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उनका रोज़ा, उनकी ई़द (लघुकथा) / शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"क्या कर रहा है बे, सब खा-पी रहे हैं और तू अपने स्मार्ट फोन में भिड़ा हुआ है!" थ्री-स्टार होटल में चल रही ज़बरदस्त पार्टी में दोस्तों के बीच बैठे दीपक ने असलम से कहा।

"माह-ए-रमज़ान का चाँद दिख गया है, मुबारकबाद के ढेरों संदेशों के जवाब दे रहा हूँ!" - असलम ने सोशल साइट्स पर अपना संदेश सम्प्रेषित करते हुए कहा और कोल्ड-ड्रिंक पीने लगा। आज वह दोस्तों से लगाई शर्त हार गया था, सो इतनी महँगी पार्टी देनी पड़ी थी।

"यार, ये तो बता कि तू भी सचमुच कल से रोज़े रखेगा, कैसे रह लेता है भूखे-प्यासे…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on June 7, 2016 at 1:00am — 15 Comments

क्या पता था इश्क़ मे ये हादसा हो जाएगा

क्या पता था इश्क़ मे ये हादसा हो जाएगा

वो वफ़ा की बात करके बेवफ़ा हो जाएगा

 

रास्ता पुरख़ार है या मौसमे गुल से भरा

जब भी निकलोगे सफ़र में सब पता हो जाएगा

 

रफ़्ता रफ़्ता ज़िंदगी भी बेवफ़ा हो जाएगी

रफ़्ता रफ़्ता इस जहां में सब फ़ना हो जाएगा

 

धड़कनें पूछेंगी ख़ुद से बेक़रारी का सबब

दो दिलों के दरमियाँ जब फ़ासला हो जाएगा

 

कौन किसका साथ देता है यहाँ पे उम्र भर

शाम तक तेरा ये साया भी जुदा हो जाएगा

 

अपने…

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Added by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on June 6, 2016 at 11:56pm — 14 Comments

शाइरी माँगती है ख़ून-ए-जिगर (ग़ज़ल)

2122 1212 22



आसमाँ हम भी छू ही लेते,मगर

काट डाले गए हमारे पर



हमको काँटों की राह प्यारी है

आप ही कीजे रास्तों पे सफ़र



अपनी आँखों में जुगनू बसते हैं

हम पे होगा न तीरगी का असर



हम तो रहते हैं आप के दिल में

खुद का अपना नहीं है कोई घर



इस क़दर खो गया है होश-ओ-हवास

आजकल है न हमको अपनी ख़बर



मर्ज़ पहुँचा है उस मुक़ाम पे अब

हो गया खुद बिमार चाराग़र



नक़्श उसका बसा लिया दिल में

कौन मंदिर को जाए… Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on June 6, 2016 at 9:32pm — 12 Comments

मुर्दों के सम्प्रदाय (लघुकथा)

"पापा, हम इस दुकान से ही मटन क्यों लेते हैं? हमारे घर के पास वाली दुकान से क्यों नहीं?" बेटे ने कसाई की दुकान से बाहर निकलते ही अपने पिता से सवाल किया|
पिता ने बड़ी संजीदगी से उत्तर दिया, "क्योंकि हम हिन्दू हैं, हम झटके का माँस खाते हैं और घर के पास वाली दुकान हलाल की है, वहां का माँस मुसलमान खाते हैं|"
"लेकिन पापा, दोनों दुकानों में क्या अंतर है?" अब बेटे के स्वर में और भी अधिक जिज्ञासा थी|
"बकरे को काटने के तरीके का अंतर है..."…
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Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on June 6, 2016 at 9:30pm — 17 Comments

अनपढ़ और अनिपुण (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"तुम लोगों की बातचीत सुन रहा था। बड़ी अच्छी हिन्दी बोलते हो, लगता है काफी पढ़े-लिखे हो!" आलोक नेे गृह-निर्माण कार्य में लगे कारीगरों से कहा।

"नहीं साहब, हम तो अंगूठा छाप हैं!" बड़े कारीगर ने ईंट के ऊपर सीमेंट-गारा डालकर उस पर दूसरी ईंट जमाते हुए कहा।

"तो फिर इतनी अच्छी हिन्दी कैसे बोल लेते हो?"

"हम पढ़-लिख नहीं पाये, तो टीवी देखकर पढ़े-लिखों की भाषा ध्यान से सुनकर सीखते हैं, आप लोगों की बातें सुनकर भी कुछ सीख लेते हैं!" कारीगर ने बड़े ही आत्मविश्वास से कहा।

"लेकिन तुम लोग तो…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on June 6, 2016 at 4:30pm — 9 Comments

अपना मकां बना जाता है ....

अपना मकां बना जाता है ....

कितना अजीब होता है

उससे अपनापन निभाना

जो न होकर भी

सबा की मानिंद

करीब होता है

ये दिल

अपने रूहानी अहसास को

बड़ी निर्भीकता से

उस अदृश्य देह को कह देता है

जिसे देह की उपस्थिति में

व्यक्त करने में

इक उम्र भी कम होती है

हम उसे कह भी लेते हैं

और उसकी

अदैहिक अभिव्यक्ति को

बंद किताबों में

सूखते गुलाबों की

गंध की तरह

पढ़ भी लेते हैं

वो न…

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Added by Sushil Sarna on June 6, 2016 at 1:09pm — 2 Comments

अभिलाषा (व्यंग्य कविता)

चाह नही मेरी कि मैं ,अफसर बन सब पर गुर्राउं।
चाह नही मेरी कि मैं ,सत्ता में दुलराया जाऊं।।
लाल बत्ती की खातिर मैं ,अपनों का न गला दबाऊं।
गरीब जनों की सेवा करके ,आशीर्वाद उन्हीं का पाऊं।।
बड़े हमेशा बड़े रहेंगे ,छोटों को भी बड़ा बनाऊँ।
हर एक बच्चा बने साक्छर ,रोजगार के अवसर लाऊँ।।
मिटे गरीबी आये खुशहाली ,ऐसी मैं एक पौध लगाऊँ।।

.
(नीरज खरे)
मौलिक एवम् अप्रकाशित

Added by NEERAJ KHARE on June 6, 2016 at 7:30am — 3 Comments

तजमींन..

1212 1122 1212 22

तज़़्मीन बर ग़ज़ल जाँ निसार अख्तर



वो होंगे कैसे, सितम जिनपे मैंने ढाया था

कि मैं रुका न मुझे कोई रोक पाया था

थे अपने लोग मगर उनसे यूँ निभाया था

"ज़रा सी बात पे हर रस्म तोड़ आया था

दिल-ए-तबाह ने भी क्या मिज़ाज पाया था "



जमूद हूँ कि रवाँ हूँ मैं रहगुज़र की तरह

रुका कभी तो लगा वो भी इक सफ़र की तरह

दयारे गै़र में उभरा कुछ उस दहर की तरह

" गुज़र गया है कोई लम्हा-ए-शरर की तरह

अभी तो मैं उसे पहचान भी न पाया था… Continue

Added by shree suneel on June 6, 2016 at 3:39am — 7 Comments

हाँ !चुनाव तुम्हारा है

आते है गंदले कीचड़े उथले नारे नदी

मिलते है गंगा में और गंगा हो जाते हैं

पर गंगा बन मिलते है जब सागर में

गंगा के नामो निशाँ मिट जाते हैं .....…

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Added by amita tiwari on June 5, 2016 at 8:00pm — 7 Comments

कभी आके खुद तुम यहाँ देख लेना-ग़ज़ल

122 122 122 122

कभी आके खुद तुम यहाँ देख लेना।

मेरे इश्क़ की, इन्तेहाँ देख लेना।



यकीं इश्क़ पर गर, चे कम हो कभी भी।

तो ग़ज़लों का मेरी, जहाँ देख लेना।।



मिलेगा न मुझसा, दिवाना कहीं भी।

यहाँ देख लो फिर वहाँ देख लेना।।



मेरे हौसले की न पूछो कहानी।

झुकाऊँगा मैं, आसमाँ देख लेना।।



चलाना जो खंज़र, बचा लेना दिल को।

सजाया तुम्हें है, कहाँ देख लेना।।





मिलेगी यहाँ सिर्फ तस्वीर तेरी।

यही धन किया है जमाँ देख… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on June 5, 2016 at 6:03pm — 6 Comments

गजल(आग जंगल में लगी.....)

2122 2122 212



आग जंगल में लगी बुझती कहाँ

तीलियों-सी रौ समंदर की कहाँ।1



रस धरा का पी रहे बरगद खड़े

लग रहा है जिंदगी यूँ जी कहाँ।2



लाज ढ़कने का उठा बीड़ा लिया

तार होता है वसन जो सी कहाँ।3



अब लजाने का जमाना लद गया

यह नयन बहता जुबानी भी कहाँ।4



साथ चलने का भरा था दम कभी

दिख रहा मझधार में वह ही कहाँ।5



आँसुओं में घुल गये कितने शिखर

है पिघलता आज भी यह जी कहाँ।6



सुन रहा कब से जमाने की सदा

कह… Continue

Added by Manan Kumar singh on June 5, 2016 at 4:00pm — 6 Comments

अब

न जाने याद क्यों आती, मुझे बीती दिनो की अब।

बता दो बेवफा इतना, तड़प मेरी मिटेगी कब।

निकलता अासमा में चॉंद, धरती पे नही निकले

तुम्‍हारी याद ऐसी है कि ये दिल से नहीं निकले

हजारो है यहॉं लेकिन न कोई मीत तुम जैसा

मगर सब पूछता खुद से, बता वो मीत था कैसा

पुकारू मैं किसे बोलो, रहूँ तन्‍हा परेशा जब

न जाने याद क्यों आती, मुझे बीती दिनो की अब।

बता दो बेवफा इतना, तड़प मेरी मिटेगी कब।

मुझे है चॉंद से नफरत, हवा उसको उडा ले…

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Added by Akhand Gahmari on June 5, 2016 at 11:05am — 2 Comments

काँटे का इंटरव्यू

क्यों भाई काँटे

शरीर ढूँढते रहते हो चुभने के लिए?

पैर से खींचकर निकाले गए

काँटे से मैंने पूछा

बस फैंकने को तत्पर हुई कि

वह बोल उठा

तुम मनुष्यों की

यही तो दिक़्क़त है

अपनी भूलों का दोष

तटस्थों पर मढ़ते आये हो

मैं कहाँ चल कर आया था

तुम्हारे पैरों तक ,चुभने को

मैं नहीं तुम्हारा पैर आकर

चुभा था मुझको

मैँ ध्यान मग्न पड़ा था

कि अचानक एक भारी सा पैर

आकर सीधा धँसा था

मेरे पूरे शरीर पर

उफ्फ वह घुटन भरी…

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Added by Tanuja Upreti on June 5, 2016 at 10:30am — 7 Comments

अच्छे दिन!

94

अच्छे दिन!

------------

राहु कुपित हैं या शनि की महादशा का प्रभाव

मंगल विमुख हैं या गुरु की कृपा का अभाव,

कितनी दयनीय दशा है...... ! ! !

अनिरुद्ध कालचक्र कैसा फंसा है!

विवेचना .... थकती है, कथनी.. रुकती है,

रूखी सूखी सी लगातार....साॅंस..... बस, चलती है ! ! !



घर - बाहर , बाजार - बीहड़, दिन - रात,

अन्तर्वेदना, करुणा, निराशा के आघात,

नियामक ने व्युत्क्रम स्वरूप तो लिया नही !

अदभुद् विकल्पों को आधार मिला नहीं !…

फिर भी.... ये…

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Added by Dr T R Sukul on June 4, 2016 at 11:24pm — 6 Comments

कुण्डलिया.......पतित पावनी गंगा

गंगा निर्मल पावनी, नहीं मात्र जल धार.

अपने आंचल नेह से,  करती  है  उद्धार.

करती  है  उद्धार,  प्रेम श्रद्धा उपजा कर.

जन खग पशु वन बाग, सिक्त हैं कूप-सरोवर.

हुआ  कठौता  धन्य,  करे  सबका  मन  चंगा.

भारत  का  सौभाग्य,  मोक्ष  सुखदायी  गंगा.

मौलिक व अप्रकाशित

रचनाकार....केवल प्रसाद सत्यम

Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 4, 2016 at 8:30pm — 6 Comments

टूटे पैमाने ....

टूटे पैमाने   .... 

२२ २२ २२ २ 

कुछ टूटे पैमाने हैं
कुछ रूठे दीवाने हैं 


कुछ हैं सपनों में डूबे
कुछ खुद से अंजाने है

 

यादों के तहखानों में
बंद कई अफ़साने हैं 

सोये शानों पर मेरे
टूटे ख़्वाब पुराने हैं 

सहमे सहमे आँखों से
छलके दर्द दीवाने हैं 

मुझको उसकी नज़रों से
बहते ज़ख्म चुराने हैं 


सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on June 4, 2016 at 6:40pm — 12 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
पल में करेले नीम से पल में लगें अंगूर हैं (हास्य ग़ज़ल 'राज')

2212  2212  2212  2212 

 

नखरे ततैय्ये से अजी इनको मिले भरपूर हैं

अपनी करें मन की खुदी खुद में बड़े मगरूर हैं

 

मतलब पड़े तारीफ़ करते हैं मगर सच बात ये

जोरू इन्हें मुर्गी, पड़ोसन सारी लगती हूर हैं

 

अंदाज इनके देख के गिरगिट भरें पानी यहाँ

पल में करेले नीम से पल में लगें अंगूर हैं

 

वादा करें ये तोड़ के देंगे फ़लक से चाँद को   

माँगें  अगर साड़ी कहें जानम  दुकानें दूर हैं  

 

गाते  चुराकर गीत ये चोरी की…

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Added by rajesh kumari on June 4, 2016 at 5:19pm — 10 Comments

उसकी नजर जब पास है

बहरे रजज़ मुसम्मन सालिम

मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन

2212 2212 2212 2212



गज़ल



छिपता नहीं है दर्दे दिल पर तुम कसम तक खा गये

परहेज जो इतना किया पर क्या छुपा कर पा गये



तुम जानते इस दर्द को पहचानते हमदर्द को

गम बांटते तब ठीक था यह बात क्या गम खा गये



पहला अभी यह खब्त था पुरजोर सा वह जब्त था

सायक चुभा कब चश्म का धनु देखकर घबरा गये



यह इश्क है या फिर सजा इसके बिना भी क्या मजा

दृग-कोर ने क्या छू लिया… Continue

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 4, 2016 at 4:22pm — 1 Comment

इतिहास गवाह है(लघुकथा )राहिला

एक बड़े ही अनुकूल सर्व सुविधा युक्त घूरे पर बर्षों से घरेलू मक्खियों की पीढ़ियां मजे से जिंदगी बसर कर रही थीं। ऐसे में ना जाने कौन साफ तबियत वाले ने नगर पालिका को घूरा हटाने का आवेदन दे मारा । इसकी खबर जैसे ही मख्खियों को लगी, उनमें खलबली मच गई । उन्हें इतना व्यथित देख,एक बूढ़ी सियानी मक्खी ने सांत्वना दी ।

"अरे इतना क्यूं घबरा रही हो? इतिहास गवाह है, आजतक हमें कोई नहीं मिटा पाया । "

"लेकिन दादी मख्खी! अगर नगर पालिका वाले सचमुच आ गये तो,हम बच्चों को लेकर कहाँ जायेंगे? "

"कहीं…

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Added by Rahila on June 4, 2016 at 7:00am — 13 Comments

ताटंक छन्द

(२ जून २०१६ को जवाहर बाग़, मथुरा की हृदयविदारक घटना के सन्दर्भ में)



थर्रायी धरती फिर देखो, कुछ कुत्सित मंसूबों से।

स्वार्थ वशी हो कुछ अन्यायी, फिर बोले बंदूकों से।।

माँ का आँचल लाल हुआ फिर, रक्त बहा है वीरों का।

मुरली की तानों से हटकर, खेल हुआ शमशीरों का।१।



पूछ रही मानवता तुमसे, क्या तुम मनु के जाये हो।

ऐसा क्या दुष्कर्म किया जो, भारत भू पर आये हो।।

सत्याग्रह का चोला ओढ़े, तुम किस मद में खोये हो।

मथुरा की पावन धरती पर, क्यों अंगारे बोये… Continue

Added by डॉ पवन मिश्र on June 4, 2016 at 5:30am — 10 Comments

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