देश में रहकर मुहब्बत, देश से करते चलो!
देश आगे बढ़ रहा है, तुम भी डग भरते चलो.
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देश जो कि दब चुका था, आज सर ऊंचा हुआ है,
देश के निर्धन के घर में, गैस का चूल्हा जला है
उज्ज्वला की योजना से, स्वच्छ घर करते चलो.
देश में रहकर............
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देश भारत का तिरंगा, हर तरफ लहरा रहा,
ऊंची ऊंची चोटियों पर, शान से फहरा रहा,
युगल हाथों से पकड़ अब, कर नमन बढ़ते चलो.
देश में रहकर............
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देश मेरा हर तरफ से, शांत व आबाद…
ContinueAdded by JAWAHAR LAL SINGH on June 7, 2016 at 8:30am — 18 Comments
"क्या कर रहा है बे, सब खा-पी रहे हैं और तू अपने स्मार्ट फोन में भिड़ा हुआ है!" थ्री-स्टार होटल में चल रही ज़बरदस्त पार्टी में दोस्तों के बीच बैठे दीपक ने असलम से कहा।
"माह-ए-रमज़ान का चाँद दिख गया है, मुबारकबाद के ढेरों संदेशों के जवाब दे रहा हूँ!" - असलम ने सोशल साइट्स पर अपना संदेश सम्प्रेषित करते हुए कहा और कोल्ड-ड्रिंक पीने लगा। आज वह दोस्तों से लगाई शर्त हार गया था, सो इतनी महँगी पार्टी देनी पड़ी थी।
"यार, ये तो बता कि तू भी सचमुच कल से रोज़े रखेगा, कैसे रह लेता है भूखे-प्यासे…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on June 7, 2016 at 1:00am — 15 Comments
क्या पता था इश्क़ मे ये हादसा हो जाएगा
वो वफ़ा की बात करके बेवफ़ा हो जाएगा
रास्ता पुरख़ार है या मौसमे गुल से भरा
जब भी निकलोगे सफ़र में सब पता हो जाएगा
रफ़्ता रफ़्ता ज़िंदगी भी बेवफ़ा हो जाएगी
रफ़्ता रफ़्ता इस जहां में सब फ़ना हो जाएगा
धड़कनें पूछेंगी ख़ुद से बेक़रारी का सबब
दो दिलों के दरमियाँ जब फ़ासला हो जाएगा
कौन किसका साथ देता है यहाँ पे उम्र भर
शाम तक तेरा ये साया भी जुदा हो जाएगा
अपने…
ContinueAdded by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on June 6, 2016 at 11:56pm — 14 Comments
Added by जयनित कुमार मेहता on June 6, 2016 at 9:32pm — 12 Comments
Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on June 6, 2016 at 9:30pm — 17 Comments
"तुम लोगों की बातचीत सुन रहा था। बड़ी अच्छी हिन्दी बोलते हो, लगता है काफी पढ़े-लिखे हो!" आलोक नेे गृह-निर्माण कार्य में लगे कारीगरों से कहा।
"नहीं साहब, हम तो अंगूठा छाप हैं!" बड़े कारीगर ने ईंट के ऊपर सीमेंट-गारा डालकर उस पर दूसरी ईंट जमाते हुए कहा।
"तो फिर इतनी अच्छी हिन्दी कैसे बोल लेते हो?"
"हम पढ़-लिख नहीं पाये, तो टीवी देखकर पढ़े-लिखों की भाषा ध्यान से सुनकर सीखते हैं, आप लोगों की बातें सुनकर भी कुछ सीख लेते हैं!" कारीगर ने बड़े ही आत्मविश्वास से कहा।
"लेकिन तुम लोग तो…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on June 6, 2016 at 4:30pm — 9 Comments
अपना मकां बना जाता है ....
कितना अजीब होता है
उससे अपनापन निभाना
जो न होकर भी
सबा की मानिंद
करीब होता है
ये दिल
अपने रूहानी अहसास को
बड़ी निर्भीकता से
उस अदृश्य देह को कह देता है
जिसे देह की उपस्थिति में
व्यक्त करने में
इक उम्र भी कम होती है
हम उसे कह भी लेते हैं
और उसकी
अदैहिक अभिव्यक्ति को
बंद किताबों में
सूखते गुलाबों की
गंध की तरह
पढ़ भी लेते हैं
वो न…
ContinueAdded by Sushil Sarna on June 6, 2016 at 1:09pm — 2 Comments
चाह नही मेरी कि मैं ,अफसर बन सब पर गुर्राउं।
चाह नही मेरी कि मैं ,सत्ता में दुलराया जाऊं।।
लाल बत्ती की खातिर मैं ,अपनों का न गला दबाऊं।
गरीब जनों की सेवा करके ,आशीर्वाद उन्हीं का पाऊं।।
बड़े हमेशा बड़े रहेंगे ,छोटों को भी बड़ा बनाऊँ।
हर एक बच्चा बने साक्छर ,रोजगार के अवसर लाऊँ।।
मिटे गरीबी आये खुशहाली ,ऐसी मैं एक पौध लगाऊँ।।
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(नीरज खरे)
मौलिक एवम् अप्रकाशित
Added by NEERAJ KHARE on June 6, 2016 at 7:30am — 3 Comments
Added by shree suneel on June 6, 2016 at 3:39am — 7 Comments
आते है गंदले कीचड़े उथले नारे नदी
मिलते है गंगा में और गंगा हो जाते हैं
पर गंगा बन मिलते है जब सागर में
गंगा के नामो निशाँ मिट जाते हैं .....…
Added by amita tiwari on June 5, 2016 at 8:00pm — 7 Comments
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on June 5, 2016 at 6:03pm — 6 Comments
Added by Manan Kumar singh on June 5, 2016 at 4:00pm — 6 Comments
न जाने याद क्यों आती, मुझे बीती दिनो की अब।
बता दो बेवफा इतना, तड़प मेरी मिटेगी कब।
निकलता अासमा में चॉंद, धरती पे नही निकले
तुम्हारी याद ऐसी है कि ये दिल से नहीं निकले
हजारो है यहॉं लेकिन न कोई मीत तुम जैसा
मगर सब पूछता खुद से, बता वो मीत था कैसा
पुकारू मैं किसे बोलो, रहूँ तन्हा परेशा जब
न जाने याद क्यों आती, मुझे बीती दिनो की अब।
बता दो बेवफा इतना, तड़प मेरी मिटेगी कब।
मुझे है चॉंद से नफरत, हवा उसको उडा ले…
ContinueAdded by Akhand Gahmari on June 5, 2016 at 11:05am — 2 Comments
क्यों भाई काँटे
शरीर ढूँढते रहते हो चुभने के लिए?
पैर से खींचकर निकाले गए
काँटे से मैंने पूछा
बस फैंकने को तत्पर हुई कि
वह बोल उठा
तुम मनुष्यों की
यही तो दिक़्क़त है
अपनी भूलों का दोष
तटस्थों पर मढ़ते आये हो
मैं कहाँ चल कर आया था
तुम्हारे पैरों तक ,चुभने को
मैं नहीं तुम्हारा पैर आकर
चुभा था मुझको
मैँ ध्यान मग्न पड़ा था
कि अचानक एक भारी सा पैर
आकर सीधा धँसा था
मेरे पूरे शरीर पर
उफ्फ वह घुटन भरी…
Added by Tanuja Upreti on June 5, 2016 at 10:30am — 7 Comments
94
अच्छे दिन!
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राहु कुपित हैं या शनि की महादशा का प्रभाव
मंगल विमुख हैं या गुरु की कृपा का अभाव,
कितनी दयनीय दशा है...... ! ! !
अनिरुद्ध कालचक्र कैसा फंसा है!
विवेचना .... थकती है, कथनी.. रुकती है,
रूखी सूखी सी लगातार....साॅंस..... बस, चलती है ! ! !
घर - बाहर , बाजार - बीहड़, दिन - रात,
अन्तर्वेदना, करुणा, निराशा के आघात,
नियामक ने व्युत्क्रम स्वरूप तो लिया नही !
अदभुद् विकल्पों को आधार मिला नहीं !…
फिर भी.... ये…
Added by Dr T R Sukul on June 4, 2016 at 11:24pm — 6 Comments
गंगा निर्मल पावनी, नहीं मात्र जल धार.
अपने आंचल नेह से, करती है उद्धार.
करती है उद्धार, प्रेम श्रद्धा उपजा कर.
जन खग पशु वन बाग, सिक्त हैं कूप-सरोवर.
हुआ कठौता धन्य, करे सबका मन चंगा.
भारत का सौभाग्य, मोक्ष सुखदायी गंगा.
मौलिक व अप्रकाशित
रचनाकार....केवल प्रसाद सत्यम
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 4, 2016 at 8:30pm — 6 Comments
टूटे पैमाने ....
२२ २२ २२ २
कुछ टूटे पैमाने हैं
कुछ रूठे दीवाने हैं
कुछ हैं सपनों में डूबे
कुछ खुद से अंजाने है
यादों के तहखानों में
बंद कई अफ़साने हैं
सोये शानों पर मेरे
टूटे ख़्वाब पुराने हैं
सहमे सहमे आँखों से
छलके दर्द दीवाने हैं
मुझको उसकी नज़रों से
बहते ज़ख्म चुराने हैं
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on June 4, 2016 at 6:40pm — 12 Comments
2212 2212 2212 2212
नखरे ततैय्ये से अजी इनको मिले भरपूर हैं
अपनी करें मन की खुदी खुद में बड़े मगरूर हैं
मतलब पड़े तारीफ़ करते हैं मगर सच बात ये
जोरू इन्हें मुर्गी, पड़ोसन सारी लगती हूर हैं
अंदाज इनके देख के गिरगिट भरें पानी यहाँ
पल में करेले नीम से पल में लगें अंगूर हैं
वादा करें ये तोड़ के देंगे फ़लक से चाँद को
माँगें अगर साड़ी कहें जानम दुकानें दूर हैं
गाते चुराकर गीत ये चोरी की…
ContinueAdded by rajesh kumari on June 4, 2016 at 5:19pm — 10 Comments
Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 4, 2016 at 4:22pm — 1 Comment
एक बड़े ही अनुकूल सर्व सुविधा युक्त घूरे पर बर्षों से घरेलू मक्खियों की पीढ़ियां मजे से जिंदगी बसर कर रही थीं। ऐसे में ना जाने कौन साफ तबियत वाले ने नगर पालिका को घूरा हटाने का आवेदन दे मारा । इसकी खबर जैसे ही मख्खियों को लगी, उनमें खलबली मच गई । उन्हें इतना व्यथित देख,एक बूढ़ी सियानी मक्खी ने सांत्वना दी ।
"अरे इतना क्यूं घबरा रही हो? इतिहास गवाह है, आजतक हमें कोई नहीं मिटा पाया । "
"लेकिन दादी मख्खी! अगर नगर पालिका वाले सचमुच आ गये तो,हम बच्चों को लेकर कहाँ जायेंगे? "
"कहीं…
Added by Rahila on June 4, 2016 at 7:00am — 13 Comments
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