2122 122 122 2122 122 122
किस तरह से दशहरा मनायें; राम जी रावणी मन हुआ है।
राम नामी वसन पर न जायें, राम जी रावणी मन हुआ है।।
वासना से भरा है कलश ये, हो गया कामनाओं के वश में।
भेष साधू का झूठा, भुलायें राम जी रावणी मन हुआ है।।
स्वर्ण का ये महल चाहता है, मन्त्र बस धन का ये बांचता है।
किस तरह से "स्वयं" को जगायें, राम जी रावणी मन हुआ है।।
स्वार्थ का आचरण हर घड़ी है, नेक नीयत दफ़न हो गयी है।
आज खुद को विभीषण बनायें, राम जी रावणी मन…
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on October 22, 2015 at 7:00pm — 6 Comments
Added by Nita Kasar on October 19, 2015 at 5:04pm — 25 Comments
आज सुबह उस चाय की गुमटी पर गरमा गरम चाय पीते-पीते कुछ मुखों से शब्दों के अग्नि-बाण से निकल रहे थे।
"अरे सुना तुमने, मज़हब की बंदिशें तोड़ ग़रीब दोस्त संतोष को मुस्लिम युवक रज़्ज़ाक ने कल मुखाग्नि दी !"
यह सुनकर एक पंडित जी बड़बड़ाने लगे-
"सारा अंतिम संस्कार अपवित्र हो गया, पता नहीं आत्मा को कैसे शान्ति मिलेगी ?"
इस पर एक शिक्षित युवक बोला-
"अरे ये सब वो धर्मान्तरित मुसलमान हैं जो आज भी अपने मूल धार्मिक कर्मकांड गर्व से करते हैं।"
तभी एक दाढ़ी वाले ने दाढ़ी पर…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on September 21, 2015 at 9:30am — 24 Comments
तुम गोलाई में तलाशते हो कोण
सीधी सरल रेखा को बदल देते हो
त्रिकोण में
हर बात में तुम तलाशते हो
अपना ही एक कोण
तुम्हें सुविधा होती है
एक कोण पकड़कर
अपनी बात कहने में
बिन कोण के तुम
भीड़ के भंवर में
उतरना नहीं चाहते
तुम्हें या तो तैरना नहीं आता
या तुम आलसी हो
स्वार्थी और सुविधा भोगी भी
तुम्हें सत्य और झूठ से भी मतलब नहीं है
इस इस देश में गढ़ डाले है
तुमने हजारो लाखों कोण
हर कोण से तुम दागते हो तीर
ह्रदय को…
Added by Neeraj Neer on August 29, 2015 at 11:14am — 12 Comments
है खोया क्या किसे वो आज हर पल ढूँढ़ते हैं,
गगन में हैं हमारे पाँव भूतल ढूँढ़ते हैं ।
सभाओं में कोई चर्चा कोई मुद्दा नहीं है,
सभी नेपथ्य में बैठे हुए हल ढूँढते हैं ।
उन्हें होगा तज्रिबा भी कहाँ आगे सफर का,
वो सहरा में नदी, तालाब, दलदल ढूँढ़ते हैं ।
कहीं से खुल तो जाये कोठरी ये आओ देखें,
दरों पर खिडकियों पर कोई सांकल ढूँढ़ते हैं ।
यूँ भी बेकारियों का मसअला हो जायेगा हल,
जो अब तक खो दिया है…
ContinueAdded by भुवन निस्तेज on August 30, 2015 at 8:30am — 14 Comments
1222---1222---1222-1222 |
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मैं घर से दूर आया हूँ मगर कुछ ख़ास रखता हूँ। |
तुम्हारी याद की ताबिश हमेशा पास रखता हूँ। |
|
कभी वट पूजती हो तुम, दिखा के चाँद को… |
Added by मिथिलेश वामनकर on August 31, 2015 at 2:03pm — 28 Comments
2122 1212 112/22
ज़ख़्म सूखे निशान छोड़ गये
जैसे अपना बयान छोड़ गये
लौट के यूँ गये मेरे दिल से
मानो ख़ाली मकान छोड़ गये
सारी खुश्बू हवायें ले के गईं
ये भी सच है कि भान छोड़ गये
राग खुशियों के छिन्न भिन्न किये
मित्र, ग़मगीन तान छोड़ गये
उड़ गये जब परिंदे बाग़ों से
पीछे सब सून सान छोड़ गये
हाले दिल क्या बयान कर पाते ?
हम से कुछ बे ज़ुबान छोड़ गये
खुद चढ़ाई चढ़े…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on September 3, 2015 at 10:54am — 26 Comments
उकेर दिया है
समय की रेत पर
अपना हस्ताक्षर.
जानता हूँ
ख़त्म हो जाएगा
रेत के बिखराव से
मेरा वज़ूद.
संभावना यह भी
किसी संकुचन क्रियावश
घनीभूत हो रेत
प्रस्तर बन जाय .
तब देख पाओगे
खंडित होने तक
मेरा हस्ताक्षर.
कुच्छ भी तो नहीं है
अनंत.
(विजय प्रकाश)
मौलिक व अप्रकाशित
Added by Dr.Vijay Prakash Sharma on September 5, 2015 at 1:30pm — 12 Comments
छलछलाई आँखों से
मुस्कराई आँखों से
विदा दी देहरी ने
चल पड़ी मैं......
छलछलाई आँखों से
मुस्कराई आँखों से
स्वागत किया देहरी ने
हंस पड़ी मैं.........
रंगोली सजाने लगी
वंदनवार लगाने लगी
सज गयी देहरी
रम गयी मैं........
प्रीत ने बहका दिया
मीत ने महका दिया
लहरा गया आँचल
संवर गयी मैं........
ममता ने निखार दिया
आँचल भी संवार…
Added by Abha Chandra on September 9, 2015 at 4:00pm — 14 Comments
बन सौभाग्य सँवारे मुझको
सावन घिरे पुकारे मुझको
हाथ पकड़ झट कर ले बंदी
क्या सखि साजन?न सखि मेहंदी
उसने हाय! शृंगार निखारा
प्रेम रचा मन भाव उभारा
प्रेम राह पर गढ़ी बुलंदी
क्या सखि साजन? न सखि मेहंदी
अंग लगे तो मन खिल जाए
खुशबू साँसों को महकाए
प्यारी उसकी घेराबंदी
क्या सखि साजन? न सखि मेहंदी
उसमें महक दुआओं की है
उसमें चहक फिजाओं की है
हिमशीतल निर्झर कालिंदी
क्या…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on August 17, 2015 at 8:15am — 14 Comments
Added by Er Nohar Singh Dhruv 'Narendra' on August 19, 2015 at 3:53pm — 10 Comments
वो थी एक डायरी
गुलाबी जिल्द वाली
अन्दर के चिकने पन्ने
खुशनुमा छुअन लिए
मुकम्मल थी एकदम
कुछ खूबसूरत सा
लिखने के लिए I
सिल्क की साड़ियों की
तहों के बीच,
अल्मारी में सहेजा था उसे
उन मेहंदी लगे हाथों ने,
सेंट की खुशबू
और ज़री की चुभन
को करती रही थी वो जज़्ब,
हर दिन रहता था
बाहर आने का इंतज़ार
अपने चिकने पन्नों पर
प्यारा सा कुछ
लिखे जाने का इंतज़ार…
ContinueAdded by pratibha pande on August 20, 2015 at 5:00pm — 17 Comments
चीर चट्टान के सीने को मिला करते थे
तब मुहब्बत में सनम लोग वफ़ा करते थे
काट देता था ज़माना भले ही पर नाजुक
होंसलों से नई परवाज़ भरा करते थे
दिल के ज़ज्बात कबूतर के परों पर लिखकर
प्यार का अपने वो इजहार किया करते थे
कैस फ़रहाद या राँझा कई दीवाने तब
नाम माशूक का तो खूँ से लिखा करते थे
एक हम थे जो जमाने की नजर से डरकर
जल्द खुर्शीद के ढलने की दुआ करते थे
आज वो रह गए केवल मेरा…
ContinueAdded by rajesh kumari on August 23, 2015 at 10:00pm — 19 Comments
2212 2212 2212 22
बजता हूँ बन के साज तेरे मंदिरों में अब,
देता तुझे आवाज तेरे मंदिरों में अब |
मांगी थी मैंने उम्र की संजीदगी लेकिन,
क्यों इस तरह मुहताज तेरे मंदिरों में अब |
मन जिसका देखूं दुश्मनी की नीव पे काबिज़,
कैसे करूँ परवाज़ तेरे मंदिरों में अब |
बस रौशनी की खोज में भटका तमाम उम्र
पगला गया, नेवाज तेरे मंदिरों में अब |
ले चल मुझे शमशान, कोई गम जहाँ ना हो,
मेरा गया हमराज, तेरे मंदिरों में अब |…
Added by Harash Mahajan on July 30, 2015 at 11:02am — 37 Comments
धूमिल होती भ्रांति सारी, गण-गणित मैं तोड़ रही हूँ
कलम डुबो कर नव दवात में, रूख समय का मोड़ रही हूँ
मैं दुर्गेश्वरी बोल रही हूँ ......
नई भोर की चादर फैली, जन-जीवन झकझोर रही हूँ
धधक रही संग्राम की ज्वाला, सागर सी हिल-होर रही हूँ
मैं दुर्गेश्वरी बोल रही हूँ ......
टूटे हृदय के कण-कण सारे, चुन-चुन सारे जोड़ रही हूँ
उद्वेलित मन अब सम्भारी, विषय-जगत अब छोड़ रही…
Added by kanta roy on July 24, 2015 at 9:30am — 36 Comments
कागज़, कलम, और स्याही स्वयं को दूसरे से श्रेष्ठ सिद्ध करने में लगे हुए थे। कोई भी एक दूसरे के सामने झुकने को तैयार नहीं था। उनका झगड़ा देखकर कवि चुप न सका:
"क्या तुम लोगों को इस बात का भी आभास है कि बिना मेरी उँगलियों के सहारे तुम सब अस्तित्व हीन हो ! "
"किस अस्तित्व की बात कर रहे हो कविवर? अगर मैं न रहूँ तो तुम अपनी भावनाओ को किस चीज़ पर उकेरोगे?" कागज ने चेताया।
"अगर में रोशनाई न बिखेरूं तो लोग कागज पर क्या ख़ाक पढ़ेंगे?" पीछे से स्याही की आवाज आई I
"मेरे बगैर तुम्हारी…
Added by Pankaj Joshi on July 21, 2015 at 5:00pm — 5 Comments
आज एक महीना होने को आया था और क़लम ऐसी जड़ हुई थी कि आगे बढ़ने का नाम ही ना लेतीI
ऐसा उसके साथ पहले भी कई बार हुआ था ,कि वो लिखने बैठता और पूरा पूरा दिन गुज़र जाने पर भी काग़ज़ कोरा रह जाता, लेकिन यहाँ बात कुछ और ही थी ,आज खयालात उसके साथ कोई खेल नहीं खेल रहे थे , वो जानता था कि उसे क्या लिखना है ,कहानी के सारे किरदार उसके ज़हन में मौजूद थे I
वो बूढी मज़लूम औरत , वो भोली सी कमसिन बच्ची , वो सफ्फ़ाक आँखों वाला बेरहम क़ातिल , सारे किरदार उसकी आँखों के सामने…
ContinueAdded by saalim sheikh on July 22, 2015 at 2:00pm — 26 Comments
परिणति पीड़ा
रिश्ते के हर कदम पर, हर चौराहे पर
हर पल
भटकते कदम पर भी
मेरे उस पल की सच्चाई थी तुम
जिस-जिस पल वहीं कहीं पास थी तुम
जीवन-यथार्थ की कठिन सच्चाइयों के बीच भी
खुश था बहुत, बहुत खुश था मैं
पर अजीब थी ज़िन्दगी वह तुम्हारे संग
स्नेह की ममतामयी छाओं के पीछे भी मुझमें
था कोई अमंगल भ्रम
भीतरी परतों की सतहों में हो जैसे
अन-चुकाये कर्ज़ का कंधों पर भार
तुमसे कह न सका पर इतनी…
ContinueAdded by vijay nikore on August 16, 2015 at 5:30pm — 30 Comments
२१२२/२१२२/२१२/
मंज़िलों का जो पता दे जाएगा
ज़िंदगी का फ़लसफ़ा दे जाएगा.
.
और थोड़ा फ़ासला दे जाएगा
ज़िंदगी की गर दुआ दे जाएगा.
.
दिल को सतरंगी छटा दे जाएगा
फिर धड़कने की अदा दे जाएगा.
.
ग़म हमें अब और क्या दे जाएगा
बस नया इक तज्रिबा दे जाएगा.
.
आएगा कोई पयम्बर फ़िर नया
फ़िर नया हम को ख़ुदा दे जाएगा.
.
जब वो सोचेगा हमारे वास्ते
फिर वो मीरा, राबिया दे जाएगा.
.
“नूर” बरसेगा ख़ुदा का एक दिन
मुश्किलों…
Added by Nilesh Shevgaonkar on June 28, 2015 at 10:54am — 31 Comments
मजहब जिसने इंसानों को आपस में जोड़ा है
आज उसी मजहब ने क्यूँ दिल इंसा का तोडा है
कितनी सुंदर धरती है ये कितने सुंदर मंजर
पर राहों में उल्फत की क्यूँ नफरत का रोड़ा है
जिन की ख्वाइश धन दौलत दुनिया भर की हथिया लें
गर समझें तो आज समझ लें ये जीवन थोडा है
राम नाम जिस पाहन पर वो सागर में उतराए
डूब गया वो राम नाम के बिन जिसको छोड़ा है
तब तक चैन कहाँ पाया है इस इंसा ने जग में
जब…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Mishra on July 5, 2015 at 10:34am — 15 Comments
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