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April 2016 Blog Posts (116)


सदस्य कार्यकारिणी
बाँध

उसके गले में गोया सहस्त्रों  केक्टस उग आये हों 

थोड़ी थोड़ी देर में उनको निगलने की कोशिश में

गले की कोशिकाएँ कभी खिंच रही थी

 कभी  फूल रही थी

साँसें नियंत्रण खो रही थी

आँखों में दर्द के लाल डोरे उभर आये थे

मुझे ऐसा लगा मैं बहते दरिया को  बाँध से रोकते हुए  देख रही हूँ

जो कितना तकलीफ देह है

कुछ देर  और देखती रहूंगी तो वो मेरी आँखों

के रास्ते बह चलेगा

क्यूँ नहीं उस दरिया को मुक्त किया जा रहा

भावनाओं पर नियंत्रण…

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Added by rajesh kumari on April 11, 2016 at 10:24am — 2 Comments

पर क्यों?

पर क्यों

पांच सौ रूपये महीने की बाई,

प्रतिस्थापित हो जाती है,

सहेली में,

सब सुख दुख,

सास की ज्यादतियां,

पति की बेवफाईयां,

बड़े प्रेम से सुनती है,

कमेंट्स भी देती है ,

मरहम भी रखती है,

चली जाती है दूसरे घर,

बेतार की सेवा प्रदान करने।

कभी कभी,

प्रतिस्थापित हो जाती है,

संशय के घेरे में,

शक के डेरे में,

सौत बन जाती है,

पर देहरी नहीं छुड़ाती,

अजीब सी कसमसाहट देती है,

रस भरी प्रेम पगी,

कथायें सुनाती है…

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Added by Pawan Jain on April 11, 2016 at 10:05am — No Comments

दोहा छंद......ग्यारह मनके

दोहा छंद......ग्यारह मनके

भले भलाई ही करें, बुरे बुने नित जाल.

भले हुए यश-चांदनी, बुरे क्रूर-तम-काल.१

सत्य-अहिंसा-प्रेम रस, सदगुरु की पहचान.

रखे मुक्त हर दोष से, जैसे कमल-कमान.२

सूरज की किरनें चली, सत्य ज्ञान के पार.…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 10, 2016 at 10:49am — 4 Comments

लग्न-मुहूर्त(लघुकथा)-सतविंदर कुमार

"अरे!जानती हो आचार्य जगत ज्ञानी जी की पुत्रवधु मरते-मरते बची। बस भगवान ने साँसे बख्श दी। वर्ना ऐसा दुःख मिला है जीवन भर कलेजे में ठुंसा रहेगा।बेचारी!"

बैठने के लिए पीढ़ा सरकाते हुए मुख्तारी ताई एक साँस में बोल गई।

"हाँ! सुना तो है कि कल उसकी तबियत ज्यादा ख़राब हो गई थी। शहर के नर्सिंग होम में ही दाखिल है। अभी तक..."

कुछ सोचते हुए फिर बोली, "अब तो उसकी तबीयत में काफी सुधार है।फिर आप किस दुःख की बात कर रही हो ताई?"

सहमते हुए।

"अरे! जानती हो न कि उसका प्रसव का समय नजदीक…

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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on April 10, 2016 at 9:30am — 6 Comments

दोहे(विविधा-21)

सृत्वा सोम सुरेश शिव,नंदीश्वर नटराज।
अनघ अघोर अज्ञेय जी,पूर्ण करें सब काज।।

गंगा जल व् विल्व पत्र,लिए पुष्प मंदार।
हे शेखर अर्पित करूँ,स्वीकारें अभिसार।।

जीवन भर ऐसा रहे ,हो उनका सम्मान।
माता बहना रूप जो,उनको अर्पण जान।।

संगी साथी या सखा,कह दूँ तुमको मित्र।
इक दूजे में यूँ बसे, जैसे छाया चित्र।।

कितना किसने कब दिया,है कितना अनुपात।
स्वार्थ दिखे सम्बन्ध पर,हावी मुझको तात।।

-राम शिरोमणि पाठक
मौलिक/अप्रकाशित

Added by ram shiromani pathak on April 8, 2016 at 2:30pm — 4 Comments

गीत-आज प्रिये कुछ कहना चाहूँ।

आज प्रिये! कुछ कहना चाहूँ, हिय में तेरे रहना चाहूँ।

तेरे तन-मन में खोया मैं खोया ही अब रहना चाहूँ।।

आज प्रिये! कुछ.........



निज नृग-से न्यारे नयनों में अंजन-सा मुझे रचा लो तुम।

उलझा लो कुंचित-केशों में या गजरा मुझे बना लो तुम।।

अधरों की लाली बन प्यारी मैं अधर-सुधा पा लेना चाहूँ।

आज प्रिये! कुछ............



कानों का कुंडल बन जाऊँ या उर का हार बना लो तुम।

बन जाऊँ छम-छम पायल मैं या कंगन मुझे बना लो तुम।

नथ की नथिया बन सजनी मैं चूम होठ को लेना… Continue

Added by रामबली गुप्ता on April 8, 2016 at 10:01am — 1 Comment

दवा लाते नहीं कोई दिले बीमार की ख़ातिर- बैजनाथ शर्मा 'मिंटू'

अरकान – 1222 1222 1222 1222

 

सभी आते हैं घर मेरे महज़ दीदार की खातिर|

दवा लाते नहीं कोई दिले बीमार की  ख़ातिर|

 

सुना है दान वीरों में भी उनका नाम आता है,

मगर वो दान करते है तो बस जयकार की  ख़ातिर|

 

वो मंदिर और मस्जिद में लुटाते लाख पर अफ़सोस,

नही लेकिन दिया कुछ भी कभी लाचार की  ख़ातिर|

 

बनाता मैं भी इक बंगला जो रिश्ते ताक पर रखता,

मगर रहता हूँ कुटिया में तो बस परिवार की  ख़ातिर|

 

बता तू सरफिरा है…

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Added by DR. BAIJNATH SHARMA'MINTU' on April 7, 2016 at 5:30pm — 2 Comments

वफा उस पार से रखते मगर इस पार गद्दारी - गजल - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

1222 1222 1222 1222

कहाँ तक  नाव  जाएगी करे पतवार गद्दारी

गजल लय में रहे कैसे करें असआर गद्दारी ।1।

भले कहना सरल है ये यहाँ हर नींव पक्की है

सलामत  छत  रहे  कैसे  करे  दीवार  गद्दारी ।2l

कहा करते हैं दुर्जन भी ये तो तहजीब का फल है

सुहाती है किसी  को  ढब  किसी  को भार गद्दारी ।3l

न जाने यार क्या होगा चमन में हाल फूलों का

अगर करने  लगे यूँ  ही  कसम  से खार गद्दारी ।4l

जुड़े जब स्वार्थ ही केवल…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 7, 2016 at 12:00pm — 2 Comments

वही नर्म अहसास ....

वही नर्म अहसास ....

वही नर्म अहसास

किसी सुर्ख शफ़क़ से

पलकों की खिड़की में

यादों की शरर बन

जाने कब

मेरी रूह में उतर गए//

वही नर्म अहसास

मेरी तन्हाईयों को

मुझसे लिपट

मेरी करवटों को

ख़ुशनुमा सुरों से सजा

मेरी हयात को

जीने की अदा दे गए//

वही नर्म अहसास

फिर किसी गुजरे लम्हे से निकल

दिल के करीब यूँ हंसे

मानो फ़िज़ाओं ने हौले से

अपनी पाज़ेब छनकाई हो

शोखियों में डूबी

जैसे कोई…

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Added by Sushil Sarna on April 6, 2016 at 9:00pm — 2 Comments

ग़ज़ल-नूर --वक़्त यूँ आज़माता रहा

२१२/२१२/२१२

.

वक़्त यूँ आज़माता रहा,

रोज़ ठोकर लगाता रहा.

.

साहिलों पर समुन्दर ही ख़ुद,

नाम लिखता,, मिटाता रहा.

.

वो मेरे ख़त जलाते रहे,  

और मैं दिल जलाता रहा.

.

वक़्त कम है, पता था मुझे

रोज़..फिर भी लुटाता रहा.   

.

डूबती नाव का नाख़ुदा,

बस उम्मीदें बँधाता रहा.

.

वो समझते रहे शेर हैं,

धडकनें मैं सुनाता रहा.

.

कोई तो प्यास से मर गया,

कोई आँसू बहाता…

Continue

Added by Nilesh Shevgaonkar on April 6, 2016 at 5:04pm — 3 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
सपनों को सजा कर देखूँ (ग़ज़ल)// डॉ. प्राची

2122, 1122, 1122, 22



खुद को मिट्टी में चलो फिर से मिला कर देखूँ।

आख़िरी बार सही, रिश्ता निभा कर देखूँ।



उसने सीने में ही बारूद छिपा रक्खा है,

कैसे चिंगारियाँ नफरत की बुझा कर देखूँ?



दर्द अब रूह तलक मुझको न झुलसा डाले,

उफ़! ये लावा मैं कहाँ आज बहा कर देखूँ?



ज़िन्दगी मौत की दहलीज़ पे लाई, फिर भी-

दिल ये कहता है कि सपनों को सजा कर देखूँ।



मुख जो मोड़ा था हकीकत से, हुआ क्या हासिल?

कर के हिम्मत ज़रा नज़रें तो मिला कर… Continue

Added by Dr.Prachi Singh on April 6, 2016 at 1:21pm — 4 Comments

गुफ़्तगू हो रही सबकी दीवार से (ग़ज़ल)

212   212   212   212

ये है आलम अब आपस की तकरार से

गुफ़्तगू   हो   रही   सबकी   दीवार  से

फिर  हमें  कब रहा  डर किसी  वार से

लफ्ज़  अपने  हुए  जब से हथियार से

कुछ ख़बर  हो न पाई  हमें,  इस क़दर

जिस्म से  दिल निकाला गया  प्यार से

सोचिये,  स्वस्थ   तब   देश   कैसे  रहे

ख़ैरख़्वाह  आज  सारे   हैं  बीमार - से

जीत को जब बनाया है मक़सद,तो फिर

मैं  भला   क्यों  डरूं   एक - दो  हार…

Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on April 5, 2016 at 10:08pm — 1 Comment

तंबोला [अतुकांत ]

कितना अजीब खेल है 

ये तंबोला 

हाउस कटते हैं 

तभी मिलती है जीत 

आज के महानगरीय 

सत्य जैसा 

मजबूरी का मुखौटा पहने 

यहाँ स्वार्थ चीखता है 

दंभ के मंच से 

जुड़ाव, रिश्ते कटते हैं 

तंबोला की संख्या की तरह 

और बनता है' हाउस '

कुछ की  भावुक बेवकूफियाँ 

काट नहीं पातीं सारे रिश्ते

वो हारे हुए कुंठित

इर्ष्या से देखते हैं

उन विजयी लोगों को

जो पूरा हाउस काट कर

जीत…

Continue

Added by pratibha pande on April 5, 2016 at 10:00pm — No Comments

ग़ज़ल -- फ़क़ीर हूँ मैं नवाब जैसा। ( दिनेश कुमार )

121 22 -- 121 22



बहिश्त के इक गुलाब जैसा

बदन वो जामे शराब जैसा



मैं उसको पढ़ता हूँ झूमता हूँ

सुख़न की वो इक किताब जैसा



न पूछो दीवानगी का आलम

सुकूँ का पल इज़्तिराब जैसा



हर एक ख़्वाहिश सराब जैसी

हर एक लम्हा अज़ाब जैसा



वो अपने चेहरे से कब है ज़ाहिर

कि उसका चेहरा नक़ाब जैसा



है इश्क़ करना गुनाह बेशक

गुनाह लेकिन सवाब जैसा



फिसलता मुट्ठी से वक़्त हर पल

ये अपना जीवन हुबाब जैसा



जो… Continue

Added by दिनेश कुमार on April 5, 2016 at 6:59pm — 10 Comments

बजा करती हैं कानों में तुम्हारी पायलें अब भी - ग़ज़ल - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

1222    1222    1222    1222



बिछड़ कर भी  कहाँ  तुझसे तेरी बातों को भूले हैं

कहाँ उस  झील के तट की मुलाकातों को भूले हैं।1।



कि छोड़ा हमने अपना दिन तेरी जुल्फों के साये में

तेरे काँधें  पे हम  अपनी  सनम  रातों को भूले हैं।2।



बजा करती  हैं कानों  में तुम्हारी पायलें अब भी

खनकती  चूडि़यों  वाले  न उन  हातों को भूले हैं।3।



न  छत  पर  चाँद तारों से  हमारा हाल तुम पूछो

तपन की याद किसको है  कि बरसातों को भूले हैं।4।



अगर है याद जो थोड़ा…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 5, 2016 at 12:01pm — 15 Comments

ग़ज़ल मनोज अहसास(इस्लाह के लिए)

221 2121 1221 212



बेचैनियों के रंग सवालो में भर गये

मंज़िल से पूछता हूँ कि रस्ते किधर गये



दिल को निचोड़ा इतना कि अहसास मर गये

खुद को बिगाड़ कर तुझे हम पार कर गये



मुझको उदास देखा जो मिलने के बाद भी

वो अपने दिल का दर्द बताने से डर गये



पूनम की शब का चाँद जो खिड़की पे आ गया

कमरे में मेरे यादों के गेसू बिखर गये



साहिल की कैद में कहीं जलती है इक नदी

मेरे ख्याल रेत के दरिया में मर गये



वीरानियों को अपना मुकद्दर समझ… Continue

Added by मनोज अहसास on April 5, 2016 at 11:05am — 21 Comments

रचना-शृंगारिक

लच-लचक-लचक लचकाय चली,

कटि-धनु से शर बरसाय चली।

कजरारे चंचल नयनों से,

हिय पर दामिनि तड़पाय चली।।1।।



फर-फहर फहर फहराय चली,

लट-केश-घटा बिखराय चली।

अलि मनबढ़ सुध-बुध खो बैठे,

अधरों से मधु छलकाय चली।।2।।



सुर-सुरभि-सुरभि सुरभाय चली,

चहुँ ओर दिशा महकाय चली।

चम्पा-जूही सब लज्जित हैं,

तन चंदन-गंध बसाय चली।।3।।



लह-लहर-लहर लहराय चली,

तन से आँचल सरकाय चली।

नव-यौवन-धन तन-कंचन से,

रति मन में अति भड़काय… Continue

Added by रामबली गुप्ता on April 5, 2016 at 11:00am — 12 Comments

ग़ज़ल कहीं राधा कहीं मीरा कहीं पे श्याम के चर्चे

1222   1222     1222     1222

हमें अब याद आते हैं सुहानी शाम के चर्चे

तुम्हारी बज़्म की बातें तुम्हारे नाम के चर्चे



सदायें ये मुहब्बत की दिशायें गुनगुनायेंगी

कहीं राधा कहीं मीरा कहीं पे श्याम के चर्चे



लिये बैठा हूँ नम आँखें अधूरा प्यार का किस्सा 

कभी मजनू कभी राँझे कभी खय्याम के चर्चे

किसी ने राग जो छेड़ा घुली खुशबू…

Continue

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on April 4, 2016 at 9:00pm — 20 Comments

शून्य

वे,

जो कभी थे निकट,

प्राणों की तरह।

धड़कते थे हर क्षण,

श्वास- प्रश्वास के साथ।

थे तो सहोदर ही,

पर अब- - - -

वे बहुत दूर ...दूर हो गए।

और जो दूर ... थे

उनकी दूरी भी , नापना दूभर है। ।



प्राणहीन जर्जर जीवन को

अपनाया एकान्त ने।

अपनी अद्भुद्ता की व्यापकता से

मोह लिया ऐसे,

कि अब, वही मेरा सगा है।

बाकी सब ने, मनमाना ठगा है। ।



शून्य को पाकर मैं,

बन गया, मालिक विराट का।

लुटाने को कितना हूँ…

Continue

Added by Dr T R Sukul on April 4, 2016 at 4:30pm — 8 Comments

गीत-हृदय का भ्रमर गुनगुनाता चला है।

हृदय का भ्रमर गुनगुनाता चला है।

नया सुर अधर पर सजाता चला है।

हृदय का भ्रमर.............



उजड़ जो गयी एक बगिया हुआ क्या,

बगीचे नए भी यहीं पर मिलेंगे।

नई नित्य कलियाँ सजाएंगी उपवन,

नए पुष्प अमृत-कलश ले खिलेंगे।

यही सोंचकर गीत गाता चला है।

हृदय का भ्रमर.............



तिमिर रात्रि का कब सदा ही रहेगा?

दिवा के उजाले भी चहुँ ओर होंगे।

नवोदित किरन तम का चीरेगी सीना,

प्रभा से प्रकाशित सकल वस्तु होंगे।

हृदय-तम में दीपक जलाता चला… Continue

Added by रामबली गुप्ता on April 4, 2016 at 10:30am — 14 Comments

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