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ग़ज़ल : हुई जो खबर नाम चलने लगा है

हुई जो ख़बर नाम चलने लगा है ।

ये सारा जहां  हमसे जलने लगा है ।।

 

यहां झूठ से सबको नफरत है फिर भी ।

है किसकी ये शह जो मचलने लगा है ।।

न तुम आग उगलो न मै ज़ह्र घोलूं  ।

ये सोचें लहू क्‍यूँ उबलने लगा है ।।

बुरे वक्त में लोग करते है जुर्रत ।

हुई शाम सूरज भी ढलने लगा है ।।

तुम्‍हें देखते ही  हमारी कबा से ।

उदासी का आलम पिघलने लगा है ।।

 

अज़ल से वही है ज़फ़ा का बहाना ।

 कि मौसम के…

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Added by Ravi Shukla on September 15, 2015 at 5:11pm — 26 Comments

ग़ज़ल -- आईना बना ले मुझको .... दिनेश कुमार

2122-1122-1122-22



अहले महफ़िल की निग़ाहों से छुपा ले मुझको

मैं तेरा ख़्वाब हूँ आँखों में बसा ले मुझको



अपनी मंज़िल पे यकीनन मैं पहुंच जाऊँगा

कोई बस राहनुमाओं से बचा ले मुझको



रात कटती है न अब दिन ही मेरा तेरे बग़ैर

मेरी आवारगी नेजे पे उछाले मुझको



सबके दुखदर्द में जब मैंने मसीहाई की

इस ग़मे जाँ में कोई क्यूँ न सँभाले मुझको



शख़्सियत तेरी सँवारूंगा ये वादा है मिरा

अपनी तक़दीर का आईना बना ले मुझको



दिल के दरिया में… Continue

Added by दिनेश कुमार on September 15, 2015 at 4:30pm — 11 Comments

इखलास का ईनाम गरल कर के चल दिए

221 2121 1222 212
इखलास के ख़याल गरल कर के चल दिए।
अरमाने दिल तमाम तरल कर के चल दिए।।

शमशीरे ज़फ़ा ऐसे चली दिल के शहर पे
चुन चुन के सारे ख़ाब मसल कर के चल दिए।।

मेरी वफ़ा ए इश्क़ की कीमत तो देखिये।
चैन ओ सुकून में ही ख़लल कर के चल दिए।।

मेरे खुदा ए इश्क़ की रहमत तो देखिये।
सज़दे सलाम सारे विफल कर के चल दिए।।

अपनी भी आदतों को कहाँ हम बदल सके।
उनके करम कलम से ग़ज़ल कर के चल दिए।।

मौलिक अप्रकाशित

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 15, 2015 at 3:30pm — 15 Comments

मैं ग़ज़ल लिखूँ चाहे जो बह्र है काफ़िया बस एक तू।।

2121 22 2212 2212 2212

जो निगाहे हाला का है असर वो साक़िया बस एक तू।

मैं ग़ज़ल लिखूँ चाहे जो बह्र है काफ़िया बस एक तू।।



तेरे हुश्न साग़र में ये मेरा मन उतर कर तैरता।

इस मेरे इश्कां की नाव का है नाहिया बस एक तू।।



मेरा मन किसी भी दूजी बगिया में न अब जाता कभी।

मेरी इन निग़ाहों के ख़ाब की है बादिया बस एक तू।।





मेरी सांस हो मेरी आस मेरी धड़कनों की प्यास में।

मेरी ज़िन्दगी का हसीनतम है सानिया बस एक तू।।



तेरे नाम से होती सुबह तेरे नाम से… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 15, 2015 at 3:00pm — 5 Comments

एक लघु साहित्यिक - संस्मरण --- डॉ o विजय शंकर

साहित्य और हम , साहित्य और स्वयं हम। सोंचें तो कितने जुड़े हैं साहित्य से हम। कितना प्रभाव डालता है साहित्य हम पर , कितना हम दे पाते हैं उसे , वापस।

कथा-कहानी साहित्य की मेरी जीवन यात्रा " पराग " से शुरू हई थी , पचास के दशक के आख़िरी कुछ वर्षों से , नई मुद्रा का प्रचलन 01 अप्रेल 1957 से शुरू हुआ था।नैये पैसे , न जाने कैसे मुझे आज भी याद है , पराग काफी समय तक चालीस पैसे ( नैये पैसे ) में आती थी लेकिन काफी बड़ी और सुन्दर पत्रिका होती थी , मुझे यत्र - तत्र कुछ-कुछ याद है , शायद सबसे अधिक छोटू… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on September 15, 2015 at 12:00pm — 11 Comments

"वास्तविक पहचान"

"एक आखिरी सवाल!" साक्षात्कार लेते अधिकारी ने उसके चेहरे पर एक गहरी नजर डालते हुये कहा। "अपनी पहचान खोते हमारे 'प्राॅड्क्ट' को 'मार्केट' में बरकरार रखने के लिये तुम किस स्तर तक नीचे जा सकते हो?"

"जाहिर है जब कम्पनी मुझे इतने आकर्षक और बेहतर जीवन जीने का अवसर देने जा रही है तो उसकी पहचान कायम रखने के लिये मैं किसी भी निचले स्तर तक जा सकता हूँ।" उसने मुस्कराते हुये जवाब दिया।

"गुड! बहुत अच्छे जवाब दिये तुमने, लेकिन 'साॅरी यंगमैन'! हम तुम्हे ऐसा कोई अवसर नही दे पायेंगे क्योंकि अभी अभी… Continue

Added by VIRENDER VEER MEHTA on September 15, 2015 at 11:08am — 9 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
हिन्दी गज़ल - ज्ञान की अति खा रही है भावनायें ( गिरिरज भंडारी )

2122     2122     2122

एक दिन आ कर तुम्हें भी हम हँसायें

यदि हमारे बहते आँसू मान जायें

 

क्यों समय केवल उदासी बांटता है ?

क्या समय के पास बस हैं वेदनायें

 

जानकारी ठीक है ,पर ये भी सच है

ज्ञान की अति खा रही है भावनायें

 

इस तरफ है पेट की ऐंठन सदी से

उस तरफ़ है भूख पर होतीं सभायें  

 

बात में बारूद शामिल है उधर की

हम कबूतर शांति के कैसे उड़ायें ?

 

अब धरा को छू रहा है सर…

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Added by गिरिराज भंडारी on September 15, 2015 at 9:33am — 43 Comments

अभागा

    

 ईश्वर अलक्ष्य है क्या ?

शायद –

तब तुमने माँ को नहीं जाना

न समझा न पहचाना

सचमुच

अभागा है तू

(मौलिक व् अप्रकाशित )

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 15, 2015 at 9:30am — 22 Comments

''हंगाम फितरत पाल बैठा हूँ''

2212  2212   22

क्या ख़ूब आफ़त पाल बैठा हूँ

दिल में शराफ़त पाल बैठा हूँ

.

मुफ़्त इक मुसीबत पाल बैठा हूँ

बुत की मुहब्बत पाल बैठा हूँ

.

क्यूँ ये सितारे हैं ख़फ़ा मुझसे?

जो तेरी चाहत पाल बैठा हूँ

.

वो बेवफा कहने लगा मुझको

जबसे मुरव्वत पाल बैठा हूँ

.

कोई तो तुम अब फ़ैसला दे दो

पत्थर की सूरत पाल बैठा हूँ

.

गर तू तगाफुल पे अड़ा है

सुन मैं भी वहशत पाल बैठा हूँ

.

वारे…

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Added by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on September 15, 2015 at 8:30am — 19 Comments

खो रही पहचान (लघुकथा)

उस चित्रकार की प्रदर्शनी में यूं तो कई चित्र थे लेकिन एक अनोखा चित्र सभी के आकर्षण का केंद्र था| बिना किसी शीर्षक के उस चित्र में एक बड़ा सा सोने का हीरों जड़ित सुंदर दरवाज़ा था जिसके अंदर एक रत्नों का सिंहासन था जिस पर मखमल की गद्दी बिछी थी|उस सिंहासन पर एक बड़ी सुंदर महिला बैठी थी, जिसके वस्त्र और आभूषण किसी रानी से कम नहीं थे| दो दासियाँ उसे हवा कर रही थीं और उसके पीछे बहुत से व्यक्ति खड़े थे जो शायद उसके समर्थन में हाथ ऊपर किये हुए थे|

सिंहासन के नीचे एक दूसरी बड़ी सुंदर महिला…

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Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on September 14, 2015 at 10:30pm — 9 Comments

ग़ज़ल- बेरहम दुनिया ने मुझसे शायरी भी छीन ली।

2122 2122 2122 212



आखिरी उम्मीद की अब ये कली भी छीन ली।

बेरहम दुनिया ने मुझसे शायरी भी छीन ली।



रौशनी की बात तो किस्मत में लिक्खी ही नहीं ।

छुप के रोया तो खुदा ने तीरगी भी छीन ली।



दिल लगाया था किसी से दिल्लगी के वास्ते।

दिल्लगी क्या कर ली ख्वाबों की हँसी भी छीन ली।



मय न पीने को मिली तो अश्क ही पीने लगा ।

देख यह किस्मत ने आँखों की नमी भी छीन ली।



दोस्ती के फूल जब मुरझा गये इक मोड पर।

मुफलिसी ने फिर कहानी प्यार की भी… Continue

Added by Rahul Dangi Panchal on September 14, 2015 at 2:12pm — 12 Comments

हम है राही मुहब्बत

बहर-

212/212/212/212



हम है राही मुहब्बत बताया न कर

प्यार हैरत सें ऐसे जताया न कर

आँख बह जाने दे देख बस तू ह्रदय

भीग जाये जो दामन सुखाया न कर

जिंदगी की राह पर साथ आ हमसफ़र

पास रह के तू दूरी बनाया न कर

क़त्ल करना है तो क़त्ल कर दे मुझे

धार चाकू दिखा कर डराया न कर

जानता हूँ तू वैद्यो के घर से जुडी

दोस्ती में मेरी जखम खाया न कर

प्यार मजहब कभी भी नही देखता

यार मजहब की भाषा सिखाया…

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Added by amod shrivastav (bindouri) on September 14, 2015 at 11:30am — 6 Comments

हिन्दी चमक रही है / गीत

भारत के अंबर पर देखो

सूर्य सी हिन्दी चमक रही है

माँ भारती के उपत्यका में

खुशबू बनकर महक रही है

 

विभिन्न प्रांतों का सेतुबंधन

सरल सर्वजन सर्वप्रिय है

दक्षिण से उत्तर पूर्व पश्चिम

दम दम दम दम दमक रही है

 

संस्कारों की वाहक हिन्दी

सभी भाषाओं में यह गंगा

प्रगति पथ पर नित आरूढ़ ये

पग नवल सोपान धर रही है

 

यूरोप अमेरिका ने माना

है यह भाषा समर्थ सक्षम

हम भारतियों के दिल में…

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Added by Neeraj Neer on September 14, 2015 at 7:59am — 6 Comments

बीते लम्हें... /श्री सुनील

कभी-कभी मैं भी न! वक़्त की इस हरकत पर

टूटा-सा महसूस किया करता हूँ भीतर.

मेरे बीते हुए दौर का वही एक पल

छू देता है मुझे और मैं जाता हूँ ढल.



गया वक़्त लौटता नहीं ये कहा किसी ने

मानूँ मैं क्यों भला सताया जबकि इसी ने.

माज़ी के दख़्ल से ज़िन्दगी ये मेरी,अब

मौजूदा वक़्त भी भला जी पाती है कब.



समय छोङ कर गया, कि जिद्दी थे कुछ लम्हें

गये नहीं, ये बात यकींनन पता है तुम्हें.

क्या ये मुमकिन नहीं, लौट आओ तुम भी

वापस मेरे पास, अचानक हीं… Continue

Added by shree suneel on September 14, 2015 at 2:40am — 2 Comments

वंश वृद्धि (लघुकथा)

कवि सम्मेलन के आगाज़ के साथ ही नवांकुर कवि के कविता पाठ करते ही मरघट सा सन्नाटा पसर गया।बामुश्किल नामी कवी ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा -

" इन्हें कलम चलानी तो आती नहीं फिर माहौल खराब करने के लिए यहाँ किसने आमन्त्रित किया हैं ?"

" अरे , शर्मा जी इन नवांकुरों को मैंने आमन्त्रित किया हैं ।इन्हें सिखाना भी तो जरुरी हैं।"

" ये केवल नाम बटोरना चाहते हैं ,लगन मेहनत से कोई वास्ता नहीं इनका।इन्हें मंच से हटाया जाय "

"शर्मा जी, ये हमे अपना आदर्श मानते हैं "

" तो हम ही मंच छोड़ देते…

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Added by Archana Tripathi on September 14, 2015 at 12:46am — 24 Comments

सिमट कर नहीं रहता / लक्ष्य “अंदाज़

सिमट कर नहीं रहता

~~~~~~~~~~~~~~~

(लक्ष्य “अंदाज़”)

वैसे भी मेरे घर की चिलमन में सिमट कर नहीं रहता !!

रंग नहीं खुशबू है वो मधुवन में सिमट कर नहीं रहता !!

गहरी आँखों के पानी में इक किश्ती कोई डूबी तो क्या ,

रूप का दरिया एक ही दरपन में सिमट कर नहीं रहता !!

कल जब वो उस जंगल से ज़ख़्मी हुए पाँव लिए लौटा ,

बोला ये बनफूल किसी चमन में सिमट कर नहीं रहता !!

गीली माटी की सौंध में लिपटे खस को क्या…

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Added by डॉ.लक्ष्मी कान्त शर्मा on September 13, 2015 at 8:00pm — 3 Comments

हिन्दी का अखबार – ( लघुकथा ) -

 हिन्दी का अखबार – ( लघुकथा  ) -

"रणजीत , तुम्हारे घर के फ़ाटक में यह हिन्दी का अखबार लगा हुआ था, कौन पढता है तुम्हारे घर में "!

"पहले बाबूजी पढा करते थे पर अब  कोई नहीं पढता"!

"अंकल को गुजरे हुए  तो सात साल हो गये , फ़िर  क्यों मंगाते हो"!

" बाबूजी के स्वर्गवास के बाद, मम्मीजी  की  इच्छा थी कि यह अखबार उनके जीते जी आता रहे!मम्मीजी रोज़ सुबह  हिन्दी का अखबार, बाबूजी का चश्मा, बाबूजी की चाय उनके कमरे में रख आती थी!उन्हें इससे बडा सकून मिलता था"!

"पर अब तो…

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Added by TEJ VEER SINGH on September 13, 2015 at 7:30pm — 17 Comments

करें सेवा हिन्दी की // शशि बंसल

करें सेवा हिन्दी की

==================

१४ सितम्बर का दिन यानि हिन्दी दिवस के नाम। हिन्दी यानि भारतीयों की राष्ट्र - भाषा , बहुतों की मातृभाषा। समझ नहीं आता गर्व करूँ या शर्मिंदा होऊँ ? अपनी ही भाषा के लिए एक दिवस औपचारिक रूप से निर्वाह कर, एक परम्परा भर निभाकर ...... । संसार में भारत ही ऐसा देश है , जहाँ अपनी राष्ट्र-भाषा को बताने के लिए , जताने के लिए, मानने के लिए दिवस मनाया जाता है। जोर-शोर से गोष्ठियाँ आयोजित की जाती हैं , विद्यालयीन स्तर पर अनेक प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाती…

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Added by shashi bansal goyal on September 13, 2015 at 7:00pm — 12 Comments

उसकी देह अब भी मांसल है / अतुकांत कविता

सोनाली भट्टाचार्य एवं सभी तेजाब पीड़ितों के लिए 

वह एक लड़की थी

उन्नत नितंबों

पुष्ट उरोजों वाली

श्यामल घनेरे केश

बल खाते पर्वतों के बीच

लहराते

लगता बाढ़ की पगलाई नदी

मेघों के मध्य

घाटी में से गुजर रही हो

खुलकर खिलखिला कर हँसती

कई सितार एक साथ झंकृत हो उठते

उसके सपनों में आता

फिल्मी राजकुमार

जिसके साथ वह

गीत गाती झूमती नाचती

फूलों के बाग में

स्कूल कॉलेज से आती जाती

सबकी निगाहों की केंद्र बिन्दु

सबके…

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Added by Neeraj Neer on September 13, 2015 at 5:17pm — 12 Comments

ओस के शबनमी कतरों में …

ओस के शबनमी कतरों में …

सर्द सुबह

कोहरे का कहर

सिकुड़ते जज़्बातों की तरह ठिठुरती

सहमी सी सहर

ओस की शबनम में भीगी

चिनार के पेड़ों हिलाती

आफ़ताब की किरणों को छू कर गुजरती

हसीन वादियों की बादे-सबा

रूह को यादों के लिबास में लपेट

जिस्म को बैचैन कर जाती है

तुम आज भी मुझे

धुंध में गुम होती पगडंडी पर

खड़ी नज़र आती हो



मैं बेबस सा

अपने तसव्वुर में

हर शब-ओ-सहर बिताये

हसीन लम्हों…

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Added by Sushil Sarna on September 13, 2015 at 2:31pm — 4 Comments

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