Added by Kumar Gourav on April 25, 2018 at 12:13am — 4 Comments
तन की बात - लघुकथा –
नंदू स्कूल का बैग पटक कर चिल्लाया,"माँ, मैं खेलने जा रहा हूँ। आज स्कूल की छुट्टी होगयी"।
"अरे रुक तो सही, क्या हुआ। अभी गया था और तुरंत वापस आगया। बता तो,क्यों हो गयी छुट्टी"? ममता रसोईघर से हाथ पौंछते हुई निकली|
"माँ, स्कूल की एक लड़की ने स्कूल में आत्म हत्या कर ली"।
इतना बोलकर नंदू खेलने दौड़ गया।
ममता यह खबर सुनकर बेचैन हो गयी।वह भी तुरंत स्कूल पहुंच गयी ।भीड़ लगी हुई थी।पुलिस वाले भी आ चुके थे।लोगों में कानाफ़ूसी चल रही थी।
कोई…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on April 24, 2018 at 6:03pm — 14 Comments
"मुझे हमेशा लगता है कि कोई मुझे जान से मारने की कोशिश कर रहा है!"
"मुझे हमेशा लगता है कि कोई मुझे जड़ से ख़त्म करने की कोशिशें कर रहा है!"
"मुझे हमेशा लगता है कि कोई मुझे अपनी नौकरी से हटाने के की कोशिश कर रहा है या फिर मेरा तबादला कराने की कोशिशें कर रहा है!"
"हां, मुझे तो हमेशा यह भी लगता है कि मेरे अपनों को सता-सता कर या मुझे ब्लैकमेल कर मुझे दिग्भ्रमित करने की कोशिशें की जा रही हैं!"
दुनिया के मंच पर भिन्न-भिन्न किरदारों की अदायगी देख कर 'ईमानदारी' ने आंसू…
ContinueAdded by Sheikh Shahzad Usmani on April 24, 2018 at 2:30am — 12 Comments
शांत चेहरे पर होती अपनी एक कहानी,
पर दिल के अंदर होते जज्बातों के तूफान,
अंदर ही अंदर बुझे सपनों के पंख उडने को फडफडाते,
पनीली ऑंखों से अनगिनत सपने झांकते
जीवन का हर लम्हा तितर वितर क्यों होता,
जीवन का अर्थ कुछ समझ नहीं आता,
लेकिन इस भाव हीन दुनियां में सोचती,
खुद को साबित करने को उतावली,
पूछती अपने आप से,
सपने तो कई हैं, कौन सा करू पूरा,
आज बहुत से सवाल दिमाग को झकझोरते,
खुद से सवाल कर जवाब…
ContinueAdded by babitagupta on April 23, 2018 at 3:30pm — 5 Comments
चाँद बन जाऊंगी ..
कितनी नादान हूँ मैं
निश्चिंत हो गई
अपनी सारी
तरल व्यथा
झील में तैरते
चाँद को सौंपकर
हर लम्हा जो
एक शिला लेख सा
मेरे अवचेतन में
अंगार सा जीवित था
निश्चिंत हो गई
उसे
झील में तैरते
चाँद को सौंपकर
उम्र कैसे फिसल गई
अपने तकिये पर
तुम्हारी गंध को
सहेजते -सहेजते
कुछ पता न चला
निश्चिंत हो गई
अपनी चेतना के जंगल में व्याप्त …
Added by Sushil Sarna on April 23, 2018 at 11:30am — 10 Comments
लोकशाही क़माल है साहिब
लोक में ही बवाल है साहिब
काम इनके कभी नहीं रुकते
कौन इनका दलाल है साहिब
फिर से मिलने लगे हैं झुक झुक के
खेल करने का साल है साहिब
पूछने पर हमेशा कहते हैं
नेक सा ही ख़्याल है साहिब
अनगिनत हैं सवाल आंखों में
दिल में थोड़ा मलाल है साहिब
- -नंद कुमार सनमुखानी
"मौलिक व अप्रकाशित"
Added by Nand Kumar Sanmukhani on April 23, 2018 at 10:00am — 7 Comments
सोने की बरसात करेगा
सूरज जब इफ़रात करेगा
बादल पानी बरसाएंगे
राजा जब ख़ैरात करेगा
जो पहले भी दोस्त नहीं था
वो तो फिर से घात करेगा
कुर्सी की चाहत में फिर वो
गड़बड़ कुछ हालात करेगा
जो संवेदनशील नहीं वो
फिर घायल जज़्बात करेगा
जो थोड़ा दीवाना है वो
अक्सर हक़ की बात करेगा
नंद कुमार सनमुखानी.
-
"मौलिक और अप्रकाशित"
Added by Nand Kumar Sanmukhani on April 23, 2018 at 10:00am — 21 Comments
ख़ामोश रहें तो भी मुश्किल
कुछ बात कहें तो भी मुश्किल..
जो राज़ छुपे हैं सीने में
खुल जाएं तहें, तो भी मुश्किल..
वादा था किया ख़ुश रहने का
आंसूं जो बहें तो भी मुश्किल..
वो दर्द मुसलसल दें चाहे
हम दर्द सहें तो भी मुश्किल ..
विपरीत बहें हम धारों के
जो साथ बहें तो भी मुश्किल ..
- नंद कुमार सनमुखानी
"मौलिक और अप्रकाशित"
Added by Nand Kumar Sanmukhani on April 23, 2018 at 10:00am — 11 Comments
प्रसंग था 'दशा और 'बोध ' किसे कहते हैं ? जिज्ञासु और दार्शनिक के बीच इस विषय को लेकर काफी वाद-विवाद चला । जिज्ञासु दार्शनिक के तर्कों से संतुष्ट नहीं हो रहा था । अंत में दार्शनिक ने जो सांकेतिक जवाब दिया उसे सुनकर जिज्ञासु अभिभूत हो गया । दार्शनिक ने उंगली से चींटियों के जाते हुए झुण्ड की ओर इशारा कर दिया ।
मौलिक एवं अप्रकाशित ।
Added by Mohammed Arif on April 23, 2018 at 9:00am — 16 Comments
222222 2
नाम बड़ा है उस घर का
पहरा जिस पर है डर का
प्यास बुझाना प्यासे की
कब है काम समंदर का
बिना बात बजते बर्तन
दृश्य यही अब घर-घर का
बोल कहे और जय चाहे
क्या है काम सुख़नवर का?
महल दुमहले जिसके हैं
वही भिखारी दर-दर का।
'राणा' सच कहते रहना
रंग न छूूटे तेवर का।
मौलिक/अप्रकाशित
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on April 23, 2018 at 6:30am — 12 Comments
ग़ज़ल (कैसी ये मज़बूरी है)
22 22 22 22 22 22 22 2
गदहे को भी बाप बनाऊँ कैसी ये मज़बूरी है,
कुत्ते सा बन पूँछ हिलाऊँ कैसी ये मज़बूरी है।
एक गाम जो रखें न सीधा चलना मुझे सिखायें वे,
उनकी सुन सुन कदम बढ़ाऊँ कैसी ये मज़बूरी है।
झूठ कपट की नई बस्तियाँ चमक दमक से भरी हुईं,
उन बस्ती में घर को बसाऊँ कैसी ये मज़बूरी है।
सबसे पहले ऑफिस आऊँ और अंत में घर जाऊँ,
मगर बॉस को रिझा न पाऊँ कैसी ये मज़बूरी है।
ऊँचे घर…
ContinueAdded by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on April 22, 2018 at 3:30pm — 13 Comments
2122 2122 212
ओस की बूंदें भी' प्यासी हैं अभी
परकटी चाहें अधूरी हैं अभी।1
नश्तरों का हाल अब मत पूछना
बुत बनी रातें यूँ तारी हैं अभी।2
क्या करोगे जानकर सब सिलसिला?
सच मरा है, बातें' टेढ़ी हैं अभी।3
औरतों के नाम लेके आजकल
नख चले,घातें यूँ' माती हैं अभी।4
लाइलाजों का करो कुछ तो जतन
इल्म वाली बाँहें' बाकी हैं अभी।5
नर्म बिस्तर के सिवा झपकी नहीं?
नाखुदाओ! लपटें' खासी हैं अभी।6
"मौलिक व अप्र का शि त"
Added by Manan Kumar singh on April 22, 2018 at 8:49am — 9 Comments
Added by Kumar Gourav on April 21, 2018 at 9:15pm — 9 Comments
22 22 22 22
अपना घाव छुपा के रखना
मन को भी समझा के रखना।1
ऊपर ऊपर जैसा भी हो
अंदर आग जला के रखना।2
और उजाला करना होगा
थोड़ा तेल बचा के रखना।3
तीर चलेंगे जाने कितने
देखो ढ़ाल बढ़ा के रखना।4
कौन सुनेगा बातें ढ़ब की
बाण-धनुष चमका के रखना।5
मंजिल कोई दूर नहीं है
ख्वाहिश को उमगा के रखना।6
रात अँधेरी,चंदा संगी,
रुनझुन बीन बजा के…
Added by Manan Kumar singh on April 21, 2018 at 7:30pm — 10 Comments
122 122 122 122
युगों तक जगत में वही जी सका है
हृदय अपना जिसने समंदर किया है
हक़ीक़त से नज़रें हटाने से यारो
कभी झूठ भी क्या कहीं सच हुआ है?
कहाँ रात के मानकों से हो चिपके
उजाले का वाहक तो सूरज रहा है
गरल एकता के लिए पीना होगा
सिखाती सभी को परम शिव कथा है
'सुनो आइनो तुम भी पढ़ लो सुकूँ से
कि 'पंकज' ने सब सामने रख दिया है' (आदरणीय बाऊजी समर कबीर द्वारा…
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on April 21, 2018 at 3:00pm — 15 Comments
"लोकतंत्र ख़तरे में है!
कहां
इस राष्ट्र में
या
उस मुल्क में!
या
उन सभी देशों में
जहां वह किसी तरह है!
या जो कि
कठपुतली बन गया है
तथाकथित विकसितों के मायाजाल में,
तकनीकी, वैज्ञानिकी विकास में! या
ब्लैकमेलिंग- व्यवसाय में!
धरातल, स्तंभों से दूर हो कर
खो सा गया है
कहीं आसमान में!
दिवास्वप्नों की आंधियों में,
अजीबोग़रीब अनुसंधानों में!
"इंसानियत ख़तरे में है!
कहां
इस मुल्क में
या
उस राष्ट्र…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on April 21, 2018 at 2:35pm — 14 Comments
सुर्ख अंगारे से चटक सिंदूरी रंग का होते हुए भी मेरे मन में एक टीस हैं.पर्ण विहीन ढूढ़ वृक्षों पर मखमली फूल खिले स्वर्णिम आभा से, मैं इठलाया,पर न मुझ पर भौरे मंडराये और न तितली.आकर्षक होने पर भी न गुलाब से खिलकर उपवन को शोभायमान किया.मुझे न तो गुलदस्ते में सजाया गया और न ही माला में गूँथकर देवहार बनाया गया.हरित विहीन वन में मेरे बासंती फूल जंगल के सूनेपन को बांटता.प्रज्ज्वलित पुष्प धरा को ,नभ को रंगीन बनाते.धरा पर बिछे सूखे,पीले पत्तों पर मेरी मखमली,चटकती कलिया अपनी भावनाओं को…
ContinueAdded by babitagupta on April 21, 2018 at 1:51pm — 2 Comments
२१२२/२१२२/२१२२/२१२
.
ज़ाहिदो! रूतबा इबादत-गाहों का अपनी जगह
पर सुकूँ की राह में है मैकदा अपनी जगह.
.
इश्क़ में मजबूरियों को बेवफ़ाई क्यूँ कहें
चाहना अपनी जगह था भूलना अपनी जगह.
.
सादा-दिल होने के दुनिया में कई नुक्सान हैं
पर किसी के काम आने का मज़ा अपनी जगह.
.
आपने जब दिल लगाया ही नहीं, समझेंगे क्या?
जीतना हो शौक़ कोई, हारना अपनी जगह.
.
इम्तिहाँ कब “नूर” का है इम्तिहाँ आँधी का है
रात भर जलता रहेगा यह दीया…
Added by Nilesh Shevgaonkar on April 21, 2018 at 12:30pm — 11 Comments
गुहार - लघुकथा –
मंत्री जी की गाड़ी जैसे ही बँगले से बाहर निकली, एक जवान औरत हाथ में खून से सनी दरांती और गोद में छोटी बच्ची लिये गाड़ी के आगे आकर खड़ी होगयी। ड्राइवर ने बताया कि वह सुबह से आपसे मिलने की ज़िद कर रही थी। दरबान ने नहीं आने दिया।
"क्या हुआ बेटी। यह क्या हालत बना रखी है"?
"साहब मैं एक फ़ौज़ी की विधवा हूं। मेरा ससुर और देवर मेरी ज़मीन और मेरे शरीर के लिये मुझे परेशान करते हैं”|
"तुम थाने क्यों नहीं गयी। वहाँ जाकर रिपोर्ट लिखाओ"?
"गयी थी साहब।…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on April 21, 2018 at 11:42am — 10 Comments
निष्कलंक कृति .....
अवरुद्ध था
हर रास्ता
जीवन तटों पर
शून्यता से लिपटी
मृत मानवीय संवेदनाओं की
क्षत-विक्षत लाशों को लांघ कर
इंसानी दरिंदों के
वहशी नाखूनों से नोची गयी
अबोध बच्चियों की चीखों से
साक्षात्कार करने का
रक्त रंजित कर दिए थे
वासना की नदी ने
अबोध किलकारियों को दुलारने वाले
पावन रिश्तों के किनारे
किंकर्तव्यमूढ़ थी
शुष्क नयन तटों से
रिश्तों की
टूटी किर्चियों की
चुभन…
Added by Sushil Sarna on April 20, 2018 at 4:25pm — 8 Comments
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