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January 2015 Blog Posts (202)

तीन लोगों के बीच (कविता )

पूर्ण नहीं हूँ मैं

मुझे उपमा ना बना

प्यार को प्यार रहने दे

इसे रिश्ता ना बना |

आदमी मैं भी हूँ

जज्बात समझता हूँ

हिकार ना कर उसकी

मुझे देवता ना बना |

एक फ़ासले के बाद

लौटना ठीक नहीं

मुझे मंजिल ना समझ

उसे रस्ता ना बना |

किनारे मैं हूँ खड़ा

मझदार में तू

कोई तो फैसला कर

उसे उलझा ना बना |

.

सोमेश कुमार (मौलिक एवं अमुद्रित )

Added by somesh kumar on January 10, 2015 at 3:00pm — 7 Comments

एक रचना,,,,,

एक रचना,,,,,

(कुकुभ छंद और लावणी छंद का संधिक प्रयॊग)

**********************************

चॊर लुटॆरॆ निपट उचक्कॆ, चढ़ उच्चासन पर बैठॆ !

काली करतूतॊं सॆ अपनॆ, मुँह कॊ काला कर बैठॆ !!

राम भरॊसॆ प्रजातन्त्र की, अब भारत मॆं रखवाली !

जिसकॊ माली चुना दॆश नॆं,है काट रहा वह डाली !!

चीख रही हैं आज दिशायॆं,नैतिकता का क्षरण हुआ !!

चारॊ ऒर कपट कॊलाहल, सूरज का अपहरण हुआ !!१!!

अमर शहीदॊं  कॆ अब  सपनॆं, सारॆ चकनाचूर हुयॆ ! …

Continue

Added by कवि - राज बुन्दॆली on January 10, 2015 at 2:30am — 7 Comments

ग़ज़ल -- नफ़रत नहीं तो उस से मुझे प्यार भी नहीं। ( इस्लाह हेतु )

221-2121-1221-212



नफ़रत नहीं तो उस से मुझे प्यार भी नहीं.

मेरे लिए वो शख़्श मगर अजनबी नहीं।



दुनिया में बुतपरस्त फ़क़त मैं नहीं ख़ुदा.

तेरे जहाँ में आशिक़ों की कुछ कमी नहीं।



कुछ तो मेरा नसीब ही सहरा की धूप है.

उस पर तुम्हारे प्यार की बौछार भी नहीं।



सहरानवर्द दिल है मिरा आप के बग़ैर.

जब से गए हैं आप मेरी ज़िन्दगी नहीं।



प्यालों को तोड़ कर दिल ए बेज़ार कह उठा.

जामे अजल नहीं तो कोई मयकशी नहीं।



इतना न ग़ौर से मुझे… Continue

Added by दिनेश कुमार on January 9, 2015 at 7:00pm — 20 Comments

युग्मों का गुलदस्ता …

युग्मों का गुलदस्ता …



एक  पाँव  पे  छाँव  है  तो  एक  पाँव  पे   धूप

वर्तमान  में  बदल  गया  है  हर रिश्ते का रूप



अब  मानव  के  रक्त  का  लाल  नहीं   है   रंग

मौत  को  सांसें  मिल  गयी  जीवन हारा  जंग



निश्छल प्रेम अभिव्यक्ति के बिखर गए हैं पुष्प

अब  गुलों  के  गुलशन  से  मौसम  भी  हैं रुष्ट



तिमिर  संग  प्रकाश  का  अब  हो गया  है मेल

शाश्वत  प्रेम अब बन गया है शह मात का खेल



नयन  तटों  पर  अश्रु  संग  काजल…

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Added by Sushil Sarna on January 9, 2015 at 12:30pm — 20 Comments

ग़ज़ल --१२२२--१२२२--१२२२--१२२२

१२२२-१२२२-१२२२-१२२२

अना के ज़ोर से कमज़ोर रिश्ते टूट जाते हैं

ज़रा सी बाहमी टक्कर से शीशे टूट जाते हैं

 

गले मिलकर बनाते हैं यही मज़बूत इक रस्सी

गर आपस में उलझ जायें तो धागे टूट जाते हैं

 

बहारों में शजर की डालियों पर झूमते हैं जो

ख़ज़ाँ के एक झोंके से वो पत्ते टूट जाते हैं

 

किसी दर पर झुकाना सिर नहीं मंजूर हमको भी

करें क्या पेट की खिदमत में काँधें टूट जाते हैं

 

तू चढ़कर पीठ पर आँधी की इतराता है क्यूं…

Continue

Added by khursheed khairadi on January 9, 2015 at 10:59am — 20 Comments

"अपने गावँ बुलाती हो"

जब भी उमड़ घुमड़ कर काले बादल नभ में आते हैं,

पुरवाई के झोंके आ आकर चुप-चुप दस्तक दे जातें हैं !

मेरे कानों में आ चुपके से तुम  कुछ कह जाती हो,

मुझको लगता फिर बार-बार तुम अपने गावँ बुलाती हो !!

 

कहती हो आकर देखो फिर ताल-तललिया भर आई,

आकर देखो वन उपवन में फिर से हरियाली छाई !

शुष्क लता वल्लारियाँ भी अब दुल्हन बन इठलाती हैं,

कुञ्ज बनाकर आँख मिचौली खेल –खेल मुस्कातीं हैं !!

 

बुढा बरगद फिर छैला बन पुरवाई संग झूम रहा…

Continue

Added by Hari Prakash Dubey on January 9, 2015 at 2:00am — 14 Comments


मुख्य प्रबंधक
लघुकथा : फेस वैल्यू (गणेश जी बागी)

"चंद्रा साहब कवि सम्मलेन कैसा रहा ? इस कार्यक्रम का टोटल मैनेजमेंट मेरे द्वारा ही किया गया था."

"गुप्ता जी मैं कोई साहित्यकार तो हूँ नहीं किन्तु खचाखच भरा सभागार, श्रोताओं के कहकहे और तालियों से लगा कि कार्यक्रम सफल रहा. किन्तु मुझे एक बात समझ में नहीं आयी कि वो दो लड़कियां... अरे क्या नाम था ... हां कविता ‘क्रंदन’ और शबनम ‘सिंगल’, इन्हें क्यों मंच पर बैठाया गया था, वो दोनों क्या पढ़ रहीं थीं ... यार मेरे पल्ले तो कुछ भी नहीं पड़ा."

"हा हा हा, लेकिन सीटियाँ और तालियाँ तो बजी न !…

Continue

Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on January 8, 2015 at 4:03pm — 30 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
फिर-फिर पुलकें उम्मीदों में (नवगीत) // --सौरभ

फिर-फिर पुलकें उम्मीदों में

कुम्हलाये-से दिन !



सूरज अनमन अगर पड़ा था..

जानो--

दिन कैसे तारी थे..

फिर से मौसम खुला-खुला है..

चलो, गये जो दिन भारी थे..



सजी…

Continue

Added by Saurabh Pandey on January 8, 2015 at 2:14pm — 13 Comments

जीवन, रेखा पार -- डॉo विजय शंकर

गरीब होता नहीं है ,

गरीब घोषित होता है ।

वैसे ही जैसे सूखा घोषित होता है,

जैसे बाढ़ ग्रस्त क्षेत्र घोषित होता है ।

गरीबी की एक रेखा होती है ,

होती वो गरीबी अमीरी के बीच की है ,

सम्मान वश उसे गरीबी की रेखा कहते हैं ,

आदमी जितना इस रेखा को जानता है ,

उतना विषुवत रेखा को नहीं जानता है ।

उसको लांघ गए तो वाह,

गरीब घोषित होने के चांस बन गए ।

होना न होना तो अलग ,

हो भी गए तो क्या पा जाओगे ,

नहीं होगे तो क्या है, जो खो दोगे ।

हाँ, एक… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on January 8, 2015 at 2:00pm — 10 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल - कभी ठोकरों से सँभल गये -( गिरिराज भंडारी )

कभी ठोकरों से सँभल गये

*********************

11212      11212     11212    11212

न मैं कह सका, न वो सुन सके, मिले लम्हें थे,वो निकल गये

मैं इधर मुड़ा, वो उधर मुड़े , मेरे रास्ते, ही बदल गये

 

तेरी यादों की, हुई बारिशों , ने बहा लिया, कभी नींद को

कभी याद हम ही न कर सके, तो उदासियों में भी ढल गये

 

कभी हालतों से सुलह भी की, कभी वक़्त का किया सामना

कभी रुक गये, कभी जम गये, कभी बर्फ बन के पिघल गये

 

कभी बिन पिये रही…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on January 8, 2015 at 1:12pm — 25 Comments

आज नायक भी यहाँ पर - ग़ज़ल ( लक्ष्मण धामी ' मुसाफिर' )

2122 2122 2122 212

************************

अजनवी  सी  सभ्यता के बीज बोकर रह गए

सोचकर अपना, किसी का बोझ ढोकर रह गए

***

वक्त  सोने  के  जगा करते हैं देखो यार हम

जागने  के  वक्त लेकिन रोज सोकर रह गए

***

लोरियाँ माँ की, कहानी  नानियों की, साथ ही

चाँद तारे , फूल, तितली लफ़्ज होकर रह गए

***

कसमसाकर  दिल जो खोले है पुरानी पोटली

याद कर बचपन  को यारो नैन रोकर रह गए

***

मानता हूँ , है  हसोड़ों  की जरूरत, दुख मगर

आज नायक भी…

Continue

Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 8, 2015 at 11:11am — 18 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
कविता मत लिखो (अतुकान्त) // --सौरभ

आप कविता लिखते हैं ? .. कौन बोला लिखने को..?

शब्द पीट-पीट के अलाय-बलाय करने को ?

मारे दिमाग़ खराब किये हैं ?

कुच्छ नहीं बदलता.. कुच्च्छ नहीं. ..

इतिहास पढ़े हैं ?

क्या बदला आजतक ? ...

खलसा कलेवर !…

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Added by Saurabh Pandey on January 8, 2015 at 12:00am — 16 Comments

“अब पर्वतों पर पत्थर उगा करतें हैं”

लेकर बेठे हो, सारी नदियाँ

अनंत मूल्यवान, वनस्पतियाँ

भरपूर वन्य-जीव प्रजातियाँ   

दिव्य देवताओं की, सम्पतियाँ

फिर भी करते  रहते हो तुम

हरे भरे हिमालय,  के लिए

आन्दोलन पर  आन्दोलन

दिल्ली दरबार, वातानुकूलित कमरे

निशा में, आचमन पर आचमन

हमसे पूछो, हम कैसे जीते हैं

अपनी आँखों के आंसू पीते हैं

यहाँ सूख चुकी सारी नदियाँ

नष्ट हो गयी वनस्पतियाँ

लुप्तप्राय वन्य जीव प्रजातियाँ

लुट गयी  देवों की…

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Added by Hari Prakash Dubey on January 7, 2015 at 5:00pm — 20 Comments

नवगीत : सूरज रे जलते रहना.

**सूरज रे जलते रहना.

भीषण हों कितनी पीढायें,

अंतस में दहते रहना.

सूरज रे जलते रहना.

 

घिरते घोर घटा तम बादल,

रोक नहीं तुमको पाते,

सतरंगी घोड़ों के रथ पर,

सरपट तुम बढ़ते जाते.

दिग दिगंत तक फैले नभ पर,

समय चक्र लिखते रहना.

सूरज रे जलते रहना.

 

छीन रहे हैं स्वर्ण चंदोवा,

मल्टी वाले मुस्टंडे.

सीलन ठिठुरन शीत नमी सब,

झुग्गी वाले हैं ठन्डे.

फैले बरगद के नीचे…

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Added by harivallabh sharma on January 7, 2015 at 3:30pm — 22 Comments

जीवन वृत्त

सिमट रहा है जीवन का वृत्त

परिधि कम ही होगी धीरे- धीरे

 

लोगों के टोकने पर

जाने लगा हूँ पार्क में टहलने 

मन बहलता तो नहीं है

पर देता हूँ बहलने

शरीर को मेन्टेन रख्नना है

पर गलेगी देह भी धीरे-धीरे

वृत्त की परिधि कम होगी धीरे-धीरे

 

पढ़ना चाहता हूँ

किताबे दशको तक मित्र रही है मेरी

पर अब सब धुन्धला जाता है

चश्मा भी अब काम नहीं आता है

लिखना…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 7, 2015 at 1:48pm — 22 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ठंडी थाली (लघुकथा) - मिथिलेश वामनकर

पति-पत्नी डाइनिंग टेबल पर लंच के लिए बैठे ही थे कि डोरबेल बजी 

पति ने दरवाज़ा खोला तो सामने ड्राइवर बल्लू था उसने गाड़ी की साफ़-सफाई के लिए चाबी मांगी तो उसे देखकर पति भुनभुनाये :

“आ गए लौट के गाँव से ... जाते समय पेमेंट मांगकर कह गए थे कि साहब, गाँव में बीबी बच्चों का इन्तजाम करके, दो दिन में लौट आऊंगा और दस दिन लगा दिए…”

 

क्रोधित मालिक के आगे निष्काम और निर्विकार भाव से, स्तब्ध खड़ा ड्रायवर, बस सुनता रहा-

 

“अब फिर बहाने…

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Added by मिथिलेश वामनकर on January 7, 2015 at 2:54am — 40 Comments

ग़ज़ल----उमेश कटारा

1222   1222   1222   1222



डसेगी मुझको तनहाई ,कटेगा ये सफ़र कैसे

तेरा घर है मेरे दिल में, जलाऊँगा वो घर कैसे



किसी को भूल जाना भी नहीं होता क़भी आसां

तू कहता है भुलादूँ मैं ,बता तू ही मगर कैसै



मेरी इन सुर्ख आँखों में लहू ये क्यों उतर आया

मुहब्बत में लगा दिख़ने बगाव़त का असर कैसे



चला है बेव़फा होकर बसाने घर रक़ीबों का

किसी दिन लौट भी आया ,मिलायेगा नज़र कैसे



बहाता हूँ दो आँसू मैं,मेरी तनहाई के संग संग

मज़ा-ए- इश्क़…

Continue

Added by umesh katara on January 6, 2015 at 11:00pm — 9 Comments

गीत- जिन्दगी ये मेरी गम का जंजाल है

२१२ २१२ २१२ २१२



जिन्दगी ये मेरी गम का जंजाल है!

साल दर साल दिल का यही हाल है!!

मुझको तो इससे कुछ फर्क पडना नहीं!

ये गया साल है या नया साल है!!



स्याही किस्मत के उस पेज पर जा गिरी!

जिस पे तस्वीर थी मेरे दिलदार की!

या खुदा तुझसे ये क्या खता हो गयी!

मेरी किस्मत से वो अब जुदा हो गयी!

अब मुकद्दर मेरा दोस्त कंगाल है!

जिन्दगी ये मेरी गम का जंजाल है......



नाम ही है सुना मैनें देखी नहीं!

शक्ल से तो कभी क्या बला है खुशी!

है… Continue

Added by Rahul Dangi Panchal on January 6, 2015 at 10:30pm — 11 Comments

ये किसकी हया को .... (एक रचना)

ये किसकी हया को .... (एक रचना)

ये किसकी हया को  छूकर  आज बादे सबा आयी है

दिल की हसीन  वादियों में ये किसकी सदा आयी है

होने लगी है सिहरन क्यूँ अचानक से इस जिस्म में

किसकी पलक ने अल-सुबह ही आज ली अंगड़ाई है

छोड़ा था इक ख़तूत जो  कभी हमने उस दहलीज़ पे

छू के उसकी आग़ोश  को ये सुर्ख़ हवा आज आयी है

बिन पिये ही मयख़ानों से  क्यूँ रिन्द सब जाने लगे

किसने अपने  रुख़्सार  से  चिलमन आज हटायी है

हमारी  तरह  बेताबियाँ…

Continue

Added by Sushil Sarna on January 6, 2015 at 8:28pm — 10 Comments

तू देव-रूप है मेरे लिए

तू देव रूप है मेरे लिए ---

मुझे तराशा  है तेरे प्यार ने

मुझपे ऐतबार कर

तू देव रूप है मेरे लिए,मेरी

पूजा स्वीकर कर

मैं तो दलदल था,कमल पुष्प

खिलाए तुमने मुझमें

मृत था मेरा ये उर

एहसास पुनः जगाए तमने मुझमें

उठ,खड़ी हो,मजबूत बन

अपनी कोशिश ना निराधार कर

तू देव रूप है मेरे लिए -----------

जब सारे ज़माने ने

मुझ से मुँह फेर लिया

जब सघन तिमिर ने

मुझ को घेर लिया

तुम आई मेरी ज़िन्दगी…

Continue

Added by somesh kumar on January 6, 2015 at 11:00am — 8 Comments

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