Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 23, 2015 at 8:00pm — 12 Comments
तुम और कॉफी दोनों का साथ
कब होगा मेरे साथ ?
तुम्हारे घर का बगीचा
पात-पात शांत
बर्फ की ओढनी ओढ़े
मुकुलित कालिका लजाती
सोखती स्वर्ण-आभा
चोटी पर तिरती सूर्य-किरणें
खुशबू के गुंफन ने छुआ मुझे
लगा कि तुमने उढ़ाया हो,शॉल गुनगुना सा
आवृत्तियों ने मुझे घेरा
याद आने लगे वो दिन जब तुम
बैठे रहते थे बिल्कुल सामने मेरे
और तुम्हारी मूँगे जैसी आँखों में
छल्क पड़ती थी मैं बार-बार
और…
ContinueAdded by kalpna mishra bajpai on September 23, 2015 at 7:30pm — 8 Comments
Added by shashi bansal goyal on September 23, 2015 at 7:13pm — 5 Comments
जाने क्या सोच के उसने ये हिमाक़त की है
हो के दरिया जो समंदर से अदावत की है
खींच लायी हे तेरे दर पे ज़रुरत मुझको
हो के मजबूर उसूलों से बग़ावत की है
हमने ख़ारों पे बिछाया हे बिछोना अपना
हमने तलवारों के साये में इबादत की है
अच्छे हमसाये की तालीम मिली हे हमको
हमने जाँ दे के पडोसी की हिफाज़त की है
आज आमाल ही पस्ती का सबब हैं वरना
हमने हर दौर में दुनिया पे हुकूमत की है
दम मेरा कूच…
ContinueAdded by SHARIF AHMED QADRI "HASRAT" on September 23, 2015 at 12:00pm — 13 Comments
फ़'इ'लात फ़ाइलातुन फ़'इ'लात फ़ाइलातुन |
1121 - 2122 - 1121 – 2122 |
|
कभी ये रहा है बेहद, कभी मुख़्तसर रहा है |
मेरा दर्द तो हमेशा, दिलो-जां जिगर रहा है… |
Added by मिथिलेश वामनकर on September 23, 2015 at 10:00am — 18 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on September 23, 2015 at 9:55am — 10 Comments
कब हुयी थी बात जनता से
कब आए थे तुम हमारे गाँव
कब फांकी थी तुमने गलियारे की धूल
कब तुम्हारी खादी पर जमी थी गर्द की परतें
कब दिया था आख़री भाषण यहाँ पर डूब कर पसीने में
कब किया ब्यालू यहाँ के एक हरिजन संग
और पानी था पिया अकुआगार्ड का जो साथ थे लाये
गाँव को तो याद है वह दिन, भूल जाते हो मगर तुम
देश की संसद बड़ी है, डूब जाते हो वही तुम
देश का दुर्भाग्य है वह नहीं मिल पाता कभी भी
चाह कर तुमसे बड़े बंधन है अजब…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 23, 2015 at 9:30am — 4 Comments
2122 2122 212
खुशनुमाँ से अवसरों के वास्ते
आसमाँ तो हो परों के वास्ते
मै तो आईना लिये फिरता हूँ अब
आइनों से पत्थरों के वास्ते
अब तो दीवारें गिरायें यार हम
गिर रहे हैं उन घरों के वास्ते
थोड़ी अकड़न भी अता करना ख़ुदा
बे सबब झुकते सरों के वास्ते
कुछ बहाने और हैं, ले जाइये
आदतन से कायरों के वास्ते
मैं हक़ीकत बाँध के लाया हूँ आज
कुछ छिपे अंदर डरों के…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on September 23, 2015 at 6:49am — 15 Comments
फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन
तू भले कुछ भी कहे मैं कामना करता रहूँगा
रूप रस की चाहना- आराधना करता रहूँगा।
जल रहा संसार खुद से आग अपनी ही जलाये
बाँट आया प्यार घर- घर याचना करता रहूँगा।
जो लगाते आग चलते ज्वाल उनको हो मुबारक
मैं चला हूँ मेघ बनकर साधना करता रहूँगा।
दे रही जो दर्द चपला कर सकूँ बे-दर्द उसको
हो धरा मैं सोंख लूँ यह कामना करता रहूँगा।
आदमी हो आदमी का हो गया सब भूलकर भी
आदमी के हित रहूँ मैं प्रार्थना करता…
Added by Manan Kumar singh on September 22, 2015 at 10:00pm — 8 Comments
इंसानी फ़ितरत – ( लघुकथा ) –
"हे पवन देव ,कृपया मेरी सहायता कीजिये"!आम के वॄक्ष ने कराहते हुए कहा
“क्या हुआ बन्धु, कोई कष्ट है क्या"!
"क्या आप नहीं देख रहे, यह उदंड मानव झुंड, पत्थर मार मार कर मुझे घायल कर रहा हैं"!
"तो इसमें मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकता हूं"!
"आप अपने वेग से मुझे झकझोर कर मेरे फ़लों को नीचे गिरा दीजिये ताकि यह संतुष्ट होकर, पत्थर प्रहार बंद कर दें"!
"तुम बहुत भोले हो मित्र, ऐसा कुछ भी नहीं होगा,ये इंसान हैं"!
"आपके इस…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on September 22, 2015 at 8:56pm — 13 Comments
2122 2122 2122 212
जब कभी तनहाइयों का आईना मुझको मिला ।
अपने अन्दर आदमी इक दूसरा मुझको मिला ।।
हमसुखन वो हमनफ़स वो हमसफ़र हमजाद भी ।
जान लूँ इस चाह में कब आशना मुझको मिला ।।
वक्ते रुखसत हाल उसका भी यही था दोस्तों ।
अक्स मेरा चश्मे नम पर कांपता मुझको मिला ।।
मंज़िलों से और बेहतर हसरते मंज़िल लगे ।
लिख सकूं तफसील जिसकी रास्ता मुझको मिला ।।
जो बजाते खुद हुआ इल्मो अदब का आफ़ताब…
ContinueAdded by Ravi Shukla on September 22, 2015 at 3:20pm — 8 Comments
डाकखाने का डाक बाबू
जब अपनी साइकिल पर
चिट्ठियों का थैला लेकर
गाँव की गलियों में आता
तो घर की चौखट पर
अधखुले दरवाजे के पीछे
घूँघट की ओट से दो आँखे
डाक बाबू की राह तकती
आज तो उसके नाम कि भी
जरूर कोई डाक होगी
पुकारेगा डाक बाबू
आज उसका नाम
बलम परदेसी ने …
Added by Rajni Gosain on September 22, 2015 at 1:30pm — 8 Comments
Added by Dr T R Sukul on September 22, 2015 at 10:53am — 2 Comments
जेल की दीवारे चीख चीख कर कह रही थी कि बीती रात रहमत अली ने हाल ही में सजा काटने आये कैदी को मार डाला। लेकिन उसके माथे पर एक भी शिकन नही थी, वो तो अपनी बैरक में खामोश बैठा सोच रहा था।
"अब मिला मुझे सकूं, उसको उसके किये की सजा दे कर मैंने अपनी बीबी को ही इंसाफ नही दिया बल्कि अदालत के झुठे फैसले को भी सच कर दिया है।"
"रहमत अली। अपनी खामोशी तोड़ो और बताओ कल रात क्या हुआ?" थानेदार ने सवाल पूछते हुये उसे लगभग झिंझोड़ दिया।
"अब छोड़िये भी साहब! रात गयी बात गयी।" रहमत अली एक गहरी…
Added by VIRENDER VEER MEHTA on September 22, 2015 at 10:00am — 11 Comments
लघुकथा – पूंछ
सीढ़ियाँ गंदी हो रही थी कविता ने सोचा झाड़ू निकल दूँ. यह देखा कर पड़ोसन ने कचरा सीढ़ियों पर सरका दिया.
बस ! फिर क्या था. कविता का पारा सातवे आसमान पर, “ मैं इस के बाप की नौकर हूँ. नहीं निकाल रही झाड़ू,” बड़बड़ाते हुए कविता ऊपर आई , “ साली अपने को समझती क्या है ? कभी सीढ़ियों पर पानी डाल देगी. कभी लहसन का कचरा. कभी कुछ. मैं इस की नौकर हूँ जो रोजरोज सीढ़ियाँ साफ करती रहू. साली अपने को न जाने क्या समझती है ?
“ क्यों जी. आप बोलते क्यों नहीं.” उस ने पति के हाथ से अख़बार…
ContinueAdded by Omprakash Kshatriya on September 22, 2015 at 8:30am — 4 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on September 22, 2015 at 12:22am — 2 Comments
Added by Samar kabeer on September 21, 2015 at 11:15pm — 21 Comments
Added by मनोज अहसास on September 21, 2015 at 9:26pm — 12 Comments
कीचड़ .....
सड़क पर फैले हुए कीचड से
एक कार के गुजरने से
एक भिखारन के बदन पर
सारा कीचड फ़ैल गया
अपनी फटी हुई साड़ी से कीचड़ पौंछते हुए
उसने अपने मन की भंडास निकालते हुए कहा
अमीरजादे गाड़ी से कीचड उछालते हैं
और पलट के भी नहीं देखते
इन्हें भूख से बिलबिलाते हुए
पेट को भरने के लिए रक्खा
भीख का कटोरा नजर नही आता
बस फ़टे कपड़ों से झांकता
बदन नज़र आता है
मेहरबानी पेट पर नहीं
बस बदन पर होती है
वो खुद पर गिरे कीचड़ को
साफ़…
Added by Sushil Sarna on September 21, 2015 at 8:00pm — 6 Comments
Added by शिज्जु "शकूर" on September 21, 2015 at 5:22pm — 12 Comments
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