राष्ट्रपति बनने के लिए अब एकमात्र शर्त है
रोबोट होना
चाबी से चलने वाले खिलौनों को
प्रधानमंत्री पद के लिए प्राथमिकता दी जाती है
प्राणवान और बुद्धिमान बंदूकें बनाई जा रही हैं
गोलियों पर कारखानों में ही लिख दिये जाते हैं मरने वालों के नाम
इंसान विलुप्त हो चुके हैं
धरती पर रह गई है
मानव और यंत्र के समागम से बनी एक प्रजाति
सभी विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में
शिक्षा के नाम पर…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 3, 2014 at 7:46pm — 5 Comments
कितना कहा था कि घरेलू लड़की लाओ...पर मेरी कोई सुने तब ना...सब को पढ़ी-लिखी बी-टेक लड़की ही चाहिए थी...अब ले लो कमाऊ बहू...मुंह पर कालिख मल के चली गई, अरे...उसे किसी और से प्रेम था तो मेरे बेटे की जिंदगी क्यों खराब की ...पहले ही मना कर देती तो ये दिन तो ना देखना पड़ता हमें..अब मै किसी को क्या मुंह दिखाऊँगी...सब तो यही कहेंगे ना कि सास ही खराब होगी ..उसी के अत्याचार से तंग आ कर बहू ने घर छोड़ा होगा..हे राम ! अब मै कहाँ जाऊँ...क्या करूँ...अरे...कोई उसे समझा-बुझा के घर ले आओ...मै उसके पाँव पकड़ लेती…
ContinueAdded by Meena Pathak on February 3, 2014 at 7:00pm — 6 Comments
ऋतुराज के स्वागत में पांच दोहे
स्वागत तव ऋतुराज
चंप पुष्प कटि मेखला, संग सुभग कचनार।
गेंदा बिछुआ सा फबे, गल जूही का हार।१।
.
बेला बाजूबंद सा, कंगन हरसिंगार।
गुलमोहर भर मांग में, करे सखी श्रृंगार ।२।
.
पहन चमेली मुद्रिका, नथिया सदाबहार।
गुडहल बिंदी भाल दे, मन मोहे गुलनार।३।
.
जूही गजरा केवडा, सजे सखिन के बाल।
तन मन को महका रही, मौलश्री की माल।४।
.
झुमका लटके कान में, अमलतास का आज।
इस अनुपम श्रृंगार…
Added by Satyanarayan Singh on February 3, 2014 at 5:30pm — 23 Comments
1)
मन उदास है
पता नहीं, क्यों..
झूठे !
पता नहींऽऽ, क्योंऽऽऽ..?
2)
कितना अच्छा है न, ये पेपरवेट !
कुर्सी पर कोई आये, बैठे, जाये…
Added by Saurabh Pandey on February 3, 2014 at 5:30pm — 12 Comments
अना की कब्र पर जबसे, गुलों को बो चुके हैं हम,
हमें लगने लगा है, फिर से जिंदा हो चुके हैं हम।
उगेंगे कल नए पौधे, यकीं कुछ यूँ हुआ हमको,
ज़मीं नम हो गयी है, आज इतना रो चुके हैं हम।
उतारे कोई अब तो, इन रिवाजों के सलीबों को,
छिले कंधे लिए, सदियों से इनको ढो चुके हैं हम।
मेरे सपने अभी तक डर रहे हैं, सुर्ख रंगों से,
हथेली से लहू यूँ तो, कभी का धो चुके हैं हम।
बची है अब कहाँ, मुँह में जुबाँ औ ताब आँखों में,
बहुत पाने की चाहत में,…
Added by Arvind Kumar on February 3, 2014 at 12:30pm — 7 Comments
बदला है वातावरण, निकट शरद का अंत ।
शुक्ल पंचमी माघ की, लाये साथ बसंत ।१।
अनुपम मनमोहक छटा, मनभावन अंदाज ।
ह्रदय प्रेम से लूटने, आये हैं ऋतुराज ।२।
धरती का सुन्दर खिला, दुल्हन जैसा रूप ।
इस मौसम में देह को, शीतल लगती धूप ।३।
डाली डाली पेड़ की, डाल नया परिधान ।
आकर्षित मन को करे, फूलों की मुस्कान ।४।
पीली साड़ी डालकर, सरसों खेले फाग ।
मधुर मधुर आवाज में, कोयल गाये राग ।५।
गेहूँ की बाली मगन, इठलाये अत्यंत ।…
Added by अरुन 'अनन्त' on February 3, 2014 at 12:00pm — 29 Comments
मनुज रूप इंग्लैंड गये थे, वहाँ पहुँच “ डंकी ” कहलाय।
घुटने टेके, सिर भी झुकाय, गुलाम जैसा खेल दिखाय।
जब उपाधि डंकी की पाये, सब बेशर्मों सा मुस्काय।
वह रे क्रिकेटर हिन्दुस्तानी, अपनी इज़्ज़त खुद ही गवांय।
आस्ट्रेलिया में हाल खराब, सभी मैंच में हमें हराय।
अरबों रुपय कमाने वालों, दो कौड़ी का खेल दिखाय।
अफ्रीका में मैच भी हारे, उस पर हाथ पैर तुड़वाय।
खेल दिखाये बच्चों जैसा , रोते गाते वापस…
ContinueAdded by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on February 3, 2014 at 12:00pm — 12 Comments
Added by C.M.Upadhyay "Shoonya Akankshi" on February 2, 2014 at 11:00pm — 13 Comments
दोहे लिखने की मेरी पहली कोशिश है
घूम - घूम के देश मे, बाँट रहा है ज्ञान।
बातें कड़वी बोलता, सत्य उसे ना मान।।
अपना सीना तान के, करे शब्द से वार।
अन्धे उसके भक्त हैं, करते जय जयकार।।
बाँटे अपने देश को, लेके प्रभु का नाम।
उसको आता है यही, अधर्म का ही काम।।
यही देश का भाग है, यही देश का सत्य।
कोई आगे आय ना, नाग करे सो नृत्य।।
(मौलिक व अप्रकाशित)
संशोधन के पश्चात पुनः दोहे…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on February 2, 2014 at 10:30pm — 16 Comments
ठिठुरते हुए तारे
शांत माहौल
आँख मिचौली खेलता
बादलों के पीछे छिपा चाँद
जिसे निहारते हुए
एकाएक खुशबु लिए
एक हवा का झोंका
तुम्हारे स्पर्श सा
छू गया मुझे
पूस की वो रात
लेटते हुए
कभी इस करवट
कभी उस करवट
ह्रदय में हुआ कंपन
आँखों से छलका प्रेम
भिगो गया
मेरा तन बदन
मेरा मन
तन्हा गुजारते हुए
पूस की वो रात
तुम्हारी छूअन से
पूस की वो रात
आत्मीय हो उठती…
Added by Sarita Bhatia on February 2, 2014 at 12:00pm — 8 Comments
1222 1222 1222 1222
मुहब्बत की नहीं उससे , वफा भी फिर निभाता क्या
खबर थी ये उसे भी जब , मुझे तोहमत लगाता क्या
सपन में रात भर था जो , उसे भी ले गया सूरज
मिला साथी मुझे भी है , जमाने फिर बताता क्या
जिसे डर हो सजाओं का, उसे यारों सताता डर
हुए पैदा सलीबों पर , बता डरता डराता क्या
न हो तू अब खफा ऐसे , रहा है भाग बंजारा
न था कोई ठिकाना जब, पता तुझको लिखाता क्या…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 2, 2014 at 7:00am — 11 Comments
एक मासूम...
तल्लीनता से जोर-जोर पढ़ रहा था
क-कमल,ख-खरगोश,ग-गणेश।
शिक्षक ने टोका
ग-गणेश! किसने बताया?
बाबा ने...
माँ और पिता को सब कुछ माना
तभी तो सबसे बड़े देव हुए।
नहीं,गणेश नहीं कहते
संप्रदायिकता फैलेगी
जिसे तुम समझो झगड़ा. .विवाद
ग-गधा कहो बेटे।
आस्था भोली थी
बाबा के गणेश,मसीहा और अल्लाह से रेंग
'गधे' में शांति खोजने…
ContinueAdded by Vindu Babu on February 2, 2014 at 4:50am — 17 Comments
जाने क्यूँ अलसायी धूप ?
माघ महीने सुबह सबेरे , जाने क्यूँ अलसायी धूप ?
कुहरा आया छाए बादल
टिप - टिप बरसा पानी ।
जाने कब मौसम बदलेगा
हार धूप ने मानी ।
गौरइया भी दुबकी सोचे , जाने क्यूँ सकुचाई धूप !
माघ महीने सुबह सबेरे , जाने क्यूँ अलसायी धूप ?
बिजली चमकी , गरजा बादल
हवा चली पछुवाई ।
थर – थर काँपे तनवा मोरा
याद तुम्हारी आयी ।
घने बादलों मे घिर – घिर कर, लेती अब अंगड़ाई धूप !
माघ…
ContinueAdded by S. C. Brahmachari on February 1, 2014 at 8:40pm — 13 Comments
1222 1222 122
वो तन को ढाँकते हैं रोशनी से
बचा तू ही ख़ुदा इस बेबसी से
बनावट से ज़रा सा दूर रहना
मै कहना चाहता हूँ , सादगी से
नज़र में मुस्कुराहट, होठ चुप हैं
न जाने कह रहे हैं…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on February 1, 2014 at 6:00pm — 38 Comments
छप्पय छंद (रोला+उल्लाला)
हिन्दी अपने देश, बने अब जन जन भाषा ।
टूटे सीमा रेख, हमारी हो अभिलाषा ।।
कंठ मधुर हो गीत, जयतु जय जय जय हिन्दी ।
निज भाषा के साथ, खिले अब माथे बिन्दी ।।
भाषा बोली भिन्न है, भले हमारे प्रांत में ।
हिन्दी हम को जोड़ती, भाषा भाषा भ्रांत में ।।
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मौलिक अप्रकाशित
Added by रमेश कुमार चौहान on February 1, 2014 at 4:07pm — 8 Comments
212 212 212 212
चंद यादें ग़ज़ल बन किताबों में हैं
हसरतें तेरी ही इन निगाहों में हैं
कुर्बतें वो तबस्सुम तेरी शोखियाँ
बस यही साअतें मेरी यादों में हैं
अपने आँचल से तूने हवा दी जिन्हें
वो शरारे हरिक सिम्त राहों में हैं
जो सिवा अपने सोचें किसी और की
अज़्मतें इतनी क्या हुक्मरानों में हैं
कुछ खबर ले कोई आके इनकी ज़रा
कितनी बेचैनियाँ ग़म के मारों में हैं
साअत= क्षण,…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on February 1, 2014 at 3:45pm — 30 Comments
मैं
तन्हा, खामोश बैठी,
एक दिन
निहार रही थी
अपना ही प्रतिबिम्ब
खूबसूरत झील में,
कई पक्षी
क्रीड़ा कर रहे थे
नावों में बैठे
कई जोडे़
अठखेलियाँ करती
सर्द हवा को
गर्मी दे रहे थे
झील के किनारे खडे़
ऊँचे-ऊँचे दरख्त
भी हिल रहे थे,
गले मिल रहे थे
तभी एंक चील ने
अचानक तेजी से
गोता लगाया
किनारे आई मछली को
मुँह मे दबा
जीवन क्षणमंगुर है
यह एहसास…
ContinueAdded by mohinichordia on February 1, 2014 at 12:02pm — 10 Comments
हम है क्या कुछ भी नहीं, ईश अंश ही सार,
मन के भीतर रोंप दे, सद आचार विचार |
त्याग और सहयोग का, जिसके दिल में वास
माली जैसा भाव हो, उस पर ही विश्वास |
समय नहीं करुणा नहीं, बाते करते व्यर्थ,
भाव बिना सहयोग के, साथी का क्या अर्थ |
समीकरण बैठा सके, बहिर्मुखी वाचाल,
संख्या उनके मित्र की, होती बहुत विशाल |
घंटों उठते बैठते, कछु न मदद की आस,
समय गुजारे व्यर्थ में, दोस्त नहीं वे ख़ास…
ContinueAdded by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on February 1, 2014 at 11:00am — 29 Comments
चारू चरण
चारण बनकर
श्रृंगार रस
छेड़ती पद चाप
नुुपूर बोल
वह लाजवंती है
संदेश देती
पैर की लाली
पथ चिन्ह गढ़ती
उन्मुक्त ध्वनि
कमरबंध बोले
लचके होले
होले सुघ्घड़ चाल
रति लजावे
चुड़ी कंगन हाथ,
हथेली लाली
मेहंदी मुखरित
स्वर्ण माणिक
ग्रीवा करे चुम्बन
धड़की छाती
झुमती बाला कान
उभरी लट
मांगमोती ललाट
भौहे मध्य टिकली
झपकती पलके
नथुली नाक
हंसी उभरे गाल
ओष्ठ…
Added by रमेश कुमार चौहान on February 1, 2014 at 9:44am — 8 Comments
सभी विद्वजनों से इस्लाह के लिए -
वज्न 2122 / 2122 / 2122 / 212 (2121)
कोई तुझसा होगा भी क्या इस जहाँ में कारसाज
डर कबूतर को सिखाने रच दिए हैं तूने बाज
तीरगी के करते सौदे छुपछुपा जो रात - दिन
कर रहे हैं वो दिखावा ढूँढते फिरते सिराज
ज्यादती पाले की सह लें तो बिफर जाती है धूप
कर्ज पहले से ही सिर था और गिर पड़ती है गाज
जो ज़मीं से जुड़ के रहना मानते हैं फ़र्ज़-ए-जाँ
वो ही काँधे को झुकाए बन…
ContinueAdded by vandana on February 1, 2014 at 7:30am — 25 Comments
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