आस बांधे खड़ा था
धूप से तन जल रहा था
जेष्ठ भी तो तप रहा था
आस थी बरसात की
प्यास थी एक बूंद की
आ गिरेगी शीश पर
तृप्त होगी देह तब
यह सोच कर उत्साह मन में हो रहा था
घन-घटा चहूँ ओर छाती जा रही थी
मलय शीतल उमड़-घुमड़ के बह रही थी
मेघ घिर-घिर आ रहे थे
मोर भी संदेश मीठा दे रहे थे
हर्ष दिल में हो रहा था
आनंद से छोटे बड़े सब घूमते
बाल मन से थे धरा को चूमते
एक दूसरे से मिल रहे जैसे गले
उल्लास…
ContinueAdded by kalpna mishra bajpai on February 8, 2014 at 4:30pm — 6 Comments
दोहा-----------बसन्त
आम्र वृक्ष की डाल पर, कोयल छेड़े तान।
कूक कूक कर कूकती, बन बसंत की शान।।1
वन उपवन हर बाग में, तितली रंग विधान।
चंचल मन उदगार है, प्रीति-रीति परिधान।।2
क्षितिज प्रेम की नींव है, कमल भवन, अलि जान।
दिन भर गुन गुन गान है, सांझ ढले रस पान।।3
मन मन्दिर है प्रेम का, जिसमें रहते संत।
विविध रंग अनुबंध में, खिल कर बनों बसंत।।4
पुरवार्इ मन रास है, सकल बहार उजास।
किरनें जल…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on February 7, 2014 at 9:30pm — 9 Comments
Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on February 7, 2014 at 7:52pm — 13 Comments
उमा-उमा मन की पुलकन है
शिव का दृढ़ विश्वास
मिले अब !
सूक्ष्म तरंगों में
सिहरन की
धार निराली प्राणपगी है
शैलसुता तब
क्लिष्ट मौन थी …
Added by Saurabh Pandey on February 7, 2014 at 6:30pm — 44 Comments
Added by anwar suhail on February 7, 2014 at 4:04pm — 5 Comments
डरना कैसा मौत से, यह तो सच्ची यार
धोखा देती जिन्दगी , मौत निभाए प्यार /
मौत निभाए प्यार , साथ है लेकर जाती
सबक जिंदगी रोज, नया हमको सिखलाती
नेक मौत का काम, सबकी पीर को हरना
सरिता कहे पुकार, मत तुम मौत से डरना //
.....................................................
................मौलिक व प्रकाशित ...........
Added by Sarita Bhatia on February 7, 2014 at 10:02am — 16 Comments
कवि
कौन कहता है
मैं कवि हूँ और वह नहीं ?
मैं पेट भर खाने के बाद
बरामदे की गुनगुनी धूप में बैठा हूँ
प्रकृति दर्शन के लिए –
वह,
भूखे पेट
एक कटी पतंग की डोर थामने
आसमान की ओर बेतहाशा भागा जा रहा है
मगर,
आसमान है कि
उससे दूर हटता जा रहा है –
बादल, क्षितिज और
एक कटी पतंग को
अपनी नीलिमा की ओढ़नी में छुपाकर,
कविता की लकीर खींचता हुआ !!!
(मौलिक तथा अप्रकाशित रचना)
Added by sharadindu mukerji on February 6, 2014 at 10:52pm — 10 Comments
२१२२ २१२२ २२२२ २१२
ला ल ला ला ला ल ला ला ला ला ला ला ला ल ला
भेदने जब तम फलक का रवि आमादा हो गया
चाँद पीकर चांदनी अपनी ही नभ में खो गया
हाथ हम रखते रहे जलते अंगारों पर यूं ही
एक फरिस्ता जिन्दगी में ख्वाबे गुल ही बो गया
बज्म में वो गीत गाये झूमे पीकर मस्त हो
और नन्हा लाल घर पे रोके भूखा सो गया
घिर के नफरत में जहाँ की सूझा जब कुछ भी नहीं
चौखटों पे मंदिरों की…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Mishra on February 6, 2014 at 1:30pm — 12 Comments
“ पिताजी, वो अपनी नदी के पास वाली जमीन लगभग कितनी कीमत रखती होगी, अगर उसे बेच दिया जाय तो कैसा रहेगा ?
“क्यों..? बेटा क्या जरुरत आ पड़ी है ? खुली तिजौरी को बंद करने की..”
“ पिताजी..! ऐसे ही एक प्लान बनाया है, जिससे भविष्य संवर सकता है”
“ अरे बेटा..भविष्य संजोये रखने से संवरता है खोने से नही, वैसे मैंने अपनी नौकरी के रहते तुम्हारी पढाई पर बहुत खर्च किया, यहाँ तक की तुम्हारा घर बसाने में अपना पी.एफ. का पैसा भी झोंक दिया, , मैं तो यहाँ छोटे शहर में अपनी पेंशन से अपना और…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on February 6, 2014 at 12:05pm — 16 Comments
ढांचा सुधरे देश का ,सुदृढ़ हो आकार
खुशियाँ बसती हैं जहां ,छोटा हो परिवार
छोटा हो परिवार ,प्रेम से आँगन महके
पुत्री हो या पुत्र ,नीड़ में खुशियाँ चहके
बूढों का सम्मान ,भरे जीवन का सांचा
हो जाए उत्थान , देश का सुधरे ढांचा
**************************
(२)|
पहले दो टुकड़े हुए ,और हुए फिर चार
टूक-टूक रोटी बटे,बढ़े अगर परिवार
बढ़े अगर परिवार, लड़ाई गुत्थम गुत्थी
खिचे बीच दीवार, रोज की माथापच्ची
रिश्तों बीच…
ContinueAdded by rajesh kumari on February 6, 2014 at 11:00am — 16 Comments
मन के जीते जीत है ,मन के हारे हार
मन को समझा ना अगर जीना हो दुश्वार /
जीना हो दुश्वार अगर मन दुख से भारी
सुख से पल संवार, कर के मन संग यारी
मन से कर लो प्रीत ,छोड़ो मोह अब तन के
मन की ना हो हार ,प्यार के फेरो मनके //
..........मौलिक व अप्रकाशित ..............
Added by Sarita Bhatia on February 6, 2014 at 10:00am — 10 Comments
2122 2122 2122 2122
***********************************
दीप को जलना नहीं है भूल से भी द्वार मेरे
आप नाहक कोशिशें क्यों कर रहे हो यार मेरे
खून हाथों पर लगा है किन्तु कातिल मैं नहीं हूँ
फूल से अठखेलियों में चुभ गये थे खार मेरे
छा गया है आजकल जो इस मुहब्बत में कुहासा
क्या बताऊँ आपको मैं देवता बीमार मेरे
दीन में रखना मुझे क्यों आप फिर भी चाहते हो
मयकदे में भेज बदले जब सदा आचार …
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 6, 2014 at 8:00am — 8 Comments
परिश्रम है पारस पत्थर , जीवन को सोना बनाता है।
मेहनत करता जो जीवन में, सबकुछ वह पा जाता है।।
परिश्रम से एक ही पल में ,भाग्य दास बन जाता है।
लक्ष्मी उसके चरण है छूती ,जो मेहनत की खाता है।।
परिश्रम के बल पे टिकी है ,ये दुनियाँ तो सारी।
मेहनत से जिसने आँख चुराई ,ठोंकर उसने खाई।।
गीता के उपदेश ने भी तो ,कर्म की रीत सिखाई।
पाया उसने सभी है जिसने ,कर्म से प्रीत लगाई।।
मेहनत जो भी करता है वो , दुःख नहीं कभी पाता है।
पत्थर खाये यदि मेहनती ,वो भी हजम कर…
Added by chouthmal jain on February 6, 2014 at 3:00am — 3 Comments
कोई कैसे सुने दास्ताँ मेरी
खुद को भूल जाते सुनते-सुनते.
वो भी साथ होते मेरे लेकिन
पांव थक जाते हैं चलते-चलते.
याद आती मुझे जब कभी उसकी
आँसू बहाते हैं चुपके-चुपके.
दिल बहुत चाहता आज हँसने को
आँख भर आती है हँसते-हँसते.
मर गये होते चाहत में उसके
मौत आती है पर मरते-मरते.
(मौलिक व अप्रकाशित )
अनिल कुमार 'अलीन'
Added by अनिल कुमार 'अलीन' on February 5, 2014 at 11:30pm — 11 Comments
(१)
जब मैंने होश सँभाला तो मेरी और राजू की लंबाई बराबर थी। मुझे आँगन के बीचोबीच राजू के दादाजी ने लगाया था। राजू के पिताजी अपने सभी भाइयों में सबसे बड़े हैं। पिछले पंद्रह वर्षों से घर में कोई छोटा बच्चा नहीं था। ऐसे में जब राजू का जन्म हुआ तो वह स्वाभाविक रूप से परिवार में सबका दुलारा बन गया, विशेषकर अपने दादाजी का। राजू की देखा देखी मैं भी उसके दादाजी को दादाजी कहने लगा। मेरे बारे में लोगों की अलग अलग राय थी। कुछ कहते थे कि आँगन में कटहल का पेड़…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 5, 2014 at 10:00pm — 4 Comments
(बहर - 2122,2122,212)
पैर में क्यो गुदगुदी होने लगी
याद तेरी बेबसी होने लगी
वक्त काफी हो गया तुम से मिले
तेरी सूरत अजनबी होने लगी
अपने हाथो घाव ताजा कर रहा
जख्म स्याही लेखनी होने लगी
ये इबारत प्यार का है चेहरा
हर नए गम से खुशी होने लगी
तू नही तेरी निशानी ही सही
देख लो संजीवनी होने लगी
------------------------
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by रमेश कुमार चौहान on February 5, 2014 at 10:00pm — 7 Comments
आँगन की नीम कहे
कुछ पात ही अब शेष रहे
प्रिय बसंत तुम आना
नव मधुमास ले आना
निज कर तुम सजाना
प्रीतम की राह तके
आँगन की ..................
पत्तों पर से ओस हटी
मण्डल मे छायी धुंध हटी
अंतस मे कोंपल सजी
नवजीवन ही आस रहे
आँगन की नीम ...................
शरद शिशिर सब है गए
सज धज ऋतुराज है आए
आहट पा नीम लहराये
चिर बसंत ही शेष रहे
आँगन की…
ContinueAdded by annapurna bajpai on February 5, 2014 at 8:30pm — 8 Comments
घूमूँगा बस प्यार तुम्हारा
तन मन पर पहने
पड़े रहेंगे बंद कहीं पर
शादी के गहने
चिल्लाते हैं गाजे बाजे
चीख रहे हैं बम
जेनरेटर करता है बक बक
नाच रही है रम
गली मुहल्ले मजबूरी में
लगे शोर सहने
सब को खुश रखने की खातिर
नींद चैन त्यागे
देहरी, आँगन, छत, कमरे सब
लगातार जागे
कौन रुकेगा दो दिन इनसे
सुख दुख की कहने
शालिग्राम जी सर पर बैठे
पैरों…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 5, 2014 at 7:59pm — 18 Comments
लो,फिर याद आई
आँसुओं की बाढ़ आई
थी उनके करीब इतने
वो थे मुझमे मै थी उनमे |
कहा था कभी
चली जायेगी ससुराल
कैसे रहूँगा तुम बिन,
खुद छोड़ गये साथ
ये भी ना सोचा
कैसे रहूँगी उन बिन |
बरसों बीत गये
निहारते हुए राह
ना कोई सन्देश ना कोई तार
खड़ी हूँ अब भी वहीं
संभाले दर्द का सैलाब
छोड़ गये थे पापा जहाँ |
मीना पाठक
मौलिक/अप्रकाशित
Added by Meena Pathak on February 5, 2014 at 3:00pm — 16 Comments
गहराइयाँ
घड़ी की दो सूइयाँ
काली गहराइयाँ
समय के कन्धों पर
उन्मुक्त
फिर भी बंधी-बंधी
पास आईं, मिलीं
मिलीं, फिर दूर हुईं
कोई आवाज़ .. टिक-टिक
बींधती चली गई
था भूकम्प, या मिथ्या स्वप्न
अब वह घड़ी पुरानी रूकी हुई
उखड़े अस्तित्व की छायाओं में
लटक रही है बेजान ।
समय की दीवार
रूकी धड़कन का एहसास ...
और वह सूइयाँ
कोई पुरानी भूली हुई…
ContinueAdded by vijay nikore on February 5, 2014 at 10:00am — 24 Comments
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