कहें।३।



रखता नहीं  वजूद  ये  वहशत  का देवता

सोया जमीर खुद का जगाकर गजल कहें।४।



बैठा दिया दिलों में सियासत ने…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 8, 2018 at 6:34am — 14 Comments

मैं बहुत कुछ सोंचता रहता हूँ पर कहता नहीं

बह्र- 2122-2122-2122-212



ज्यों हवा दस्तक करे खटखट कोई होता नहीं।।

मैं बहुत कुछ सोंचता रहता हूँ पर कहता नहीं।।



इस तरह परछाई सा महसूस होता वो मुझे।

जैसे कोई दरमियाँ अपने है पर दिखता नहीं।।



हर बुढ़ापा रात भर कुछ खोजता है जाने क्या

नींद में भी जागता रहता है क्यों सोता नहीं ।।



चौक में करता नुमाइश ,वक्त भी दल्ला हुआ।

एक झटके में मुझे क्यों नग्न कर देता नहीं।।



इक समंदर कैद है आँखों में अपने दर्द का ।

जो भरा रहता है अंदर,पर… Continue

Added by amod shrivastav (bindouri) on October 7, 2018 at 11:06pm — 4 Comments

"अंखियों के झरोखों से" (लघुकथा)

होटलों में बर्तन धोने से लेकर नेताओं और अधिकारियों के पैर दबाने तक, मूंगफली बेचने से लेकर अख़बार बेचने तक सभी काम करने के साथ ही साथ उस अल्पशिक्षित बेरोज़गार के यौन-शोषण के कारण होशहवास खो गये थे, या किसी शक्तिवर्धक दवा के ग़लत मात्रा के सेवन से या अत्याधिक मानसिक तनाव के कारण उसकी अर्द्धविक्षिप्त सी हालत थी; किसी को सच्चाई पता नहीं! हां, सब इतना ज़रूर जानते थे कि बंदा है तो होनहार और मिहनती। जो काम दो, कर देता है। इसलिए सड़क पर आज भी उसकी ज़िन्दगी सुरक्षित चल रही है परिजनों की उपेक्षा और दयावानों…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 6, 2018 at 11:30pm — 7 Comments

रिश्तों की चिता--लघुकथा

चिता पर चाचाजी का शरीर लकड़ियों से ढंका हुआ पड़ा था और उसको आग लगाने की तैयारी चल रही थी. चाचाजी उम्र पूरा करके गुजरे थे इसलिए घर में बहुत दुःख का माहौल नहीं था लेकिन उनकी सेहत के हिसाब से अभी कुछ और साल वह सामान्य तरीके से जी सकते थे. अभी भी सारा परिवार एक में था इसलिए पूरा घर वहां मौजूद था. चचेरे भाई ने चिता जलाने के लिए जलती फूस को हाथ में लिया और चिता के चारो तरफ चक्कर लगाने लगा.

कुछ ही पल में चिता ने आग पकड़ ली और वह एक किनारे से एकटक जलती चिता को देखता रहा. चाचाजी से पिछले कई सालों से…

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Added by विनय कुमार on October 6, 2018 at 8:18pm — 14 Comments

ग़ज़ल



अभी तो यहाँ कुछ हुआ ही नहीं है ।

वो नादां उसे तज्रिबा ही नही है ।।1

उसे ही मिलेगी सजा हिज्र की अब ।

मुहब्बत में जिसकी ख़ता ही नहीं है ।।2

मिलेगा कहाँ से हमें कोई धोका ।

हमें आप का आसरा ही नहीं है ।।3

अगर आ गए हैं तो कुछ देर रुकिए ।

अभी तो मेरा दिल भरा ही नहीं है ।।4

है बेचैन कितना वो आशिक तुम्हारा ।

कहा किसने जादू चला ही नहीं है ।।5

जिधर जा रही वो उधर जा रहे हम ।

हमें जिंदगी से गिला ही नहीं…

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Added by Naveen Mani Tripathi on October 6, 2018 at 6:31pm — 8 Comments

'अंधवायु में प्राणवायु' (लघुकथा)

कोई 'रोज़ी-रोटी' और 'नोटों' के लिए तरस रहा था या बिक रहा था; तो कोई 'वोटों' और 'ओटों' के लिए तरस रहा था या बिक रहा था। आम जनता जानती थी कि हर मुकाम पर कहीं न कहीं 'दाल में कुछ काला' है क्योंकि सालों से उसने सब कुछ देखाभाला है; अपने आपको वक़्त-व-वक़्त 'चोटों' से उबारा है। तरक़्क़ी के मुद्दों पर नेता व अधिकारी सब अपनी-अपनी वफ़ा की सफाई पेश कर दूसरों पर छींटाकशी कर, अपनी ही जगहंसाई कर चिल्ला रहे थे; विरोधी बिलबिला रहे थे!

"ये डील नहीं .. मतलबियों को ढील है! .. राजनीति नहीं .. चील है! चीट है ...…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 5, 2018 at 9:03pm — 8 Comments

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