Added by जयनित कुमार मेहता on March 17, 2017 at 4:51pm — 5 Comments
221 2121 1221 212
पत्ता था, सब्ज़, टूटके खिड़की में आ गया
हस्ती शजर की बाकी है मुझको बता गया
माना हवाएँ तेज़ हैं मेरे खिलाफ़ भी
लेकिन जुनून लड़ने का इस दिल पे छा गया
खोने को पास कुछ भी नहीं था हयात में
किसकी तलाफ़ी हो अभी तक मेरा क्या गया
शायद ये दुनिया मेरे लिए थी नहीं कभी
फिर शिकवा क्यों करुँ कि खुदा फ़ैज़ उठा गया
ख़्वाबों को ज़िन्दा करके भी क्या होता, दोस्तो!
मेरा जो वक्त था…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on March 17, 2017 at 2:30pm — 9 Comments
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on March 16, 2017 at 10:11pm — 12 Comments
Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on March 16, 2017 at 4:14pm — 7 Comments
Added by SudhenduOjha on March 16, 2017 at 2:35pm — No Comments
दीवार के कान - लघुकथा –
शंकर सिंह एक अनुशासन प्रिय और जिम्मेवार अधिकारी थे। कारखाने में और कोलोनी में उनकी अच्छी छवि थी। लेकिन कल कारखाने में उनके साथ जो घटना हुई थी, उसने उनको विचलित कर दिया था। एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी से मामूली वार्तालाप ने एक उग्र झड़प का रूप ले लिया। यूनियन लीडर्स के बीच में आने से मामला कुछ ज्यादा ही तूल पकड़ गया। मि० सिंह से हाथापाई तक हो गयी। मैनेजमेंट ने तुरंत मि० सिंह को घर भेज दिया था। उनके आने के बाद प्रेस वाले, मीडिया वाले भी कारखाने तक आगये…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on March 16, 2017 at 2:34pm — 4 Comments
चला गया ...
हवा
शयन कक्ष के परदों से
खेलती रही
टेबल पर पड़ी मैग्ज़ीन के पन्ने
वायु वेग से
बार बार
फड़फड़ाते रहे
तन्हा से पड़े
काफी के मग
खाली होते हुए भी
अपने में
बहुत कुछ समेटे थे
समेटे थे
अपने अंदर
अकेलेपन से बातें करते
वो क्षण
जो काफी के मग को
अधरों से लगाए
कनखियों से निहारते हुए
आँखों ने आँखों में
बिताये थे
समेटे थे…
ContinueAdded by Sushil Sarna on March 15, 2017 at 10:00pm — 10 Comments
ग़ज़ल
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(फऊलन -फऊलन -फऊलन -फअल )
क़ियामत की वो चाल चलते रहे |
निगाहें मिलाकर बदलते रहे |
दिखा कर गया इक झलक क्या कोई
मुसलसल ही हम आँख मलते रहे |
यही तो है गम प्यार के नाम पर
हमें ज़िंदगी भर वो छलते रहे |
मिली हार उलफत के आगे उन्हें
जो ज़हरे तअस्सुब उगलते रहे |
तअस्सुब की आँधी है हैरां न यूँ
वफ़ा के दिए सारे जलते रहे |
असर होगा उनपर यही सोच कर
निगाहों से आँसू…
Added by Tasdiq Ahmed Khan on March 15, 2017 at 8:51pm — 16 Comments
शंका और विश्वास के दोराहे पर
मन में पीली धुंधली उदास गहरी
बेमाप वेदना यथार्थों की लिए
स्वीकार कर लेता हूँ सभी झूठ
कि जाने कब कहाँ किस झूठ में भी
किसी की विवशता दिख जाए, या
मिल जाए उसकी सच्चाई का संकेत
कि जानता हूँ मैं, यह ठंडी पुरवाई
यह फैली हुई धूप नदी-झील-तालाब
सब कहते हैं ...
वह कभी झूठी नहीं थी
ऊँची उठती है कोई उभरती कराह
स्वपनों के अनदेखे विस्तार में
विद्रोह करते हैं मेरे…
ContinueAdded by vijay nikore on March 15, 2017 at 7:32pm — 12 Comments
Added by Rahila on March 15, 2017 at 11:28am — 4 Comments
२१२२/११२२/११२२/२२
कब चुना हमने मुसलमान या हिन्दू होना
न तो माँ बाप चुनें और न घर ही को चुना
हम ने ये भी न चुना था कि बशर हो जायें.
हम को इंसान बना कर था यहाँ भेजा गया,
कैसे मज़हब के कई ख़ानों में तक्सीम हुए?
क्यूँ सिखाये गए हम को ये सबक नफरत के?
.
हम ने दहशत से परे जा के बुना इक सपना
अपनी दुनिया न सही, काश हो आँगन अपना
ऐसा आँगन कि जहाँ साथ पलें राम-ओ-रहीम.
.
जुर्म ये था कि जलाया था अँधेरों में चराग़
हम ने नफ़रत की हवाओं के…
Added by Nilesh Shevgaonkar on March 14, 2017 at 9:30pm — 8 Comments
दूर से ढोल मजीरे की ताल पर हुरियारों की आवाज आ रही थी – ‘अवध माँ राना भयो मरदाना कि हाँ--- हाँ -----राना भयो मरदाना ‘
हाथ में पिचकारी लिए एक युवक ने किसी वृद्ध से पूंछा – ये राना कौन है ? कौनो बड़े हुरियार थे का जो इनके नाम की होरी गाई जा रही है.’
बुजुर्ग ने आश्चर्य से युवक की और देखा और कहा –‘तुम का पढ़े हो, तुम्हे अपने बैसवारे का इतिहास भी नहीं मालूम. अरे राना यहीं शंकरपुर के ताल्लुकेदार थे, जिन्होंने सन सत्तावन की क्रान्ति में अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई लड़ी और आखिर तक…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 14, 2017 at 9:12pm — No Comments
छन्न पकैया छन्न पकैया ,बोले मीठी बोली ।
गाँवों , बाग़ो़ं गलियों छाई , टेसू की रंगोली ।।
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छन्न पकैया छन्न पकैया , देखो, खिलता पलाश ।
पागल मतवाले भँवरों को , कलियों की है तलाश ।।
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छन्न पकैया छन्न पकैया , टेसू मन को भाया ।
मतवाला, दीवाना, पागल, भँवरा भी इठलाया ।।
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छन्न पकैया छन्न पकैया , उड़ता अबीर-गुलाल ।
यारों, संगी-साथी मिलकर ,करते मस्ती धमाल ।।
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छन्न पकैया छन्न पकैया , पलाश के हैं झूमर ।
मौसम, यौवन, कलियाँ…
Added by Mohammed Arif on March 14, 2017 at 7:00pm — 7 Comments
"साहेब, कोई पुराना चद्दर हो तो दे दीजिये । बहुत ठंढा गिरने लगा है । कोई पुराना चद्दर दे दीजिये ।"
यूं तो वर्किंग डे पर रात के किसी भी आयोजनों में जाने का प्रोग्राम कम ही बनता है । लेकिन फिर भी कभी-कभी कुछ ऐसे मौके भी आ ही जाते हैं जब इस तरह के किसी आयोजन में जाना पड़ जाता है । ऐसे ही एक आयोजन को अटेण्ड कर वापस आते-आते रात के साढ़े ग्यारह बज गए । गोल्फ कोर्स मेट्रो स्टेशन से घर तक जाने के लिए आटो…
ContinueAdded by Neelam Upadhyaya on March 14, 2017 at 4:23pm — 4 Comments
नई शुरुआत-----
जो हो चुका सो हो चुका,
तुम इक नई शुरुआत करो.
हर चीज बदलती है,
अपनी आखिरी साँस के साथ,
तुम फिर से कोई जुदा बात करो.
उजड़ गया गर शहरे-आलम सारा,
तुम फिर नया अहसास…
ContinueAdded by Naval Kishor Soni on March 14, 2017 at 12:15pm — 3 Comments
सरसी छंद
वृन्दावन की ले पिचकारी,बरसाने का रंग|
अंग अंग धो डालो पीकर ,महादेव की भंग|
राधा जैसी पावनता ले ,कान्हा जैसा प्यार|
बरसाओ पावन रंगों की ,रिमझिम मस्त फुहार|
चन्दा से लेकर कुछ चाँदी ,औ सूरज से स्वर्ण|
केसर की क्यारी से चुनकर ,केसरिया नव पर्ण|
सच्चाई मन की अच्छाई ,साथ मिलाकर घोट|
पावन रंग बनाना सच्चा ,नहीं मिलाना खोट|
द्वेष क्लेश से मैले मुखड़े ,जग में मिलें अनेक|
भूल हरा केसरिया आओ ,हों जाएँ सब…
ContinueAdded by rajesh kumari on March 13, 2017 at 7:29pm — 14 Comments
प्रतिशोध - लघुकथा –
"मोहन बाबू, पूरा मोहल्ला बाहर होली खेल रहा है। आप सारे परिवार के साथ घर में ही हैं"।
" सुखराम जी, हम लोग होली नहीं खेलते"।
"कोई खास कारण"?
"हाँ, कुछ ऐसा ही समझ लीजिये"।
"अगर बुरा ना लगे तो क्या मैं जान सकता हूँ"?
"पूरा मोहल्ला जानता है, आप भी जान जाओगे, अभी नये नये आये हो"।
"क्या आप को बताने में ऐतराज़ है"?
"ऐसी तो कोई बात नहीं है, आइये"।
दोनों पड़ोसी बैठ गये।
"सुखराम जी मेरी तीन बेटियाँ थीं। सबसे…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on March 13, 2017 at 6:30pm — 12 Comments
Added by Dr.Prachi Singh on March 13, 2017 at 2:53am — 3 Comments
पानी वाला बादल हो ,
नदियों में फिर हलचल हो ।
गाँवों की पनघट पे अब ,
फिर से बजती पायल हो ।
झूठे वादों से ऊपर ,
कोई तो ऐसा दल हो ।
जिसमें राहत हो सबको ,
आने वाला वो कल हो ।
सारे दुख सह जाऊँ मैं ,
सर पे माँ का आँचल हो ।
साफ़ हवा पानी पायें ,
पेड़ों वाला जंगल हो ।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Mohammed Arif on March 12, 2017 at 1:30pm — 3 Comments
Added by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on March 12, 2017 at 1:22pm — 3 Comments
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