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दिल बड़ा अपना बनाने की ज़रूरत आज है-ग़ज़ल

2122 /2122/ 2122 /212



दिल बड़ा अपना बनाने की ज़रूरत आज है

टूटते रिश्ते बचाने की ज़रुरत आज है



प्यार जितना है जताने की ज़रूरत आज है

अपनापन खुलकर दिखाने की ज़रूरत आज है



हँसते आँगन में पसर जाए न सन्नाटा कहीं

सब गिले शिकवे भुलाने की ज़रूरत आज है



दिल के रिश्तों को ज़ुबाँ से तोड़ना मुमकिन कहाँ

अपनों को अपना बनाने की ज़रूरत आज है



घर बनाना है अगर मज़बूत फिर खुद को हमे

नींव का पत्थर बनाने की ज़रूरत आज है



अपने हक़ की बात करना… Continue

Added by Gajendra shrotriya on November 5, 2017 at 7:00pm — 20 Comments

उनकी यादों की ....

उनकी यादों की ....

ये

कैसे उजाले हैं

रात

कब की गुजर चुकी

दूर तलक

आँखों की

स्याही बिखेरते

तूफ़ां से भरे

आरिज़ों पर ठहरे

ये

कैसे नाले हैं

शब् के समर

आँखों में ठहरे हैं

लबों की कफ़स में

कसमसाते

संग तुम्हारे जज़्बातों के

लिपटे

कुछ अल्फ़ाज़

हमारे हैं

हर शिकन

चादर की

करवटों की ज़ुबानी है

जुदा होकर भी

अब तलक

ज़िंदा हैं हम

ख़ुदा कसम

ये…

Continue

Added by Sushil Sarna on November 4, 2017 at 8:30pm — 10 Comments

कुण्डलिया छंद -

कैसी खिचड़ी पक रही, कैसा है ये खेल।
घी खिचड़ी किसको मिले, किसको खिचड़ी तेल।।
किसको खिचड़ी तेल, कौन खायेगा रूखी।
जनता जो है आम, रहेगी फिर भी भूखी।।
खिचड़ी की औकात, कभी भी थी क्या ऐसी।
अब यह चर्चा आम, पकेगी खिचड़ी कैसी।।
(मौलिक व अप्रकाशित)
**हरिओम श्रीवास्तव**

Added by Hariom Shrivastava on November 4, 2017 at 12:21pm — 6 Comments

(ग़ज़ल - इस्लाह के लिए) अक्सर तन्हाई में रोया करता हूँ -(गुरप्रीत सिंह)

22-22-22-22-22-2



अक्सर तन्हाई में रोया करता हूँ।

अपने आँसू ख़ुद ही पोंछा करता हूँ।



देर तलक आईना देखा करता हूँ।

जाने उसमें किसको ढूँढा करता हूँ।



दिल में दर्द उठे तो फ़िर क्या करता हूँ?

बस उसकी तस्वीर से शिक्वा करता हूँ।



क्या वो अब भी याद मुझे करता होगा?

ख़ुद से ऐसी बातें पूछा करता हूँ।



एक न इक दिन पत्थर पिघलेगा पगले!

ये कह के दिल को बहलाया करता हूँ।



शाम ढले वो तोड़ दिया करता हूँ मैं,

सुब्ह जो अक्सर ख़ुद… Continue

Added by Gurpreet Singh jammu on November 4, 2017 at 11:30am — 12 Comments

ग़ज़ल - जानवर कितने समझदार मिले

बह्र- फाइलातुन मुफाइलुन फैलुन

2122 1212 22



शेर की खाल में सियार मिले।

जानवर कितने समझदार मिले।



मुझसे जो दूर दूर रहते थे,

जब पड़ा काम बार बार मिले।



जिनकी किस्मत में सिर्फ बीड़ी है,

उनके होठो पे कब सिग़ार मिले।



हर किसी की यही तमन्ना है,

देश में सबको रोजगार मिले।



कैसी हसरत है नौजवानों की,

उनको शादी मैं मँहगी कार मिले।



उसने टरका दिया हमें हर बार,

उससे दफ्तर में जितनी बार मिले।



अपनी किस्मत… Continue

Added by Ram Awadh VIshwakarma on November 3, 2017 at 10:39pm — 14 Comments

लघुकथा-- परिचय

" जी , आपका परिचय ?"
" मुझे 'धर्मनिरपेक्षता' कहते हैं ।"
" बहुत ख़ूब ! आपके साथ ये कौन है ?"
" ये मेरी बड़ी बहन ' राष्ट्रीयता ' है ।"
" लेकिन आपने अपना परिचय नहीं दिया , आप कौन ?"
" मेरा कोई एक परिचय हो तो दूँ । फिर भी कुछ लोग मुझे वादे , नारे , भाषण-राशन , बयानबाज़ी , आशीर्वाद की भूखी 'राजनीति' कहते हैं ।"
राष्ट्रीयता तिलमिलाकर बोली-" सीधे-सीधे क्यों नहीं कहती कि मुझे 'चरित्रहीन' कहते हैं ।"
मौलिक एवं अप्रकाशित ।

Added by Mohammed Arif on November 3, 2017 at 10:10pm — 15 Comments

सार छंद -

गांधी के सपनों का भारत, कौन बनाए पूरा।

देखा था जो राष्ट्रपिता ने, सपना रहा अधूरा।।

जात-पाँत का भेद मिटेगा,अमन चैन आएगा।

श्रमजीवी घर में दो रोटी, सुबह शाम खाएगा।।1।।



सब हाथों को काम मिलेगा, हर घर में उजियारा।

कृषक और मजदूर कभी भी, फिरे न मारा-मारा।।

हस्तशिल्प लघु उद्योगों को, मूल्य मिलेगा पूरा।

चढ़े न कर्जा कभी कृषक पर, खाये भाँग धतूरा।।2।।



धर्म पंथ में बाँटा किसने, क्यों तकरार मचाई।

वितरण भी असमान हो रहा, बढ़ती जाती खाई।।

जैसे यहाँ… Continue

Added by Hariom Shrivastava on November 3, 2017 at 3:23pm — 10 Comments

जलकर करता उजियारा (गीत)

गीत - मुखड़ा -

करे तमस को दूर दीप ही, दूर भागता अँधियारा |

दीप निभाये धर्म सदा ही, जलकर करता उजियारा ||

सूर्य किरण उठ भोर झाँकती, नित्य सदा ही खिड़की से

दीन करे विश्राम डरे बिन, सदा मेघ की घुड़की से ।।

दीन-हीन के द्वार जहाँ भी, घिरने लगता अँधियारा

दीप निभाये धर्म सदा ही, जलकर करता उजियारा ।

दीप जलाएं द्वारें जाकर, छँटे दीन का अन्धेरा ।

सबको दे उजियार दीप ही,पर खुद का नही सवेरा ।।

दुख दर्दों की मार झेलता, दीन हीन सा…

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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on November 3, 2017 at 2:00pm — 9 Comments

गजल(हर दफा

हर दफा कुछ बात रह जाती है

रेत वाली भीत ढ़ह जाती है।1



था गुमां अपना परिंदों पर भी

इक चिड़ी गुलाम कह जाती है।2



जब्त सारी ख्वाहिशें हैं,कह तो

एक भी कोई निबह जाती है?3



साँझ उतरे जब गगन का रूप ले

नज्र यह प्यासी उछह जाती है।4



चाँद मुट्ठी में नहीं आता अब

चाँदनी अंतर को' मह जाती है।5



इक लहर आसार है साहिल का

क्यूँ हवा हर बार बह जाती है।6



लाख सितम बरपा' लो,सालो भी,

यह जमीं लाचार सह जाती है।7

"मौलिक व… Continue

Added by Manan Kumar singh on November 3, 2017 at 10:13am — 10 Comments

गीत... हर आहट पर यूँ लगता है जैसे हों साजन आये-बृजेश कुमार 'ब्रज'

हर आहट पर यूँ लगता है

जैसे हों साजन आये



घिर घिर आये कारे बादल

वैरी कोयल कूक उठी

अरमानों ने अंगड़ाई ली

और करेजे हूक उठी

बागों बीच पपीहा बोले

अमुआ डाली बौराये

हर आहट पर यूँ लगता है

जैसे हों साजन आये



खिड़की पर मायूसी पसरी

दरवाजों ने आह भरी

आँगन ज्यूँ शमशान हुआ है

कोने कोने डाह भरी

कब तक साँस दिलासा देगी

कब तक पायल भरमाये

हर आहट पर यूँ लगता है

जैसे हों साजन आये



फिर दिल ने आवाज लगाई

गौर करो… Continue

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on November 2, 2017 at 6:00pm — 28 Comments

तरही ग़ज़ल (पहले ये बतला दो उसने छुप कर तीर चलाए तो)- गुरप्रीत सिंह

लाख करे कोशिश सोने की फ़िर भी नींद न आए तो।

एक अधूरा ख़्वाब किसी को सारी रात जगाए तो ।



तुम तो हौले से 'ना' कह के अपने रस्ते चल दोगे,

लेकिन किसी का अम्बर टूटे और धरती फट जाए तो ।



हाँ मैं तेरे ज़ुल्म के बारे में न ज़ुबाँ से बोलूँगा,

पर क्या होगा गर महफ़िल में आँख मेरी भर आए तो ।



फ़िर बतलाना सीने ऊपर वार बचाना है कैसे,

पहले ये बतला दो उसने छुप कर तीर चलाए तो ।



वो गर नज़रों से ही छू ले तो दिल धक धक करने लगे,

जाने क्या हो गर वो सचमुच आकर… Continue

Added by Gurpreet Singh jammu on November 2, 2017 at 1:30pm — 9 Comments

मात-पिता पर स्वतंत्र दोहे :

मात-पिता पर स्वतंत्र दोहे :

मात-पिता का जो करें, सच्चे मन से मान। 

उनके जीवन का करें , ईश सदा उत्थान !!1!!

जीवन में मिलती नहीं ,मात-पिता सी छाँव। 

सुधा समझ पी लीजिये , धो कर उनके पाँव!!2!!

मात-पिता का प्यार तो,होता है अनमोल। 

उनकी ममता का कभी, नहीं लगाना मोल !!3!!

बच्चों में बसते  सदा, मात पिता के प्राण। 

बिन उनके आशीष के, कभी न हो कल्याण!!4!!

सुशील…

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Added by Sushil Sarna on November 2, 2017 at 12:30pm — 11 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
‘गेम’ (लघुकथा 'राज')

 

“तुमने ठीक से शूट किया न?”रियान ने पूछा|

“येस येस ऑफकोर्स बड्डी, पूरा शूट कर  लिया" कैमरा दिखाते हुए डोडो ने कहा |

" लेकिन एक बात बता व्हाई डिड यू चूज हिम ओनली?   इसे ही क्यों चुना तुमने?”डोडो ने आगे पूछा |

“ ही वाज़ एन इन्डियन यार.... क्या फर्क पड़ता है कोई अपना थोड़े ही था  और मेरे इस  लास्ट टास्क में   यही ऑर्डर था  कि विदेशी होना चाहिए  पर  ये शूट करना अब तो बंद कर यार अभी भी क्यूँ ऑन किया हुआ है कैमरा”  रियान बोला|  

ठांय ठांय ठांय...”सॉरी बड्डी मेरा भी…

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Added by rajesh kumari on November 2, 2017 at 11:06am — 8 Comments

गज़ल -अक्सीर दवा भी अभी’ नाकाम बहुत है

काफिया आम, रदीफ़ : बहुत है

बह्र : २२१  १२२१  १२२१  १२२ (१)

अकसीर  दवा भी अभी’ नाकाम बहुत है

बेहोश मुझे करने’ मय-ए-जाम बहुत है |

वादा किया’ देंगे सभी’ को घर, नहीं’ आशा

टूटी है’ कुटी पर मुझे’ आराम बहुत है |

प्रासाद विशाल और सुभीता सभी’ भरपूर   

इंसान हैं’ दागी सभी’, बदनाम बहुत हैं |

है राजनयिक दंड से’ ऊपर, यही’ अभिमान

शासन करे स्वीकार, कि इलज़ाम बहुत है |

साकी की’ इनायत क्या’ कहे,दिल का…

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Added by Kalipad Prasad Mandal on November 2, 2017 at 8:24am — 2 Comments

क्यूँ है तू बीमार मेरे दिल

(22 22 22 22)

क्यूँ है तू बीमार मेरे दिल

गम से यूँ मत हार मेरे दिल

 

तय है इक दिन मौत का आना

इस सच को स्वीकार मेरे दिल

 

पहले ही से दर्द बहुत हैं

और न ले अब भार मेरे दिल

 

सुनकर भाषण होश न खोना

ये सब है व्यापार मेरे दिल

 

कौन यहाँ पर कब बिक जाए

रहना तू हुशियार मेरे दिल

 

झूठ खड़ा है सीना ताने

सच तो है लाचार मेरे दिल

 

दिल के कोने में रहने दे

प्यार…

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Added by नादिर ख़ान on November 2, 2017 at 12:30am — 7 Comments

फ़रिश्ता (लघु कथा)

 
चार-पांच वर्ष का बच्चा प्रकाश मकान की दूसरी मंजिल पर छत पर खेलते हुए कटकर आई एक पतंग को लूटने के लिए बालकनी से खिड़की में झुका, तभी पाँव फिसलने से खडकी के बाहर छज्जे से लुडककर सडक पर गिरने लगा तभी सड़क पर दूर से देख एक व्यक्ति चिल्लाया “अरे ये बच्चा गिरा” |
उसी समय उस गली से ससुराल के मकान के नीचे से रोज की तरह गुजर…
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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on November 1, 2017 at 7:51pm — 4 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
कशिश

उसका बेहद अपनेपन से आना

नज़ाकत से छूना

अपनी सधी हुई उँगलियों से थामना

महसूस करना तपिश को

सुबह शाम जब चाहे...

दूर न रह पाने की

उसकी दीवानगी,

ये चाह कि उसके बिन पुकारे ही

सुन ली जाए उसकी हर उसकी धड़कन,

न न नहीं पसंद उसे अनावश्यक मिठास

न ही कृत्रिमता भरा कोई भी मीठापन

चाहे फीकी हो…

Continue

Added by Dr.Prachi Singh on November 1, 2017 at 2:00pm — 9 Comments

"अभी इक आदमी बाक़ी है जो इंकार कर देगा"

मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन



अगर वो मुफ़लिसी को रौनक़-ए-बाज़ार कर देगा

कई महरुमियों को बर सर-ए-पैकार कर देगा



सभी ने कर लिया इक़रार, लेकिन जानता है वो

अभी इक आदमी बाक़ी है जो इंकार कर देगा



किताबों में लिखा है उसको जन्नत की बशारत है

वफ़ा की राह में क़ुर्बान जो घर बार कर देगा



मिलाएगा अगर हर बात में जो हाँ में हाँ उसकी

उसे नीलाम वो इक दिन सर-ए-बाज़ार कर देगा



हमारे इश्क़ का चर्चा अभी सरगोशियों तक है

जो बाक़ी काम है वो सुब्ह का… Continue

Added by Samar kabeer on November 1, 2017 at 11:44am — 61 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
स्त्री (एक शब्द चित्र)

 

सहम कर सिहरने लगता है

धमनियों में दौड़ता रक्त,

काँपने लगती है रूह,

खिंचने लगतीं हैं सब नसें,

मुस्कुराहट कहीं दुबक जाती है,

हर इच्छा कहीं खो जाती है,…

Continue

Added by Dr.Prachi Singh on November 1, 2017 at 11:30am — 10 Comments

वक्त की बात(व्यंग्य के निमित्त)

रात अपनी जवानी पर थी,चाँद अपने शबाब की ऊँचाई पर।साँसों में असहास कायम था।झक शीतल रोशनी में रात सिहरती,शरमाती।चाँद खिलखिलाता,और खिलखिलाता। यह क्रम ज्यादा देर तक नहीं चला।अरे यह क्या!वक्त की निस्तब्धता भंग होती -सी लगी। कहीं से किसी अज्ञात पक्षी ने पंख फड़फड़ाये।शायद अकस्मात् नींद से जगा हो।कहीं नींद में ही सबेरा न हो जाये,इसलिए आकुल हो शायद। रात अपना काला दुपट्टा समेटने लगी।चाँद को यह नागवार लगा।उसकी चाहत अभी परवान चढ़ी ही कहाँ!सबेरा होने की शुरुआत इतनी जल्दी क्यूँ हो जाती है भला?बिलकुल सुख के… Continue

Added by Manan Kumar singh on November 1, 2017 at 9:58am — 4 Comments

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