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...जब हर ओर विसंगतियाँ हैं (गीत)

कहाँ भला ख़ुशियों को ढूँढें 

जब हर ओर विसंगतियाँ हैं...

क़समों-वादों के पत्तों पर सजे हुए हर ओर जुए हैं 

सतहों तक स्पर्श रुके बस, कोर किसी ने कहाँ छुए हैं 

कोशिश बिन रेशम से नाज़ुक बन्धन अब कैसे सँवरेंगे 

जीवन की आपाधापी में रिश्ते जब बेमोल हुए हैं

उफ़! विकल्प हैं अपनों के भी 

बाँचे कौन! कहाँ कमियाँ हैं ?

कहाँ भला ख़ुशियों को ढूँढें जब हर ओर विसंगतियाँ हैं...

मानवता का घूँघट ओढ़े दानव बैठे घात…

Continue

Added by Dr.Prachi Singh on June 14, 2017 at 9:15pm — No Comments

कालू की बेटी (लघुकथा)/ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

आज फिर यहां लोगों का जमावड़ा था। हर तबके की हर आयु वर्ग की लड़कियों, महिलाओं या पुरुषों​का आना-जाना कुछ दिनों से चल रहा था। कोई आभार व्यक्त करने, तो कोई मदद पाने के इरादे से सम्पर्क साधने की कोशिश में था। दरअसल दो सालों के बाद कालू की बेटी विदेश से आई हुई थी। कोई कालू को घेरे हुए था, तो कोई उसकी बेटी को। कालू को सेवा-मुक्त हुए लम्बा समय हो चुका था। बड़े नेताजी के बगीचे के माली बनने से लेकर उनका खास ड्राइवर बनने और फिर उनके खेतों का रखवाला बनने तक के तजुर्बे और फिर रिटायर होने पर लोगों से घिरे… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on June 14, 2017 at 1:58pm — 5 Comments

1 . नटखट नज़र .../2 . भीगी सौगातें ...

1 . नटखट नज़र ...

हो जाती बरसात तो गज़ब  होता
फिर वो भीगी हया का क्या होता
वो उड़ती चुनर पे नटखट  नज़र
भटक जाती अगर तो क्या  होता

2 . भीगी सौगातें ..

.

सावन की रातें हैं सावन की बातें है 

सावन में भीगी सी चंद मुलाकातें है
इक दूजे में सिमटे वो भीगे से  लम्हे
साँसों की साँसों को भीगी सौगातें हैं

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on June 14, 2017 at 1:30pm — 4 Comments

गज़ल

1222 1222 122

उसे सर पर बिठाया जा रहा है ।

किसी पे जुर्म ढाया जा रहा है ।।



उन्हें मालूम है अपनी तरक्की ।

जहर को आजमाया जा रहा है ।।



चलेगा किस तरह गर्दन पे ख़ंजर ।

तरीका सब सिखाया जा रहा है ।।



जो नफरत में चलाता रोज पत्थर ।

उसे अपना बताया जा रहा है ।।



जो चारा खा चुके हैं जानवर का ।

उन्हें नेता बुलाया जा रहा है ।।



वो गायें काटते हैं वोट खातिर ।

नया मजहब चलाया जा रहा है ।।



जे एन यू में है गद्दारी का… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on June 14, 2017 at 12:30am — 6 Comments

मुहब्बत होती है

मात्रिक छंद आधारित एक गीतिका

 

स्वीट कभी नमकीन, मुहब्बत होती है

जग में बहुत हसीन, मुहब्बत होती है

 

थोड़ा  थोड़ा  त्याग, तपस्या हो  थोड़ी,

फिर न कभी ग़मगीन, मुहब्बत होती है

 

चढ़ती है परवान, नाम दुनिया में होता,

जितनी  भी  प्राचीन, मुहब्बत होती…

Continue

Added by बसंत कुमार शर्मा on June 13, 2017 at 3:39pm — 10 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
हम पत्थर को अपना बैठे (छोटी बह्र पर ग़ज़ल 'राज')

२ २ २ २  २ २ २ २

हम अपनों को बिसरा बैठे

गम पास हमारे आ बैठे

 

 जलने की तमन्ना थी दिल में

सूरज को हाथ लगा बैठे

 

तुम शाद रहो आबाद रहो

हम तो दिल को फुसला बैठे

 

जब दुनिया में इंसा न मिला

हम पत्थर को अपना बैठे

 

कश्ती ने  हाथ बढ़ाया जब

 हम दूर किनारे  जा बैठे

 

कैसा शिकवा कैसा गुस्सा

किस्मत से हाथ मिला बैठे

 

गिर्दाब बनाया  हमने जो                                  …

Continue

Added by rajesh kumari on June 13, 2017 at 12:30pm — 9 Comments

ग़ज़ल

122 122 122 122

तेरे अक्स के ख्वाब आते रहेंगे ।

मुहब्बत की रस्मे निभाते रहेंगे ।।



ये जुल्फों के साये में तेरे तबस्सुम ।

मुझे उम्र भर तक सताते रहेंगे ।।



नज़ारों से लूटा गया हूँ बहुत मैं ।

मगर फिक्र दिल से उडाते रहेंगे ।।



न ठुकरा सकोगी हमारी मुहब्बत ।

यकीनन तुझे याद आते रहेंगे ।।



बड़ी आरजू थी मुलाकात होगी ।

खबर क्या थी चिलमन गिराते रहेंगे ।।



तेरी खुशबुओं को बिखेरा करें वो ।

हवाओं से चर्चा चलाते रहेंगे… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on June 13, 2017 at 12:30am — 13 Comments

ख़ामोशी (हाइकू)

1

कैसी ख़ामोशी

हर तरफ़ देखो

रात खामोश



2

यह जो तुम

हो गये हो ख़ामोश

बदली छायी ।



3

बदल गए

सोचा न ऐसा  कभी

ख़ामोशी बोली ।



4

दूर हो गए

कदम ख़ामोशी के

चलते चले ।



5

जब टूटेगी

ख़ामोशी बादलों की

वर्षा ही होगी ।



6

सुनायी देती

ख़ामोशी की ज़ुबान

आँखों में देख ।



7

लम्बी ख़ामोशी

काँटो सी है चुभति

समझे कोई ।



8

रहने लगे…

Continue

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on June 12, 2017 at 11:00pm — 2 Comments

***असली कीमत***(लघुकथा)राहिला

उस जबरदस्त भूकंप के शांत होने पर शुभा ने खुद को अपनी नन्ही बिटिया के साथ जाने कितने ही नीचे मलवे में दबा पाया।भाग्य से छत का एक बड़ा सा हिस्सा कुछ ऐसे गिरा कि एक गार सी बन गयी।और चंद सांसे उधार मिल गयी ।दोनों सहमी सी ,आपस में सिमटी हुई मदद की उम्मीद में एक दूसरे का सहारा बनी हुई थीं।लेकिन जब काफी समय गुजर गया और किसी का हाथ मदद के लिए आता नहीं दिखाई पड़ा तो घोर निराशा ,डर और सामने बाहें फैलाये मौत को देख कर आंखों से बेबसी बरस पड़ी ।

"मम्मा!भूख लगी है।"नन्ही रिया ने उस का ध्यान… Continue

Added by Rahila on June 12, 2017 at 8:08pm — 7 Comments

मैं तस्वीर हो गया ...

मैं तस्वीर हो गया ...

क्यूँ

मेरी तस्वीर को

दीवार पर लगाते हों

एक कल को

वर्तमान बनाते हो

आज तक

कोई मेरे चेहरे को

पढ़ न पाया था

हर अपने ने मुझे

अपने स्वार्थ का

मोहरा बनाया था

मेरी हंसी भी मज़बूर थी

मेरा अश्क भी पराया था

यूँ जीवित रहने का

मैंने हर फ़र्ज़ निभाया था

चलो अच्छा हुआ

मैं एक अनकही तहरीर हुआ

बेगानों से अपनों की

ज़ागीर हुआ

अब मेरा सम्मान मोहताज़ नहीं

किसे से छुपा कोई राज़ नहीं…

Continue

Added by Sushil Sarna on June 12, 2017 at 3:00pm — 5 Comments

ग़ज़ल -फिक्र बनकर तिश्नगी अक्सर सवर जाती है रोज़ ।

2122 2122 2122 212(1)







फिक्र बनकर तिश्नगी अक्सर सँवर जाती है रोज़ ।

उस दरीचे तक मेरी सहमी नज़र जाती है रोज़ ।।



मुन्तजिर आंखे गवाही दे रही हैं इश्क़ की ।

आइने के सामने कितना निखर जाती है रोज़ ।।



सिम्त शायद है ग़लत उलझे हुए हालात हैं ।

है मुसीबत बदगुमां घर में ठहर जाती है रोज़ ।।



जिंदगी के फ़लसफ़े में है बहुत आवारगी ।

ठोकरें खाने की ख़ातिर दर बदर जाती है रोज़ ।।



यह उमीदों का परिंदा भी उड़े तो क्या उड़े ।

बेरुखी तो बेसबब… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on June 12, 2017 at 2:28pm — 6 Comments

मुक्तक

(1) कुछ लोग ये चमन जला रहे हैं,
मज़बूर का बदन जला रहे हैं,
थमा के हाथों में हथियार वो,
ख़ुशियों भरा वतन जला रहे हैं ।
(2)संस्कारों का अब पतन हो रहा,
व्याभिचार के घर हवन हो रहा,
अनशन, भूख हड़ताल से हारा,
जीते जी किसान दफ़न हो रहा ।
(3)परिंदों के लिये जहान कहाँ है,
मुहब्बत करना आसान कहाँ है,
सभी ग़मों के समंदर में डूबे,
चेहरों पे अब मुस्कान कहाँ है ।
मौलिक एवं अप्रकाशित ।

Added by Mohammed Arif on June 12, 2017 at 11:30am — No Comments

दृश्य

लोकतंत्र के दड़बे में

मुर्गी जब से मोर हो गई

सावन ही सावन दिखता है

सब कुछ मनभावन दिखता है |

 

लोकतंत्र के पिंजड़े में

कौए जब से कैद हो गए

टांय-टांय का टेर लगाते

सब कुछ मनभावन बतलाते |

 

लोकतन्त्र के फुटपाथों पर

दाना खाता श्वेत कबूतर

बस कूहू-कूहू गाता है

सब मधुर-मधुर बतलाता है |

 

लोकतन्त्र के हरे पेड़ पर

कठफोड़वा हो गया कारीगर

“अहं-बया” चिल्लाता है

सब कुछ अच्छा बतलाता है…

Continue

Added by somesh kumar on June 12, 2017 at 9:00am — No Comments

हाइकू

हाइकू



1

पैसा बोलता

सर चढ़कर है

घमण्डी होता ।



2

पैसा जरुरी

इन्कार तो नहीं है

पर कितना



3

खुशियाँ वहीँ

पहाड़ों पे मिलती

पैसे वालो को



4

सुकून ख़ोजे

क़ैद होकर जब

हंसता पैसा



5

बोले है पैसा

न चाहते हुए भी

अमीर वाणी



6

तौला प्यार को

पैसों की जुबान से

न चला पता ।



7

तलवार सी

धार पैसो की होती

वार करती ।



8

बदले… Continue

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on June 11, 2017 at 10:55pm — 8 Comments

तू है मैं हूँ

          तू है मैं हूँ

तू है मै हूं और साथ मेरी तन्हाई है

क्यूँ कल तू फिर मेरे सपने में आयी है

तेरा इस कदर मेरे सपने में आना

और आकर फिर इस तरह से जाना

मेरा चैन और सुकूंन सब तेरा ले जाना

मेरे सपने में तेरा यूँ आके चले जाना

बिन तेरे ना कुछ भी अब अच्छा लगता है

तेरा यूँ छोड़ के जाना ना अच्छा लगता है

क्यूँ तुझको प्यार मेरा ना सच्चा लगता है

बस तेरे में खो जाना क्यूँ अच्छा लगता है

बिन तेरे ना कुछ भी अब अच्छा लगता…

Continue

Added by रोहित डोबरियाल "मल्हार" on June 11, 2017 at 10:11pm — 2 Comments

गीत-हे हरि हर लो हिय के दुख सब-रामबली गुप्ता

हे हरि हर लो हिय के दुख सब।



सकल चराचर जग के स्वामी! कृपा करो कर शीश रखो अब।

हे हरि हर लो......



चतुर्वेद-वेदांग-पुराणों से भी ऊपर ज्ञान तुम्हारा।

वन-वन गिरि-गिरि भटका नर पर तुमको जान न पाया हारा।

भेद मिटाकर सभी प्यार का जिसने दिल में दीप जलाया।

नही किसी मंदिर-मस्जिद में उसने तुमको खुद में पाया।



सत्य न यह स्वीकारे जग में ऐसा कौन मनुज या मज़हब?

हे हरि हर लो.......



सूर्य-चंद्र की ज्योति तुम्हीं गति ग्रह-उपग्रह ने तुमसे पाई।

जग… Continue

Added by रामबली गुप्ता on June 11, 2017 at 7:45pm — 8 Comments

ग़ज़ल...मगरूर है वो हमसफ़र

गैर मुरद्दफ़ ग़ज़ल..बहरे रजज़ मुरब्बा सालिम
मुस्तफ्इलुन मुस्तफ्इलुन
2212 2212
मगरूर है वो हमसफ़र
हैरान हूँ ये जानकर

अपनी जड़ों से टूटकर
क्यूँ आदमी है दर-ब-दर

जाना कहाँ थे आ गये
ये पूँछती है रहगुजर

सब आहटें खामोश हैं
चुपचाप सी है हर डगर

आसान है अब तोड़ना
बिखरे हुये हैं सब बशर

बेआबरू ऐ इश्क़ के
हम भी बड़े थे मोतबर
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on June 11, 2017 at 5:59pm — 8 Comments

ग़ज़ल

*1212 1212 1212 1212*

सितम की आरजू लिए है वक्त आजमा रहा ।

जो हो सका नहीं मेरा वो रास्ता बता रहा ।।



अजीब दास्ताँ है ये न् कह सका न् लिख सका।

ये हाथ मिल गए मगर वो फासला बना रहा ।।



है हसरतों की क्या ख़ता उन्हें जो ये सजा मिली ।

मैं कातिलों का रात भर गुनाह देखता रहा ।।



बड़ी उदास शब दिखी न् माहताब था कहीं ।

वो कहकशां सहर तलक हमें ही घूरता रहा ।।



जो सिलसिला चला नही उसी का जिक्र फिर सही ।

धुँआ उठा बहुत मगर न आग का पता रहा… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on June 11, 2017 at 5:32pm — 4 Comments

चुग्गा

   चुग्गा

 

उस अज़नबी स्त्री की

मटकती पतली कमर पे

पालथी मारकर बैठा है

मेरा जिद्दी मन |

पिंजरे का बुढ़ा तोता

बाहर गिरी हरी मिर्च देख

है बहुत ही प्रसन्न  |

x x x x x x x  x

पसीना-पसीना पत्नी आती है

मुझपे झ्ल्ल्लाती है

रोती मुनिया बाँह में डाल

मिर्च उठाकर चली जाती है

x x x x x x x x  x

तोता मुझे और

मैं तोते को

देखता हूँ |

वो फड़फड़ा कर

पिंजरा हिलाता है…

Continue

Added by somesh kumar on June 11, 2017 at 11:32am — 2 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल - रास्ते ही मेरे तवील आये ( गिरिराज भंडारी )

2122     1212    22  /112

चाहे ग़ालिब, या फिर शकील आये  

गलतियाँ कर.., अगर दलील आये

 

मिसरे मेरे भी ठीक हो जायें

साथ गर आप सा वक़ील आये

 

ख़ुद ही मुंसिफ हैं अपने ज़ुर्मों के

और अब खुद ही बन वक़ील आये  

 

भीड़ में पागलों की घुसना क्यों ?

हो के आखिर न तुम ज़लील आये

 

ज़िन्दा लड़की ही घर से निकली थी

जाने क्या सोच कर ये चील आये

 

आग-पानी सी दुश्मनी रख कर

बह के पानी सा, बन ख़लील…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on June 11, 2017 at 8:30am — 6 Comments

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