For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

All Blog Posts (18,988)

ग़ज़ल -- तू क्या बोले है ख़ुद अपने बारे में ( दिनेश कुमार )

22--22--22--22--22--2



बे-शक जन्नत होगी बलख-बुखारे में

छज्जू ख़ुश है अपने इस चौबारे में



दिले-मुसव्विर दुनिया की परवाह न कर

लोग तो नुक़्स निकालेंगे शह-पारे में



सारी बस्ती जल कर राख हुई देखो

थी चिंगारी एक सियासी नारे में



उसके नक़्शे-पा जब मील के पत्थर हैं

कुछ तो ख़ूबी होगी उस बंजारे में



तेरा काम ही चीख़ चीख़ कर बोेलेगा

तू क्या बोले है ख़ुद अपने बारे में



राजा बने भिखारी और भिखारी शाह

हश्र निहाँ हैं उसके… Continue

Added by दिनेश कुमार on June 10, 2017 at 3:28pm — 3 Comments

एक दो तीन - -

एक दो तीन- - - एक दो तीन

फिर अनगिन

मन्डराती रहीं चीलें

घेरा बनाए

आतंक के साएँ में

चिंची-चिंची-चिंची

पंख-विहीन |

एक दो तीन- - -

फुदकी इधर से

फुदकी उधर से

घुस गई झाड़ी में

पंजों के डर से

जिजीविषा थी जिन्दा

करती क्या दीन !

एक दो तीन- - -

झाड़ी में पहले से

कुंडली लगाए

बैठे थे विषदंत

घात लगाए

टूट पड़े उस पे

दंत अनगिन | एक दो तीन- - -

प्राणों को…

Continue

Added by somesh kumar on June 10, 2017 at 10:14am — 3 Comments

एक पहलू ये भी---

"अरे! सुनंदा सुनो भाई कब से फोन पर बातें कर रही हो. चलो अब खाना लगाओ जी. बडी भूख लगी है. क्या  इतनी लंबी बातें किए जा रही हो." 



"जी! "अंकुर" से. बता रहा आज किसे बिज़नेस …

Continue

Added by नयना(आरती)कानिटकर on June 9, 2017 at 10:45pm — No Comments

बाज़ुओं में ....

बाज़ुओं में ....

कौन रोक पाया है

समय वेग को

अपने गतिशील चक्र के नीचे

हर पल को रौंदता

चला जाता है

और लिख जाता है

धरा के ललाट पर

न मिटने वाली

दर्द की दास्तान

शायद

तुमने मेरे चेहरे की लकीरों को

गौर से नहीं देखा

तुमने सिर्फ

मुहब्बत के हर्फ़ पढ़े हैं

उन हर्फों को

बेहिजाब होते नहीं देखा

किर्चियों से चुभते हैं

जब ये हर्फ़

समय के अश्वों की

टापों के नीचे

बे-आवाज़ फ़ना हो जाते…

Continue

Added by Sushil Sarna on June 9, 2017 at 3:52pm — 4 Comments

स्पंदन....

1,स्पंदन......(२ मुक्तक)  :

व्यर्थ व्यथा है हार जीत की
निशा न जाने पीर  प्रीत की
नैन बंध सब शुष्क  हो  गए
आहटहीन हुई राह मीत की
.... ..... ..... ..... ..... ..... ..... ....

2.

गंधहीन हुए चन्दन  सब
स्वरहीन हुए क्रंदन  सब
स्मृति उर से रिसती रही
मौन हो गए स्पंदन  सब

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on June 9, 2017 at 12:54pm — 6 Comments

बोलती है चुप्पी भी ( कविता)

बोलती है चुप्पी भी
अपने तरीके से करती है बाते

इधर उधर देखती है
कभी मन्द मुस्कुरा देती है

कभी आँखों से करती है बयान
कभी चहरे पर भाव दिखाती है

बोलती है चुप्पी भी
ख़ामोशी से ही सही

पर कभी कभी दे जाती है
बड़े घाव ।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on June 9, 2017 at 12:53pm — 4 Comments

कुछ तुम बोलो कुछ हम बोलें

बहर  फ़ैलुनx ४

कुछ तुम बोलो कुछ हम बोलें

सारा  मैल  ह्रदय  का धो लें 

 

सुख की धूप खिल रही बाहर,

अन्दर की खिड़की तो खोलें.

 

उगा लिए हैं बहुत कैक्टस,

बीज फूल के भी कुछ बो लें

 

सूख न जाए आँख का पानी,…

Continue

Added by बसंत कुमार शर्मा on June 9, 2017 at 12:00pm — 2 Comments

अपवाद(लघुकथा)राहिला

पूरे गाँव से कुल पंद्रह लोग ऐसे गरीब थे जो कि उस सरकारी योजना के तहत प्रथम दृष्टिया लाभान्वित होने योग्य थे ।और अब तक सात नियम ,शर्तों में सभी खरे भी उतर गए थे।

"आठवां नियम ,अब जरा ध्यान से सुनना मैं कुछ सामान गिनवा रहा हूँ यदि ये सामान आपके घर में हो तो हाथ उठा दियो ।"सेकेट्री की आवाज पंचायत भवन में गूंजी। उसने जैसे ही कुछ समान गिनवाये ।

"अरे ओ महाराज !जो सामान तो शादी सम्मेेलन से मोड़ा खों मिलो,तो का हम अमीर हो गये वा से।"

"काका!सिरकारी नियम हैं इसमें हम का कर सकें।" इस नियम के… Continue

Added by Rahila on June 9, 2017 at 4:38am — 5 Comments

वीर चेतक(आल्हा छ्न्द)/सतविन्द्र कुमार राणा

*वीर चेतक*(वीर छ्न्द)



घोड़े देखे बहुत जगत में,देखा कब चेतक-सा वीर



बिजली-सी चुस्ती थी जिसमें लेकिन रहता रण में धीर



कद था छोटा ही उसका पर,लम्बा उसका बहुत शरीर



मारवाड़ की अश्व-नस्ल में राणा ने पाया वह बीर





हल्दी घाटी समर क्षेत्र में,राणा उसपे रहे सवार



चेतक मुख पर सूंड लगाए,गज पर करता चढ़-चढ़ वार



राणा का भाला चलता था,संग चली टापों की मार



आगे-पीछे हटता चेतक,दिखती रण कौशल में धार





हल्दी घाटी… Continue

Added by सतविन्द्र कुमार राणा on June 8, 2017 at 8:30pm — 9 Comments

दायरा

"तेरे पिता उस संगठन से जुड़े हैं जो इन्हें देखना तक नहीं चाहता और तू कहता है कि इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता?" कार्तिक आज भी उसी रेस्टोरेंट में बैठा था जहाँ सुमित ने कभी उससे ये बातें कही थीं। उसके हाथ में परवीन शाकिर की किताब थी तो ज़ेहन में ये ग़ज़ल, तुझसे कोई गिला नहीं है, क़िस्मत में मेरी सिला नहीं है।

"क्या ख़ूब ग़ज़ल सुनाई तुमने। किसकी है?" न्यू ईयर की पार्टी में लोगों ने ज़ोया से पूछा जिसने अभी हाल ही में ऑफिस ज्वाइन किया था।

"परवीन शाकिर की।" यह पहली बार था…

Continue

Added by Mahendra Kumar on June 8, 2017 at 10:30am — 7 Comments

फ़ितरत(लघुकथा)राहिला

भोर की चाय और छत का वह कोना जहाँ से गुलमोहर के फूलों से लदे पेड़ दूर तक दिखाई देते थे।ये उसकी रोज की बैठक थी।एक हाथ में चाय की ट्रे और दानों की कटोरी, दूसरे हाथ में पानी का जग ।वह अपने साथ अपनी सखियों को कभी नहीं भूलती।तभी एक बड़े रौबीले ,सजीले सुते हुए पंखों वाले चिड़वे ने उसका ध्यान आकर्षित किया ।वह बड़े ही मोहक अंदाज़ में चिड़ियों के आगे पीछे चक्कर लगा रहा था।वहीं चिड़ियां भी इठला रही थीं।उज़मा को ये सब देख कर मज़ा आने लगा।

रासलीला जारी थी कि अचानक चिड़वे ने अपने ऊंचे उठे पंखों को नीचे की ओर गिरा… Continue

Added by Rahila on June 8, 2017 at 12:17am — 2 Comments

गज़ल

।। 2122 2122 2122 212 ।।



पूछिये मत क्यो हमारी शोखियाँ कम पड़ गईं ।

जिंदगी गुजरी है ऐसे आधियाँ कम पड़ गईं ।।



भूंख के मंजर से लाशों ने किया है यह सवाल ।

क्या ख़ता हमसे हुई थी रोटियां कम पड़ गईं ।।



जुर्म की हर इंतिहाँ ने कर दिया इतना असर ।

अब हमारे मुल्क में भी बेटियां कम पड़ गईं ।।



मान् लें कैसे उन्हें है फिक्र जनता की बहुत ।

कुर्सियां जब से मिली हैं झुर्रियां कम पड़ गईं ।।



इस तरह बिकने लगी है मीडिया की शाख भी ।

जब लुटी… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on June 7, 2017 at 11:59pm — 6 Comments

श्वासों का क्षरण ...

श्वासों का क्षरण ...

मैं

बहुत रोयी थी

अपने एकांत में

तेरे बाद भी

कई रातों तक

तेरे अंक में सोयी थी

तेरा जाना

एक घटना थी शायद

दुनियां के लिए

मगर

असंभव था

तुझे विस्मृत करना

मैं तेरे गर्भ के अंक की

पहचान थी

और तू

मेरे स्मृति अंक की श्वास

सच

कोई भी नहीं देख पाया

मेरे रुदन को

तूने कैसे देख लिया

शुष्क पलकों में

तू मुझसे कल

मिलने आयी थी

अपने अंक में

तूने मुझे सुलाया…

Continue

Added by Sushil Sarna on June 7, 2017 at 4:14pm — 6 Comments

माँ

(1) इबादत ,भक्ति और संवाद है माँ,
कोमल,निश्छल और निर्विवाद है माँ,
दुखों की गठरी कांधों पे ढोहती,
ममता की वर्षा से आबाद है माँ ।
(2)रोशनी, दीपक कभी राहत है माँ,
घरेलू नुस्खा कभी हिक़मत है माँ,
लय,छंद,गति,पाठ कभी शब्द साग़र,
संबल-सहारा कभी चाहत है माँ ।
(3)शीतल छाया कभी सहूलत है माँ,
आँसू ,सिसकी कभी हिदायत है माँ,
पंचतंत्र, जातक कथाओं-सी सीख,
घरेलू झगड़ों की अदालत है माँ ।
मौलिक एवं अप्रकाशित ।

Added by Mohammed Arif on June 7, 2017 at 12:05pm — 13 Comments

ग़ज़ल- फासला रह गया

मापनी २१२ २१२ २१२ २१२ 

रात दिन बस यही सोचता रह गया

पास आकर भी क्यों फासला रह गया  

 

पत्थरों से लड़ाई कहाँ तक करे,

तोप का मुँह सिला का सिला रह गया

 

चढ़ गयीं परतें मुखोटे पे’ उनके कई,

बेखबर देखता आइना रह  गया

 

वज्न…

Continue

Added by बसंत कुमार शर्मा on June 7, 2017 at 9:30am — 19 Comments

द्वितीय

 ट्रेन के चलते ही एक तरुण दैनिक यात्री  द्वितीय श्रेणी के स्लीपर क्लास में दाखिल  हुआ. आरक्षित श्रेणी के यात्री अधिकांशतः अपनी बर्थ पर अधपसरे हुए थे . एक बर्थ के कोने पर खाली जगह देखकर वह बैठने जा ही रहा था कि उस पर बैठे अधेड़ व्यक्ति ने गुर्राकर कहा –‘आगे बढ़ो,…

Continue

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 6, 2017 at 8:54pm — 2 Comments

हास्य ग़ज़ल - खूब फटे में टांग अड़ाएं

यार चलो  नेता बन जाएँ

खूब  फटे  में टाँग अड़ाएँ  

 

शेयर जैसे सुबह उछलकर,

लुढ़क शाम को नीचे आएँ

 

जंतर मंतर पर जाकर हम,

मूंगफली  का  भाव बढ़ाएँ

 

उल्टा पुल्टा बोल बोल कर,

चप्पल, जूते, थप्पड़ खाएँ…

Continue

Added by बसंत कुमार शर्मा on June 6, 2017 at 8:30am — 10 Comments

"अपनी धरती -अपना अंबर" - अर्पणा शर्मा /पर्यावरण दिवस पर विशेष

आओ बनाएँ निर्मल, अक्षय, सुंदर ,

यह प्रिय धरती अपनी-अपना अंबर



प्रकाश ध्वनि जलवायु में,

सर्वत्र प्रसारित प्रदूषण विषधर,

करें पर्यावरण विषैला नित ड़ंस-ड़ंस कर,

बढ़ गये हैं छिद्र ओजोन परत पर,

नानाविध रोग करते जीवन दूभर ,



कट रहे वर्षावन अंधाधुँध,

हर ओर फैल रहे विशाल बंजर,

वर्षा आह्वान में ये सक्षम क्यूँकर,

बंजर से कैसे निर्मित हों जलधर,

कई जीव-पाखी खोगये विलुप्त होकर,



कहीं रूठ जाते वर्षा के ये कहार,

कहीं बरस जाते… Continue

Added by Arpana Sharma on June 5, 2017 at 8:07pm — 4 Comments

खूंटी पर टंगी कमीज़ को ....

खूंटी पर टंगी कमीज़ को ....

जब जब

मैं छूती हूँ

खूंटी पर

टंगी कमीज़ को

मेरा समूचा अस्तित्व

रेंगने लगता है

उस स्पर्शबंध के आवरण में

जहां मेरा शैशव

निश्चिंत सोया करता था

अब

जब आप नहीं रहे

मैं इस कमीज़ में

आपको महसूस करती हूँ

सामना करती हूँ

हर उस दूषित दृष्टि का

जो मेरे शरीर पर

अपनी कुत्सित भावनाओं की

खरोंचें डालती है

मेरी दृष्टिहीनता को

मेरी कमजोरी मानती है

न, न

आप…

Continue

Added by Sushil Sarna on June 5, 2017 at 4:11pm — 7 Comments

ग़ज़ल -- दुनियादारी में अब तक हम बच्चे थे

22--22--22--22--22--2



जो तूफ़ाँ के डर से तटपर ठहरे थे

बशर नहीं थे वो पुतले मिट्टी के थे



कब तक तेरी हाँ सुनने को रुकते हम

हमको अपने फ़र्ज़ अदा भी करने थे



दिल के ज़ख़्म बयाँ करना कुछ मुश्किल था

आँखों में आँसू लब पर अंगारे थे



हॉट पे क्या बिकता था मुझको क्या मतलब

मेरी जेब में बस ख़्वाबों के सिक्के थे



जिसका पेट भरा है वो क्या समझेगा

भूख से मरने वाले कितने भूखे थे



दरियाओं के संग न अपनी यारी थी

प्यास बुझाने… Continue

Added by दिनेश कुमार on June 5, 2017 at 3:59pm — 6 Comments

Monthly Archives

2024

2023

2022

2021

2020

2019

2018

2017

2016

2015

2014

2013

2012

2011

2010

1999

1970

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Dayaram Methani commented on अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी's blog post ग़ज़ल (ग़ज़ल में ऐब रखता हूँ...)
"आदरणीय अमीरुद्दीन 'अमीर' जी, गुरु की महिमा पर बहुत ही सुंदर ग़ज़ल लिखी है आपने। समर सर…"
1 hour ago
Dayaram Methani commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - तो फिर जन्नतों की कहाँ जुस्तजू हो
"आदरणीय निलेश जी, आपकी पूरी ग़ज़ल तो मैं समझ नहीं सका पर मुखड़ा अर्थात मतला समझ में भी आया और…"
1 hour ago
Shyam Narain Verma commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post करते तभी तुरंग से, आज गधे भी होड़
"नमस्ते जी, बहुत ही सुंदर और उम्दा प्रस्तुति, हार्दिक बधाई l सादर"
Saturday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
"आदाब।‌ बहुत-बहुत शुक्रिया मुहतरम जनाब तेजवीर सिंह साहिब।"
Oct 1
TEJ VEER SINGH replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
"हार्दिक बधाई आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी साहब जी।"
Sep 30
TEJ VEER SINGH replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
"हार्दिक आभार आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी साहब जी। आपकी सार गर्भित टिप्पणी मेरे लेखन को उत्साहित करती…"
Sep 30
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
"नमस्कार। अधूरे ख़्वाब को एक अहम कोण से लेते हुए समय-चक्र की विडम्बना पिरोती 'टॉफी से सिगरेट तक…"
Sep 29
TEJ VEER SINGH replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
"काल चक्र - लघुकथा -  "आइये रमेश बाबू, आज कैसे हमारी दुकान का रास्ता भूल गये? बचपन में तो…"
Sep 29
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
"ख़्वाबों के मुकाम (लघुकथा) : "क्यूॅं री सम्मो, तू झाड़ू लगाने में इतना टाइम क्यों लगा देती है?…"
Sep 29
Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
"स्वागतम"
Sep 29
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-171
"//5वें शेर — हुक्म भी था और इल्तिजा भी थी — इसमें 2122 के बजाय आपने 21222 कर दिया है या…"
Sep 28
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-171
"आदरणीय संजय शुक्ला जी, बहुत अच्छी ग़ज़ल है आपकी। इस हेतु बधाई स्वीकार करे। एक शंका है मेरी —…"
Sep 28

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service