धूल , मिट्टी और गारे से सनी
एक कविता लिखना चाहता हूँ
इस आपाधापी से बचना चाहता हूँ
मिट्टी की सौंधी महक वाली
गोबर से लीपे आँगन वाली
एक कविता लिखना चाहता हूँ
इस आपाधापी से बचना चाहता हूँ
टूटे खाट पर बैठी
जाड़े में धूप सेंकती
सौ बरस की बुढ़िया पर
एक कविता लिखना चाहता हूँ
इस आपाधापी से बचना चाहता हूँ
कुएँ , चौपाल , चरवाहें
खूँटे से बंधे चौपायों पर
एक कविता लिखना चाहता हूँ
इस आपाधापी से बचना चाहता हूँ
आम , इमली , नीम ,…
Added by Mohammed Arif on January 17, 2017 at 10:30pm — 7 Comments
1 2 2 2 1 2 2 2
नया नग्मा कोई गाओ
पुराने ग़म चले आओ
तुम्हें उड़ना सिखा दूँगा
मिरे पिंजड़े में आ जाओ
अकेलापन अगर अखड़े
उदासी को बुला लाओ
अरे भँवरे, अरी चिड़िया
ग़ज़ल कोई सुना जाओ
शजर बोला परिंदे से
मुहाजिर लौट भी आओ
हमारा दिल तुम्हारा घर
कभी आओ, कभी जाओ
मौलिक और अप्रकाशित
...दीपक कुमार
Added by दीपक कुमार on January 17, 2017 at 1:37pm — 9 Comments
क्या जवाब दूँ तुम्हे मैं...ये जो सवाल है तुम्हारा...
हर रोज्र हारता हूँ...यहीं तो हाल है हमारा...
ये ख्वाब हीं बुरे हैं...
या फिर बुरा सा मैं हूँ...
सौ बार सोचता हुँ...
कुछ तो भला सा कह दूँ..
हर वक़्त एक सपना...
हाफीज्र सदा है मेरे...
कुछ पास है हमारे...
कुछ पास में है तेरे...
मै वक़्त का मुसाफिर...
अब वक़्त ढुँढता…
ContinueAdded by Aditya lok on January 16, 2017 at 10:30pm — 4 Comments
2122 2122 212
रोज करता खेल शह औ मात का।
रहनुमा पक्का नहीं अब बात का।।
कब पलट कर छेद डाले थालियाँ।
कुछ भरोसा है नहीं इस जात का।।
पत्थरों के शह्र में हम आ गए।
मोल कुछ भी है नहीं जज़्बात का।।
ख्वाहिशें जब रौंदनी ही थी तुम्हे।
क्यूँ दिखाया ख़्वाब महकी रात का।।
इंकलाबी हौसलें क्यों छोड़ दें।
अंत होगा ही कभी ज़ुल्मात का।।
मेंढकों थोड़ा अदब तो सीख लो।
क्या भरोसा…
ContinueAdded by डॉ पवन मिश्र on January 16, 2017 at 9:34pm — 17 Comments
2122 2122 212
.
गुलसितां दिल का खिलाते रह गए
फासले दिल के मिटाते रह गए
गुलसितां दिल का........
.
चाहतें अपनी बड़ी नादान थी
इश्क की राहें कहा आसान थी
फिर भी हम कसमें निभाते रह गए
फासले दिल के मिटाते ......
.
हाथ में तेरे मेरा जब हाथ हो
जिंदगी कट जाएगी गर साथ हो
हम भरोसा ही जताते रह गए
फासले दिल के मिटाते ...
.
चाह थी तो छोड़ कर ही क्यूँ गया
वास्ता देकर वफ़ा का क्यूँ भला
बेवजह दामन हि थामे रह…
Added by अलका 'कृष्णांशी' on January 16, 2017 at 9:00pm — 12 Comments
Added by दिनेश कुमार on January 16, 2017 at 6:30pm — 5 Comments
2 1 2 2 1 2 1 2 2 2/1 1 2 /2 2 1/1 1 2 1
दिल ने धड़कन उधार ले ली है
कितनी मोटी पगार ले ली है
ख़ूबसूरत लगी तो हमने भी
इक उदासी उधार ले ली है
फिर हवाओं से एक ताइर ने
दुश्मनी बार-बार ले ली है
हमने सुनसान राह में यादों की
इक रिदा ख़ुशगवार ले ली है
हँस-हँसा कर ज़रा संवर जाओ
आँसुओं से निखार ले ली है
मौलिक और अप्रकाशित
...दीपक कुमार
Added by दीपक कुमार on January 16, 2017 at 3:00pm — 5 Comments
बह्र 2122 2122 2122
रंजो ग़म में दिल मेरा उलझा हुआ है।
अश्क़ से तकिया तभी भीगा हुआ है।।
तू समझ पाये भी कैसे ये रवानी।
इश्क़ का दरिया तेरा सूखा हुआ है।।
साथ रहकर साथ वो क्योंकर नही था।
हर ज़ुबां पे ये सवाल आया हुआ है।।
ग़म मुझे दो और तुम हद से ज़ियादा।
क्योंकि ये चेहरा मेरा हँसता हुआ है।।
रास्ते भटकूँगा आख़िर क्यों भला मैं।
वक़्त का पहलू मेरा देखा हुआ है।।
पी के सब कड़वाहटें इस ज़िन्दगी की।
दोस्तों लहजा मेरा…
Added by gaurav kumar pandey on January 16, 2017 at 12:30pm — 10 Comments
हर रोज कहानी तेरी...
हर रोज तेरा अफसाना...
हम गूंथ रहे ख्वाबों में...
इस दिल का ताना बाना...
बस एक वो तेरी …
ContinueAdded by Aditya lok on January 16, 2017 at 12:30pm — 3 Comments
Added by नाथ सोनांचली on January 16, 2017 at 8:38am — 10 Comments
Added by Ravi Prakash on January 16, 2017 at 8:33am — 7 Comments
मेरे मुस्कुराने का कारण हो तुम
तन्हाई में गुनगुनाने का कारण हो
तपती दोपहर में बरसते सावन में
भीड़ में और दूर तलक
वीरान उदास राहों में
कभी फूलों भरी और
कभी छितराए हुए काँटों में
बेपरवाह चलते जाने का कारण हो
जब कभी तन्हाई मुझे सताती है
दिल को झकझोरती है और
आत्मा को जलाती है
लेकिन वो भूल जाती है
उसके साथ-साथ तुम्हारी याद
हर लम्हा मुझे सहलाती है
और अहसास ये होता
तुम मेरे साथ हो…
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on January 15, 2017 at 5:30pm — 6 Comments
माटी का दिया ......
जलता रहा
इक दिया
अंधेरों में
रोशनी के लिए
तम
अधम
करता रहा प्रहार
निर्बल लौ पर
लगातार
आख़िर
हार गया वो
धीरे धीरे
कर लिया एकाकार
अंधकार से
रह गया शेष
बेजान
माटी का दिया
फिर जलने को
अन्धकार में
गैरों के लिए
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on January 15, 2017 at 4:24pm — 8 Comments
2122 2122 212
सुन हवाओं की जवाँ सरगोशियाँ
दूधिया चादर में लिपटी वादियाँ
देख भँवरे की नजर में शोखियाँ
चुपके चुपके हँस रही थीं तितलियाँ
नींद में सोये कँवल भी जग उठे
गुफ्तगू जब कर रही थी किश्तियाँ
छटपटाती कैद में थी चाँदनी
हुस्न को ढाँपे हुए थी बदलियाँ
मुट्ठियों में भींच के सिन्दूर को
मुन्तज़िर खुर्शीद की थी रश्मियाँ
फिक्र-ए-शाइर पे भी छाया नूर…
ContinueAdded by rajesh kumari on January 15, 2017 at 1:30pm — 18 Comments
"अरे! लड़कियों जल्दी से भीतर आओ बड़ी मालकिन बुला रही हैं।" हवेली की बुजुर्ग नौकरानी ने आंगन में गा-बजा रही लड़कियों को पुकारा तो सब उत्साहित हो झट से चल पड़ी।
मालकिन की तो ख़ुशी का कोई ठिकाना न था। आखिर इकलौते पोते की पसन्द को स्वीकारने के लिए उन्होंने अपने बहू-बेटे को मना जो लिया था। पर इसके लिए उन्होंने यह शर्त भी रखी थी कि विवाह उनके पारिवारिक रीति-रिवाज से होगा। भावी वधू के साथ-साथ घर की स्त्रियां भी चाव से गहने देखने लगी।
"अरे ! ये मांग टीका अब कौन पहनता है?" होने वाली बहू की छोटी…
Added by Seema Singh on January 14, 2017 at 11:00pm — 21 Comments
122 122 122 122
सियासत के जरिये हुआ है धमाका
जुबां बंद करिये हुआ है धमाका
किसे फ़िक्र है अब लहू फिर बहेगा
कि वहशत बजरिये हुआ है धमाका
कहाँ शांति रहती है सरहद पे यारों
ज़रा आँख भरिये हुआ है धमाका
है जाना जरूरी चले जाइयेगा
तनिक तो ठहरिये हुआ है धमाका
बड़ी देर से आप चश्मेकफस में
कि आहिस्ता ढरिये हुआ है धमाका
नहीं खून का खेल गर खेल सकते
तो…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 14, 2017 at 8:58pm — 13 Comments
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on January 14, 2017 at 8:26pm — 9 Comments
२२१/२१२१/१२२१/२१२
तू दूर हो तो मौत से कोई गिला नहीं।
हो पास गर तो कुछ भी यहाँ ज़ीस्त सा नहीं।
आएगी रौशनी यहाँ छोटी दरारों से,
है झौपड़ी में कोई दरीचा बड़ा नहीं।
आएगा कैसे घर पे कहो कोई नामाबर,
उनके किसी भी ख़त पे जब अपना पता नहीं।
मैं सोचता हूँ कह लूँ मुकम्मल ग़ज़ल मगर,
मेरे मिज़ाज का कोई भी क़ाफ़िया नहीं।
ढूँढोगे तुम तो चाँद से मिल जायेंगे, मगर,
"रोहित" सा इस जहाँ में कोई दूसरा नहीं।
रोहिताश्व…
Added by रोहिताश्व मिश्रा on January 14, 2017 at 5:00pm — 9 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on January 14, 2017 at 4:31pm — 8 Comments
कल हमारे समाज का सबसे श्रेष्ठ तबका ,
जो साक्षर कहलाते, आज निरक्षर हो गए ।
कूप मंडूप को ही जीवन का लक्ष्य समझा
आविष्कार कर न सके, वे गुलाम हो गए ।
समय की नजाकत को जिसने नहीं समझा,
ज्ञान का डंका बजाते, वे आज पीछे रह गए ।
इस बदलते जमाने में अपने को अलग रखा
विज्ञान के इस युग में वे अज्ञानी हो गए ।
खुद को सर्वश्रेष्ठ और दूसरों को मूर्ख समझा
वे दुनिया की इस दौड़ में सब पीछे रह गए ।
साथियों समय बदल रहा, नजाकत को समझो,
तुम…
ContinueAdded by Ram Ashery on January 14, 2017 at 12:00pm — 4 Comments
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