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ग़ज़ल (तोड़ते भी नहीं यारी को निभाते भी नहीं)

(फा इलातुन _फइलातुन _फइलातुन_फेलुन)

तोड़ते भी नहीं यारी को निभाते भी नहीं l 

शीशए दिल में है क्या मुझको बताते भी नहीं l

ऐसे दीवाने भी हम दम हैं जो उलफत के लिए

गिड़ गिड़ाते भी नहीं सर को झुकाते भी नहीं l

मांगता जब भी हूँ मैं उनसे जवाबे उलफत

ना भी करते नहीं हाँ होटों पे लाते भी नहीं l

उनकी उलफत का यकीं कोई भला कैसे करे

वो मिलाते भी नहीं आँख चुराते भी नहीं l

हक़ गरीबों का जो बिन मांगे तू देता…

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Added by Tasdiq Ahmed Khan on August 18, 2018 at 6:00pm — 16 Comments

घर के सपने संजो अधभरा ठीक हूँ।।

बह्र-212-212-212-212



घर पे अपने बुरा या भला ठीक हूँ।।

गुमशुदा हूँ अगर गुमशुदा ठीक हूँ।।

पर्त धू की चढ़ी,दीमकों का बसर।

हो लगी चाहे सीलन पता ठीक हूँ।।

मेरा लहजा है कोई कहे न कहे।

मैं रदीफ़ ए ग़ज़ल काफिया ठीक हूँ।।

ठाठ की टोकरी या तुअर झाड़ की ।

घर के सपने संजो अधभरा ठीक हूँ।।

शान ओ शौक़त न कोई बसर चाहिए।

बस है चादर फटी अध-ढका ठीक हूँ।।

.

आमोद बिन्दौरी…

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Added by amod shrivastav (bindouri) on August 18, 2018 at 5:00pm — 4 Comments

घूंघट - लघुकथा –

घूंघट - लघुकथा –

"बहू, जुम्मे जुम्मे आठ दिन भी नहीं हुए शादी को और तुमने अपने रंग दिखाने शुरू कर दिये"।

"माँ जी, यह आप क्या कह रहीं हैं? मैं कुछ समझी नहीं"?

"अरे वाह, चोरी और सीना जोरी"।

"माँ जी, आप मेरी माँ समान हैं। मुझसे कोई गलती हुयी है तो बेशक डाँटिये फटकारिये मगर मेरी गलती तो बताइये"।

"क्या तुम्हारी माँ ने तुम्हें अपने ससुर और जेठ का आदर सम्मान करना नहीं सिखाया"?

"माँ जी, मैं तो पिता जी और बड़े भैया का पूरा सम्मान करती हूँ"।

"तुम्हें क्या…

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Added by TEJ VEER SINGH on August 18, 2018 at 11:01am — 9 Comments

"असली पहचान : नई सदी, नई मुसीबतें" (लघुकथा)

"लगता है वाक़ई बहुत गड़बड़ हो गई। कुछ ज़्यादा ही नेक साहित्य पढ़ ऊल-जलूल उसूल बना कर उलझन में डाल दिया अपनी इस शख़्सियत को!" एक मुशायरे में शामिल होने के लिए मिर्ज़ा साहिब सूटकेस जमाते हुए पिछले अनुभवों से 'सबक़' सीखने की कोशिश कर रहे थे; आजकल के हालात के हिसाब से अपने कुछ फैसले वे बदलने की सोच रहे थे।

"उस दाढ़ी वाले मुल्लाजी को रोक कर ज़रा उसकी तलाशी तो लो!" उनके पिछले अनुभव की पुनरावृत्ति करते हुए देर रात ग़श्त लगाते हुए एक पुलिस वाले ने अपने साथी को निर्देश दिया था पिछली दफ़े। मिर्ज़ा जी को आवाज़…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on August 17, 2018 at 5:00pm — 1 Comment

सहारा- लघुकथा

कितनी ही बार वह प्रयास कर चुका था लेकिन झोला संभालने में वह अपने आप को असमर्थ पा रहा था. अपने आप पर उसे अब क्रोध आने लगा, क्या जरुरत थी पैदल आकर सब्जी खरीदने की. स्कूटर रहता तो कम से कम उसपर इसे रख तो लेता लेकिन अब करे? सब्जियों से ठसाठस भरा झोला उठाने में उसे वैसे ही बहुत कठिनाई हो रही थी और उस पर इसकी पट्टी को आज ही टूटना था.

अब घर कैसे जाए, झख मारकर उसने घर पर बेटे को फोन लगाया. बेटा भी मैच देखने में मगन था तो उसने भी टालते हुए कहा "अरे एक रिक्शा ले लीजिये और आ जाईये", और फोन रख…

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Added by विनय कुमार on August 17, 2018 at 12:30pm — 4 Comments

अटल जी को श्रद्धांजलि

पूर्व प्रधानमंत्री भारत रत्न माननीय अटल बिहारी वाजपेयी जी को नमन

------------------------------------

हिन्दू तन मन हिन्दू जीवन रग रग हिन्दू युक्त अटल।

आज जगत के इस बन्धन को त्याग हो गए मुक्त अटल।।

नैतिकता के मानदंड थे प्रेम राग के अनुरागी

सर्वधर्म समभाव के असली आप थे सच्चे अनुगामी

सकल विश्व में भारत की जो मान-प्रतिष्ठा आज बढ़ी

उसकी गाथा अटल बिहारी के द्वारा परवान चढ़ी

विश्व पटल पर एक शक्ति सम्पन्न राष्ट्र है भारत जो

आप…

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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 16, 2018 at 6:00pm — 10 Comments

"आया ...आया ... गया!" (लघुकथा)

"लो! एक और गया! .. बह गया बेचारा!"



"वो देखो! एक तो अब आ गया न!" आशावादी दृष्टिकोण वाले युवक ने तेज बहाव वाले जलप्रपात के किनारे वाली चट्टान पर खड़ी भीड़ से आसमान की ओर देखते हुए कहा। रेस्क्यू ऑपरेशन में भेजे गये इकलौते चॉपर हेलिकॉप्टर से लगभग चालीस लोगों को जलसमाधि से बचाना था। घने काले बादलों के अंधकार और रुक-रुक कर हो रही बारिश को झेलते हुए रेस्क्यू दल-सदस्य 'रस्सी की सीढ़ी' से पार्वती नदी के बीच चट्टान में फंसे चार-पांच युवाओं को ही बचाने में सफल हुए। क़रीब तीन सौ मीटर दूर किनारे…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on August 15, 2018 at 10:30pm — 4 Comments

स्वतंत्रता दिवस पर ३ रचनाएं :

स्वतंत्रता दिवस पर ३ रचनाएं :

एक चौराहा

लाल बत्ती

एक हाथ में कटोरा

भीख का

एक हाथ में झंडा बेचता

कागज़ का

न भीख मिली

न झंडा बिका

कैसे जलेगा

चूल्हा शाम का

क्या यही अंजाम है

वीरों के बलिदान का

सुशील सरना

.... .... ..... ..... ..... ..... ....

हाँ

हम आज़ाद हैं

अब अंग्रेज़ नहीं

हम पर

हमारे शासन करते हैं

अब हंटर की जगह

लोग

आश्वासनों से

पेट भरते हैं

महंगाई,भ्रष्टाचार

और…

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Added by Sushil Sarna on August 15, 2018 at 1:00pm — 14 Comments

टकराव — डॉo विजय शंकर

फिर एक बार 

स्वाधीनता का 

जश्न मनाया हमने। 

पर अभी भी स्वाधीनता 

का…

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Added by Dr. Vijai Shanker on August 15, 2018 at 9:59am — 8 Comments

ग़ज़ल

1222 1222 1222 1222 

बड़ी उम्मीद थी उनसे वतन को शाद रक्खेंगे ।

खबर क्या थी चमन में वो सितम आबाद रक्खेंगे ।।

है पापी पेट से रिश्ता पकौड़े बेच लेंगे हम।

मगर गद्दारियाँ तेरी हमेशा याद रक्खेंगे ।।

हमारी पीठ पर ख़ंजर चलाकर आप तो साहब ।

नये जुमले से नफ़रत की नई बुनियाद रक्खेंगे ।।

विधेयक शाहबानो सा दिये हैं फख्र से तोहफा ।

लगाकर आग वो कायम यहां उन्माद रक्खेंगे ।।

इलक्शन आ रहा है दाल गल जाए न फिर उनकी।

तरीका…

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Added by Naveen Mani Tripathi on August 14, 2018 at 8:06pm — 8 Comments

गजल(उजाले..लुभाने लगे हैं)

122 122 122 122

उजाले हमें फिर लुभाने लगे हैं

नया गीत हम आज गाने लगे हैं।1

बढ़े जो अँधेरे, सताने लगे हैं

गये वक्त फिर याद आने लगे हैं।2

कदम से कदम हम मिलाके चले थे

पहुँचने में क्यूँ फिर जमाने लगे हैं? 3

लुटे जालिमों से,यहाँ भी ठगे हम

लुटेरे मसीहा कहाने लगे हैं।4

अदाओं ने मारा बहाने बनाकर,

बसे जो ज़िगर खूं बहाने लगे हैं।5

"मौलिक व अप्रकाशित"

Added by Manan Kumar singh on August 14, 2018 at 7:13pm — 11 Comments

खुदापरस्ती

खुदापरस्ती   ... (अतुकांत)

मुअम्मे कुछ ऐसे जो हम जीते रहे

पर ज़िन्दगी भर हमसे बयां न हुए

 

कैसी है तिलिस्मी मुसर्रत की तलाश

मशगूल रखती रही है शब-ओ-रोज़

हसरतें भी देती हैं छलावा…

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Added by vijay nikore on August 13, 2018 at 9:08pm — 8 Comments

गोधूलि की बेला में (लघु रचना ) ....

मैं
आस था
विश्वास था
अनभूति का
आभास था
पथ पथरीला प्रीत का
लम्बा और उदास था
जाने किसके हाथ थे
जाने किसका साथ था
गोधूलि की बेला में
अंतिम जीवन खेला में
आहटों की देहरी पर
अटका
मेरा
श्वास था

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on August 13, 2018 at 6:30pm — 14 Comments

कैसे-कैसे सवालों का जवाब है जिंदगी कांटों के साथ-साथ गुलाब है जिंदगी

कैसे-कैसे सवालों का जवाब है जिंदगी

कांटों के साथ-साथ गुलाब है जिंदगी

तुम समझ सके न जिसे हम समझ सके

ऐसे मसाएलों का अजाब (दुख/संत्रास) है जिंदगी

शज़र (वृक्ष) की ओट में चांद ठहर गया है

चांदनी कह रही है, माहताब है जिंदगी

मेरे औ चांद के जो दरम्यान था

शज़र का हल्का सा नक़ाब है जिंदगी

तेरी मुस्कुराहटों, रुसवाईयों से अलग

भूख और गुरबतों का असबाब है जिंदगी

तू रहे कहीं, मुझ से जुदा रह नहीं…

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Added by SudhenduOjha on August 13, 2018 at 10:30am — 3 Comments

गीत- प्यार के आगे

भले थोड़ी रुकावट आज है

पतवार के आगे

किनारा भी मिलेगा कल,

हमें मँझधार के आगे.

 

अमन की क्यारियाँ सींचो,

मुहब्बत को महकने दो.

हृदय में आज अपने तुम,…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on August 12, 2018 at 12:08pm — 10 Comments

'तोप, बारूद और तोपची' (लघुकथा)

"अरे, भाबीजी तुम तो अब भी घर पर ही जमी हो!" मोती ने बड़े ताअज्जुब से कहा - "ऊ दिना तो तुम बड़ी-बड़ी बातें फैंक रईं थीं कि अब नईं रहने इते हाउस-वाइफ़ बनके; बहोत सह लई!"



"तो का अकेलेइ कऊं भग जाते! ई मुटिया को न तो कोनऊ फ़ादर है, न गोडफ़ादर.. कोनऊ लवर या फिरेंड मिलवे को तो सवालइ नईये, मोती बाबू!"



"तुम तो कैरईं थीं कि पड़ोसन के घरे झांक-झांक के दुबले-पतले होवे की कसरतें सीख लईं तुमने और डाइटिंग करवा रये थे मुन्ना भाइसाब तुमें!"



"दुबरो करावे को उनको मकसद दूसरो हतो!…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on August 11, 2018 at 6:30am — 5 Comments

चक्रव्यूह - लघुकथा –

चक्रव्यूह - लघुकथा –

"ए लड़की, क्या झाँक रही हो की होल से अंदर"?

सरकारी शाँती बालिका कल्याण संस्थान की व्यस्थापक सुमित्रा देवी  गोमती को चोटी से पकड़ कर लगभग घसीटते हुए अपने कार्यालय ले गयीं। गोमती पीड़ा से बेचेन होकर छटपटा रही थी। वह लगातार रोये जा रही थी।

“क्या ताक झाँक कर रही थी वहाँ”? सुमित्रा जी ने लाल आँखें दिखाते हुए पुनः वही प्रश्न दोहराया।

"मैडम, मेरी  बहिन को  उस कमरे में एक सफ़ेद कुर्ता धोती वाला नेताओं जैसा आदमी पहले तो बहला फ़ुसला कर ले जाना चाह रहा था।…

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Added by TEJ VEER SINGH on August 10, 2018 at 12:40pm — 10 Comments

मन में ही हार, जीत मन में..

मन में ही हार, जीत मन में,

मन में ही अर्थ-अनर्थ लिखा,

लेखनी बदल दे मनोभाव,

तो समझो सत्य, समर्थ लिखा !



यदि प्रेम प्रस्फुटित हो मन में,

अनुराग परस्पर संचित हो,

नि:स्वार्थ भावना हो शाश्वत,

कोई भी नहीं अपवंचित हो,

जब हो समाज में रामराज्य,

तो समझो सार्थक अर्थ लिखा !



यदि छद्म भेष, छल दम्भ द्वेष,

मानव में ही घर कर जाये,

यदि राम कृष्ण की जन्मभूमि,

पर मानवता ही मर जाये,

यदि मन मलीन हो, जड़वत हो,

तो लगा, कदाचित् व्यर्थ… Continue

Added by Ajay Kumar Sharma on August 10, 2018 at 10:27am — 12 Comments

गजल- कब यहाँ पर प्यार की बातें हुईं

कब यहाँ पर प्यार की बातें हुईं

जब हुईं तकरार की बातें हुईं

 

दो मिनट कचनार की बातें हुईं

फिर अधिकतर खार की बातें हुईं

 

बाढ़ में जब बह चुका सब, तब कहीं

नाव की, पतवार की बातें हुईं

 …

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Added by बसंत कुमार शर्मा on August 10, 2018 at 9:30am — 10 Comments

धार्मिक पशु (लघुकथा)

उसका सपना था कि दुनिया ख़त्म हो जाए और दुनिया ख़त्म गयी। अब अगर कोई बचा था तो सिर्फ़ वो और उसकी टूटी-फूटी मोहब्बत।

"अब तो इसे मुझसे बात करनी ही पड़ेगी।" खण्डहर बन चुके शहर की वीरान सड़क पर खड़े उस शख़्स ने कहा।

वह उससे बेपनाह मुहब्बत करता था। वह चाहता था कि वो उसे देखे, उसे समझे, उससे बात करे मगर वो हमेशा ही किसी न किसी और को ढूँढ लेती थी। वह इस बात से हमेशा दुःखी रहता था कि उसे छोड़कर वो बाकी सबसे बात करती है मगर उससे नहीं। उसने कहीं पढ़ा था कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है।…

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Added by Mahendra Kumar on August 10, 2018 at 8:30am — 10 Comments

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"धन्यवाद,  आज़ाद तमाम भाई ग़ज़ल को समय देने हेतु !"
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