पूर्ण नहीं हूँ मैं
मुझे उपमा ना बना
प्यार को प्यार रहने दे
इसे रिश्ता ना बना |
आदमी मैं भी हूँ
जज्बात समझता हूँ
हिकार ना कर उसकी
मुझे देवता ना बना |
एक फ़ासले के बाद
लौटना ठीक नहीं
मुझे मंजिल ना समझ
उसे रस्ता ना बना |
किनारे मैं हूँ खड़ा
मझदार में तू
कोई तो फैसला कर
उसे उलझा ना बना |
.
सोमेश कुमार (मौलिक एवं अमुद्रित )
Added by somesh kumar on January 10, 2015 at 3:00pm — 7 Comments
एक रचना,,,,,
(कुकुभ छंद और लावणी छंद का संधिक प्रयॊग)
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चॊर लुटॆरॆ निपट उचक्कॆ, चढ़ उच्चासन पर बैठॆ !
काली करतूतॊं सॆ अपनॆ, मुँह कॊ काला कर बैठॆ !!
राम भरॊसॆ प्रजातन्त्र की, अब भारत मॆं रखवाली !
जिसकॊ माली चुना दॆश नॆं,है काट रहा वह डाली !!
चीख रही हैं आज दिशायॆं,नैतिकता का क्षरण हुआ !!
चारॊ ऒर कपट कॊलाहल, सूरज का अपहरण हुआ !!१!!
अमर शहीदॊं कॆ अब सपनॆं, सारॆ चकनाचूर हुयॆ ! …
Added by कवि - राज बुन्दॆली on January 10, 2015 at 2:30am — 7 Comments
Added by दिनेश कुमार on January 9, 2015 at 7:00pm — 20 Comments
युग्मों का गुलदस्ता …
एक पाँव पे छाँव है तो एक पाँव पे धूप
वर्तमान में बदल गया है हर रिश्ते का रूप
अब मानव के रक्त का लाल नहीं है रंग
मौत को सांसें मिल गयी जीवन हारा जंग
निश्छल प्रेम अभिव्यक्ति के बिखर गए हैं पुष्प
अब गुलों के गुलशन से मौसम भी हैं रुष्ट
तिमिर संग प्रकाश का अब हो गया है मेल
शाश्वत प्रेम अब बन गया है शह मात का खेल
नयन तटों पर अश्रु संग काजल…
Added by Sushil Sarna on January 9, 2015 at 12:30pm — 20 Comments
१२२२-१२२२-१२२२-१२२२
अना के ज़ोर से कमज़ोर रिश्ते टूट जाते हैं
ज़रा सी बाहमी टक्कर से शीशे टूट जाते हैं
गले मिलकर बनाते हैं यही मज़बूत इक रस्सी
गर आपस में उलझ जायें तो धागे टूट जाते हैं
बहारों में शजर की डालियों पर झूमते हैं जो
ख़ज़ाँ के एक झोंके से वो पत्ते टूट जाते हैं
किसी दर पर झुकाना सिर नहीं मंजूर हमको भी
करें क्या पेट की खिदमत में काँधें टूट जाते हैं
तू चढ़कर पीठ पर आँधी की इतराता है क्यूं…
ContinueAdded by khursheed khairadi on January 9, 2015 at 10:59am — 20 Comments
जब भी उमड़ घुमड़ कर काले बादल नभ में आते हैं,
पुरवाई के झोंके आ आकर चुप-चुप दस्तक दे जातें हैं !
मेरे कानों में आ चुपके से तुम कुछ कह जाती हो,
मुझको लगता फिर बार-बार तुम अपने गावँ बुलाती हो !!
कहती हो आकर देखो फिर ताल-तललिया भर आई,
आकर देखो वन उपवन में फिर से हरियाली छाई !
शुष्क लता वल्लारियाँ भी अब दुल्हन बन इठलाती हैं,
कुञ्ज बनाकर आँख मिचौली खेल –खेल मुस्कातीं हैं !!
बुढा बरगद फिर छैला बन पुरवाई संग झूम रहा…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on January 9, 2015 at 2:00am — 14 Comments
"चंद्रा साहब कवि सम्मलेन कैसा रहा ? इस कार्यक्रम का टोटल मैनेजमेंट मेरे द्वारा ही किया गया था."
"गुप्ता जी मैं कोई साहित्यकार तो हूँ नहीं किन्तु खचाखच भरा सभागार, श्रोताओं के कहकहे और तालियों से लगा कि कार्यक्रम सफल रहा. किन्तु मुझे एक बात समझ में नहीं आयी कि वो दो लड़कियां... अरे क्या नाम था ... हां कविता ‘क्रंदन’ और शबनम ‘सिंगल’, इन्हें क्यों मंच पर बैठाया गया था, वो दोनों क्या पढ़ रहीं थीं ... यार मेरे पल्ले तो कुछ भी नहीं पड़ा."
"हा हा हा, लेकिन सीटियाँ और तालियाँ तो बजी न !…
ContinueAdded by Er. Ganesh Jee "Bagi" on January 8, 2015 at 4:03pm — 30 Comments
फिर-फिर पुलकें उम्मीदों में
कुम्हलाये-से दिन !
सूरज अनमन अगर पड़ा था..
जानो--
दिन कैसे तारी थे..
फिर से मौसम खुला-खुला है..
चलो, गये जो दिन भारी थे..
सजी…
Added by Saurabh Pandey on January 8, 2015 at 2:14pm — 13 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on January 8, 2015 at 2:00pm — 10 Comments
कभी ठोकरों से सँभल गये
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11212 11212 11212 11212
न मैं कह सका, न वो सुन सके, मिले लम्हें थे,वो निकल गये
मैं इधर मुड़ा, वो उधर मुड़े , मेरे रास्ते, ही बदल गये
तेरी यादों की, हुई बारिशों , ने बहा लिया, कभी नींद को
कभी याद हम ही न कर सके, तो उदासियों में भी ढल गये
कभी हालतों से सुलह भी की, कभी वक़्त का किया सामना
कभी रुक गये, कभी जम गये, कभी बर्फ बन के पिघल गये
कभी बिन पिये रही…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on January 8, 2015 at 1:12pm — 25 Comments
2122 2122 2122 212
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अजनवी सी सभ्यता के बीज बोकर रह गए
सोचकर अपना, किसी का बोझ ढोकर रह गए
***
वक्त सोने के जगा करते हैं देखो यार हम
जागने के वक्त लेकिन रोज सोकर रह गए
***
लोरियाँ माँ की, कहानी नानियों की, साथ ही
चाँद तारे , फूल, तितली लफ़्ज होकर रह गए
***
कसमसाकर दिल जो खोले है पुरानी पोटली
याद कर बचपन को यारो नैन रोकर रह गए
***
मानता हूँ , है हसोड़ों की जरूरत, दुख मगर
आज नायक भी…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 8, 2015 at 11:11am — 18 Comments
आप कविता लिखते हैं ? .. कौन बोला लिखने को..?
शब्द पीट-पीट के अलाय-बलाय करने को ?
मारे दिमाग़ खराब किये हैं ?
कुच्छ नहीं बदलता.. कुच्च्छ नहीं. ..
इतिहास पढ़े हैं ?
क्या बदला आजतक ? ...
खलसा कलेवर !…
Added by Saurabh Pandey on January 8, 2015 at 12:00am — 16 Comments
लेकर बेठे हो, सारी नदियाँ
अनंत मूल्यवान, वनस्पतियाँ
भरपूर वन्य-जीव प्रजातियाँ
दिव्य देवताओं की, सम्पतियाँ
फिर भी करते रहते हो तुम
हरे भरे हिमालय, के लिए
आन्दोलन पर आन्दोलन
दिल्ली दरबार, वातानुकूलित कमरे
निशा में, आचमन पर आचमन
हमसे पूछो, हम कैसे जीते हैं
अपनी आँखों के आंसू पीते हैं
यहाँ सूख चुकी सारी नदियाँ
नष्ट हो गयी वनस्पतियाँ
लुप्तप्राय वन्य जीव प्रजातियाँ
लुट गयी देवों की…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on January 7, 2015 at 5:00pm — 20 Comments
**सूरज रे जलते रहना.
भीषण हों कितनी पीढायें,
अंतस में दहते रहना.
सूरज रे जलते रहना.
घिरते घोर घटा तम बादल,
रोक नहीं तुमको पाते,
सतरंगी घोड़ों के रथ पर,
सरपट तुम बढ़ते जाते.
दिग दिगंत तक फैले नभ पर,
समय चक्र लिखते रहना.
सूरज रे जलते रहना.
छीन रहे हैं स्वर्ण चंदोवा,
मल्टी वाले मुस्टंडे.
सीलन ठिठुरन शीत नमी सब,
झुग्गी वाले हैं ठन्डे.
फैले बरगद के नीचे…
ContinueAdded by harivallabh sharma on January 7, 2015 at 3:30pm — 22 Comments
सिमट रहा है जीवन का वृत्त
परिधि कम ही होगी धीरे- धीरे
लोगों के टोकने पर
जाने लगा हूँ पार्क में टहलने
मन बहलता तो नहीं है
पर देता हूँ बहलने
शरीर को मेन्टेन रख्नना है
पर गलेगी देह भी धीरे-धीरे
वृत्त की परिधि कम होगी धीरे-धीरे
पढ़ना चाहता हूँ
किताबे दशको तक मित्र रही है मेरी
पर अब सब धुन्धला जाता है
चश्मा भी अब काम नहीं आता है
लिखना…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 7, 2015 at 1:48pm — 22 Comments
पति-पत्नी डाइनिंग टेबल पर लंच के लिए बैठे ही थे कि डोरबेल बजी।
पति ने दरवाज़ा खोला तो सामने ड्राइवर बल्लू था। उसने गाड़ी की साफ़-सफाई के लिए चाबी मांगी तो उसे देखकर पति भुनभुनाये :
“आ गए लौट के गाँव से ... जाते समय पेमेंट मांगकर कह गए थे कि साहब, गाँव में बीबी बच्चों का इन्तजाम करके, दो दिन में लौट आऊंगा और दस दिन लगा दिए…”
क्रोधित मालिक के आगे निष्काम और निर्विकार भाव से, स्तब्ध खड़ा ड्रायवर, बस सुनता रहा-
“अब फिर बहाने…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on January 7, 2015 at 2:54am — 40 Comments
1222 1222 1222 1222
डसेगी मुझको तनहाई ,कटेगा ये सफ़र कैसे
तेरा घर है मेरे दिल में, जलाऊँगा वो घर कैसे
किसी को भूल जाना भी नहीं होता क़भी आसां
तू कहता है भुलादूँ मैं ,बता तू ही मगर कैसै
मेरी इन सुर्ख आँखों में लहू ये क्यों उतर आया
मुहब्बत में लगा दिख़ने बगाव़त का असर कैसे
चला है बेव़फा होकर बसाने घर रक़ीबों का
किसी दिन लौट भी आया ,मिलायेगा नज़र कैसे
बहाता हूँ दो आँसू मैं,मेरी तनहाई के संग संग
मज़ा-ए- इश्क़…
Added by umesh katara on January 6, 2015 at 11:00pm — 9 Comments
Added by Rahul Dangi Panchal on January 6, 2015 at 10:30pm — 11 Comments
ये किसकी हया को .... (एक रचना)
ये किसकी हया को छूकर आज बादे सबा आयी है
दिल की हसीन वादियों में ये किसकी सदा आयी है
होने लगी है सिहरन क्यूँ अचानक से इस जिस्म में
किसकी पलक ने अल-सुबह ही आज ली अंगड़ाई है
छोड़ा था इक ख़तूत जो कभी हमने उस दहलीज़ पे
छू के उसकी आग़ोश को ये सुर्ख़ हवा आज आयी है
बिन पिये ही मयख़ानों से क्यूँ रिन्द सब जाने लगे
किसने अपने रुख़्सार से चिलमन आज हटायी है
हमारी तरह बेताबियाँ…
ContinueAdded by Sushil Sarna on January 6, 2015 at 8:28pm — 10 Comments
तू देव रूप है मेरे लिए ---
मुझे तराशा है तेरे प्यार ने
मुझपे ऐतबार कर
तू देव रूप है मेरे लिए,मेरी
पूजा स्वीकर कर
मैं तो दलदल था,कमल पुष्प
खिलाए तुमने मुझमें
मृत था मेरा ये उर
एहसास पुनः जगाए तमने मुझमें
उठ,खड़ी हो,मजबूत बन
अपनी कोशिश ना निराधार कर
तू देव रूप है मेरे लिए -----------
जब सारे ज़माने ने
मुझ से मुँह फेर लिया
जब सघन तिमिर ने
मुझ को घेर लिया
तुम आई मेरी ज़िन्दगी…
ContinueAdded by somesh kumar on January 6, 2015 at 11:00am — 8 Comments
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