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दोहे/सतविंदर

माँ

=====

जननी से सबको मिला,जीवन ये अनमोल

कर्ज चुका सकते नहीं,यही समय के बोल।।



माँ ममता की मूर्ति बन,दे बच्चों को प्यार

सुख-सुविधा सब हर्ष से,उनपे देती वार।।



भोलेपन का माँ सही,करती है उपचार

प्रथम ज्ञान से सौंपती,उन्नत सोच-विचार।।



पहला शिक्षक मात ही,दे सन्तों सम ज्ञान

उठना,चलना ,बोलना,रिश्ते हैं सोपान।



बोल-चाल की सीख को,माँ से लेते जान

लेकर जग में जो चलें,उनको मिलता मान।।



जननी सबकी माँ सही,जन्मभूमि भी… Continue

Added by सतविन्द्र कुमार राणा on June 25, 2016 at 10:00pm — 14 Comments

पथरीली ज़मीन ....

पथरीली ज़मीन ....

जाने क्यूँ

आजकल आईना

ख़फ़ा ख़फ़ा रहता है

चुपके चुपके

अजनबी सूरत से

जाने क्या कहता है

अब ख़ुद से मुझे

इक दूरी नज़र आती है

दूर कोई परछाईं

अधूरी नज़र आती है

कभी ये नज़र का धोखा

नज़र आता है

कभी कोई जा जा के

लौट आता है

क्यों ये बेसब्री ओ बेकरारी है

किसके लिए आँखों ने

तारे गिन गिन रात गुज़ारी है

मैं अपने साथ

कहां कुछ लाया था

उसकी याद

उसी मोड़ पे छोड़ आया था

किसे देखता मुड़ के…

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Added by Sushil Sarna on June 25, 2016 at 4:46pm — 10 Comments

एक क्लिक(लघुकथा)राहिला

पोते को पूरे समय लेपटॉप के आगे आंखे गड़ाये देख शर्मा जी! को खासी चिंता होने लगी।लेकिन जब भी वो इस बारे मेंउससे कुछ बोलते, वो उखड़ के कहता-"दादाजी नेट पर जरूरी काम कर रहा हूँ, फालतू समय बरबाद नहीं।" परन्तु उसकी ये बात उन्हें तनिक भी मुतमईन ना कर पाती।तब उन्होंने अपने बेटे से इस बारे में बात की तो-

"अरे बाबूजी!आपको तो इस बात की ख़ुशी होना चाहिये, कि इंटरनेट से दिन बा दिन उसकी जानकारी का स्तर बढ़ रहा है और एक आप हैं कि...।"

"बेटा जानकारी होना अच्छी बात है परंतु उसकी कोई सीमा तो होनी…

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Added by Rahila on June 25, 2016 at 1:00pm — 17 Comments

बिकने लगा शबाब मुहब्बत के शहर में --- हर्ष महाजन

221 - 2121 -1221 -212



बिकने लगा शबाब मुहब्बत के शहर में,

रोके कोई शराब मुहब्बत के शहर में |

.

देखो गली-गली में हया छू रही ज़मीं,

कोई तो है नवाब मुहब्बत के शहर में |



धोखा है हर तरफ यूँ लगे फैलता ज़हर,

हालात हैं खराब मुहब्बत के शहर में |



रिश्तों के हो रहे यूँ कतल बेरुखी से क्यूँ .

जब से उठे नकाब मुहब्बत के…

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Added by Harash Mahajan on June 25, 2016 at 12:00pm — 6 Comments

राम-रावण कथा (पूर्व-पीठिका) - 6 (2)

कल से आगे ................

‘‘घर तुमने किससे क्रय किया था ?’’

‘‘किसी से नहीं !’’

‘‘मतलब ? जब खरीदा नहीं था तो फिर तुम्हारा कैसे हो गया ?’’

‘‘पुरखों से मिला था। हम लोग कई पीढ़ियों से उसी में रह रहे हैं।’’

‘‘कितने लोग रहते हैं सब कुल उस घर में।’’

‘‘जी ... जी ... ?’’

‘‘अरे कितने लोग रहते हैं उस घर में ? सीधा सा तो प्रश्न है।’’

‘‘जी ! हम पति-पत्नी, हमारे तीन बेटे, तीन बहुयें, दो अनब्याही कन्यायें और ....’’ वह उँगलियों पर कुछ हिसाब जोड़ता रहा, फिर बोला -…

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Added by Sulabh Agnihotri on June 25, 2016 at 9:40am — No Comments


सदस्य कार्यकारिणी
गज़ल - गाँव अगर मेरा है तो तेरा भी है ( गिरिराज भंडारी )

22   22   22   22   22  2    

गंग-जमन मिल जायें ये इच्छा भी है

बम-बन्दूकें लेकर वो बैठा भी है

 

ठक ठक करते रहना पड़ता है, लाठी

अब शहरों मे सापों का डेरा भी है

 

सूरज की चाहत पर मर जाने वाला

घुप्प अँधेरों के रिश्ते जीता भी है  

 

जिसे मंच ने कल नदिया का नाम दिया

क्या सच में उसमें पानी बहता भी है ?

 

बेंत नुमा हर शब्द शब्द है झुका झुका

अर्थ मगर उसका ऐंठा ऐंठा भी है   

 

तू भी तो कुछ…

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Added by गिरिराज भंडारी on June 25, 2016 at 8:00am — 17 Comments

कर्म नहीं फल चाहिए - डॉo विजय शंकर

काम नहीं
परिणाम चाहिए।
तथ्य नहीं ,
प्रमाण चाहिए ,
शिक्षा नहीं ,
डिग्री चाहिए ,
डिग्री भी क्या ,
अर्थ तो पद से है ,
फलदार , रौबदार ,
सार्थक पद चाहिए।
पद पर हों तभी तो
सेवा कर पाएंगे ,
मार्गदर्शन कर पाएंगे।
इच्छित , सही दिशा में
ले जा पाएंगे ,
भगीरथ नहीं , अब
सिर्फ रथ के भागी दार हैं ,
रथ पर सवार होंगे
तभी तो महारथी कहलाएंगे।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Dr. Vijai Shanker on June 25, 2016 at 7:53am — 8 Comments

जैसे पियें फकीर......

कुण्डलिया



[१]



साज़िश की ही बात में, बहके नित्य सुगंध.

फूलों से कहते रहे, बस तुमसे सम्बंध.

बस तुमसे सम्बंध, नहीं भौरों से रिश्ता.

पीकर वह मकरंद, चंद्र को समझे पिस्ता.

नित्य प्रभा का लाल, सृष्टि की करता पालिश.

मगर दिवा अवसान, रात्रि मिल रचती साजिश.





[२]



आंखों के आंसू बहे, जैसे गंगा नीर.

अधरों ने झट पी लिये, जैसे पियें फकीर.

जैसे पियें फकीर, व्यर्थ नहि बात बढ़ाते.

औरों का सुख देख, स्वयं ही दुख पी… Continue

Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 24, 2016 at 9:21pm — 13 Comments

कौन आया ?/ कविता

मध्य निशा में मन अकुलाया

विरहन की पीड़ा विहलाया

छल यातना ओढ़ना बिछौना

अंतर वियोग में कौन आया ?



कच्चे धागे सा सुख सपना

निष्ठुरता से कैसी कामना

मेरा दिल मेरा खिलौना

झरते पत्ते -सा कौन आया ?



मृदु बादल की चाह नहीं

वृक्ष अशोक मेरी छाँह नहीं

तृष्णित सिंचित एकाकीपन

में चिता जलाने कौन आया ?



आज अकेला हर मानव है

जलता एकांत दानव है

नीम की मंजरित डाली में

प्रीत बाँधने कौन आया ?







मौलिक और… Continue

Added by kanta roy on June 24, 2016 at 2:38pm — 4 Comments

हिचकियाँ उसको न आयें डर रहा था

२१२२        २१२२      २१२२

याद उसको आज जब मैं कर रहा था

हिचकियाँ उसको न आयें डर रहा था

 

जिस जगह पर हुक्मरानों का महल है

हम गरीबो का वहाँ कल घर रहा था

 

जिस ग़ज़ल के दाम लाखों में लगे थे…

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Added by Dr Ashutosh Mishra on June 24, 2016 at 12:00pm — 8 Comments

राम-रावण कथा (पूर्व-पीठिका) - 6 (1)

‘‘महामात्य ! यह मैं क्या सुन रही हूँ ?’’ कैकेयी के स्वर में असंतोष झलक रहा था।

कैकेयी को विवाह होकर अयोध्या आये हुये 8 बरस बीत गये थे। अब वह सत्रह वर्षीय किशोरी से एक परिपक्व साम्राज्ञी में परिवर्तित हो गयी थी। समय के साथ-साथ दशरथ के हृदय और अयोध्या के प्रशासन पर भी उसकी पकड़ सुदृढ़ होती गयी थी। उसे समाज और राजनीति की गुत्थियाँ सुलझाने में आनन्द आने लगा था। इस समय वह अपने प्रासाद में अयोध्या के महामात्य जाबालि के साथ बैठी हुई थी।

‘‘क्या महारानी जी ? मैं समझ नहीं पाया।’’ आमात्य जाबालि…

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Added by Sulabh Agnihotri on June 24, 2016 at 9:05am — No Comments

हाय वो कसमे वो वादे क्यूँ भुलाये तूने

२१२२  ११२२  २१२२ २२ /११२ 

हाय वो कसमे वो वादे क्यूँ भुलाये  तूने

क्या सबब रो के यूं आंसू भी बहाये  तूने

खून से लिख्खे खतों में थी मेरी जान बसी

बेरहम हो के सभी ख़त वो जलाये तूने…

Continue

Added by Dr Ashutosh Mishra on June 23, 2016 at 1:30pm — 3 Comments

गजल(आजकल मन लग रहा.....)

आजकल मन लग रहा नक्कारखाना हो गया

कुर्सियों के खेल में सच भी फसाना हो गया।1



योग का मतलब अभी तक जोड़ना समझा गया

सोच की बलिहारियाँ अब तो घटाना हो गया।2



कर रहा परहेज जिससे चल रहा था बावरा

गर्ज एेसी पड़ गयी फिर गर लगाना हो गया।3



घूँघटों की ओट से ही चल रहे थे तीर सब

बह गयी ऐसी हवा मुखड़ा दिखाना हो गया।4



शब्द साधे थे कभी जिनको निशाना कर यहाँ

आज उनके पाँव में कैसे सिढ़ाना हो गया।5



तुम नशे में चल रहे हो, मैं नशा करता… Continue

Added by Manan Kumar singh on June 23, 2016 at 12:08pm — 10 Comments

राम-रावण कथा (पूर्व-पीठिका) - 5

कैकसी तीन साल के रावण को लेकर आई हुई थी। साल भर का कुंभकर्ण भी उसकी गोद में था। विवाह के बाद पहली बार वह आई थी। ऐसा नहीं था कि इस बीच उसका इन सबसे कोई सम्पर्क नहीं रहा था। सौभाग्य से विश्रवा का आश्रम सुमाली के ठिकाने से एक प्रहर की दूरी पर समुद्र में एक छोटे से टापू पर था। प्रत्येक दो-तीन माह के अन्तराल पर प्रहस्त आदि में से कोई भी भाई नाव लेकर जाता था और उससे मिल आता था। सुमाली कभी भी मिलने नहीं गया था, उसे डर था कि कहीं विश्रवा उसे पहचान न लें। कैकसी भी मुनि के साथ व्यवहार में पूर्ण…

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Added by Sulabh Agnihotri on June 23, 2016 at 11:07am — 2 Comments

जीने की राह (लघुकथा)

'करूं या न करूं?' अनिर्णय की स्थिति में वह बंद कमरे में आइने के सामने आराम कुर्सी पर बहुत ही तनावग्रस्त बैठा हुआ था। तभी शैतान उसके दिमाग़ पर हावी होते हुए बोला- "अब क्या हुआ बंधु! इन्टरनेट पर सत्य कथायें पढ़कर भी कोई तरीक़ा नहीं अपना सके! मेरी बात मान लो, फाँसी ही सबसे उत्तम तरीक़ा है! आजकल इसी का ट्रैंड है युवा पीढ़ी में!"

"सही कह रहे हो तुम! देखो मैंने पूरी तैयारी भी कर ली थी, फाँसी लगाता या इस पाँचवीं मंज़िल से कूंद कर काम तमाम कर लेता, लेकिन ..."

"लेकिन क्या?" शैतान ने कुछ…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on June 23, 2016 at 6:30am — 13 Comments

कविता/नीरज

तुम भावों की मधुर मधुर स्पन्दन सी ।

तुम तारों के झिलमिल झिलमिल आंगन सी ।

तुम तरुओं के खिलते नित नव पल्लव सी ।

तुम माँ की गोदी में शिशु के करलव सी ।



तुम मंदिर में देव को पूजा अर्पण सी ।

तुम पानी में चंद्रदेव के दर्पण सी ।

तुम प्रातः में विहगों के मधु गुंजन सी ।

तुम मृगया की मन हर लेती चितवन सी ।



तुम उपवन में मग्न मयूरी नर्तन सी ।

तुम प्रेमी के प्रमुदित प्रणय निवेदन सी ।

तुम रमणी की कोमल नव तरुणाई सी ।

तुम गर्मी की साँझ मंद पुरवाई… Continue

Added by Neeraj Nishchal on June 23, 2016 at 12:21am — 2 Comments

अंतिम बंटवारा ( लघुकथा ) जानकी बिष्ट वाही

सभी अपने पैने नख और दन्त अंदर समेटे पण्डित जी की श्राद वाली बात बैचेनी के साथ सुन रहे हैं।एक सुप्त ज्वालामुखी जो बिना वज़ह के अंदर ही अंदर धधक रहा है।साल भर में श्मशान वैराग्य खत्म हो चुका है और मानवीय विराग मुँह फाड़े निगलने को आतुर बैठा है। अभी अंतिम बंटवारा होना बाकि है।

" बड़े शहरों में ये सब करना मुश्किल है, न पण्डित मिलते हैं। न समय है।कब श्राद आये कब गए। मालूम ही नहीं चलता, मुझसे कोई उम्मीद मत रखना। " माँ और पिता का सबसे लाड़ला छोटा दो टूक बोला।

खिड़की से बाहर देखते मंझले को…

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Added by Janki wahie on June 22, 2016 at 6:30pm — 10 Comments

राम-रावण कथा (पूर्व-पीठिका) - 4

केकय नरेश अश्वपति ब्रह्मज्ञानी के रूप में विख्यात थे। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी इस संबंध में उनसे राय लेने आते रहते थे। कहते तो यहाँ तक हैं कि उन्हें पशु-पक्षियों की बोलियाँ भी आती थीं। एक कथा प्रचलित है कि एक बार अश्वपति महारानी के साथ बगीचे में टहल रहे थे। बगीचे में पक्षियों की चहचहाहट एक स्वाभाविक ध्वनि होती है। अचानक महाराज हँस पड़े। महारानी असमंजस से पूछ बैठीं -

‘‘महाराज मैंने कोई हास्यास्पद बात तो नहीं की जो आप हँस रहे हैं।’’

महाराज ने हाथ से उन्हें शान्त रहने का इशारा किया और बड़े…

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Added by Sulabh Agnihotri on June 22, 2016 at 9:38am — 4 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल - कहीं भटका तो नहीं देख कारवाँ अपना ( गिरिराज भंडारी )

22   22   22   22   22   22 

वुसअतें दिल मे समा जायें तो जहाँ अपना

वगरना खून का रिश्ता भी है कहाँ अपना

 

अहले तक़रीर की आतिश बयानी तुम ले लो

रहे जो सुन के भी ख़ामोश-बेज़ुबाँ, अपना

 

ये कैसा रास्ता है सिर्फ अँधेरा है जहाँ

कहीं भटका तो नहीं देख कारवाँ अपना

 

फड़फड़ा कर मेरे पर बोलते यही होंगे

ये ज़मीं सारी तुम्हारी है , आसमाँ अपना

 

इसे नादानी कहें या कि कहें मक्कारी

समझ रहे हैं दुश्मनों को पासबाँ…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on June 22, 2016 at 8:50am — 21 Comments

ग़ज़ल

बह्र: २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

रदीफ़: चाहता हूँ , काफिया : ना (अना )

 

दिल के धड़कनों को कम करना चाहता हूँ

आज घटित घटना को विसरना चाहता हूँ |

जीवन में घटी है कुछ घटनाएँ ऐसी

सूखे घावों को नहीं कुतरना चाहता हूँ |…

Continue

Added by Kalipad Prasad Mandal on June 22, 2016 at 7:30am — 4 Comments

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