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June 2015 Blog Posts (183)


सदस्य कार्यकारिणी
उजले-उजले सूरज खोये कैसे कैसे (ग़ज़ल 'राज')

२२२२ २२२२ २२२२   

दुनिया ने तो  काँटे बोये कैसे कैसे  

चुन-चुन कर हम कितना रोये कैसे कैसे  

 

काँटों तक ही दर्द नहीं सीमित था अपना  

बातों- बातों तीर  चुभोये कैसे कैसे

 

तुमको देखा तो जाने क्यों आया जाला

मल-मल कर आँखों को…

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Added by rajesh kumari on June 6, 2015 at 6:00pm — 27 Comments

कोशिश ___इस्लाह के लिए __मनोज कुमार अहसास

1222 1222 1222 1222





हमे ये गम हमारी ही खताओं से मिला होगा

सहारे इस कबूलत के नज़र को हौसला होगा





खुदा हमको ही लौटा देता है फेकें हुए पत्थर

हक़ीक़त जानकर किससे भला शिकवा गिला होगा





दुआ ये करता हूँ दिल में न कोई अब कभी उतरे

ज़रा नज़दीकियों से फिर नया एक फासला होगा





तसव्वुर बोझ बन जाये ज़माने मे तो फिर क्या हो

फक़त इस्लाह के हाथों से तब अपना भला होगा





बता'अहसास'तेरी बज़्म से उठ जाता तो कैसे

कदम कुछ जम… Continue

Added by मनोज अहसास on June 6, 2015 at 5:00pm — 24 Comments

ऊंचाई (लघु कथा)

लघु कथा - ऊंचाई

''पापा पापा जल्दी आओ, आफिस में देर हो रही है। ''

'' ओफ्फो ! एक मिनट तो रुको। ज़रा चप्पल तो पहन लूँ। द्वारका प्रसाद ने घर भीतर से आवाज़ दी। ''

''आ गया आ गया मेरे बेटे। ''

''इतनी देर कहाँ लगा दी पापा आपने। "

''वो बेटे पहले तो चप्पल नहीं मिली और मिले तो पहनते ही उसका स्टेप निकल गया बस इसी में थोड़ी देर हो गयी। द्वारका प्रसाद ने आँखों के चश्मे को ठीक करते हुए कहा। ''

''राहुल ने चमचमाती नयी गाड़ी का दरवाजा खोला और कहा चलो जल्दी बैठो। ''

वृद्ध…

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Added by Sushil Sarna on June 6, 2015 at 4:00pm — 40 Comments

सम्मान की एक जिंदगी.लघु कथा

जब से पता चला है कि रत्ना एक समय धन्धा करती थी, तब से पूरे समूह की दूसरी औरतों के चेहरे पर उसके प्रति नपंसदगी और तनाव साफ देखा जा सकता है. पर किसी में हिम्मत नहीं थी कि उसका विरोध कर सके क्योंकि सबको दीदी का डर सता रहा था. मै ये बात एक स्वयं सहायता समूह “उदया” की कर रही हूँ जो हस्तशिल्प का काम एक एन.जी.ओ. के लिए करता है, जिसे विभा दीदी संचालित करती हैं. समूह की अध्यक्षा सरला से जब रहा नहीं गया तो उसने सबसे सलाह कर दीदी से बात करने की ठानी.

आज जब विभा आई तो उसने सबके बीच पसरे…

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Added by Veena Sethi on June 6, 2015 at 2:00pm — 7 Comments

गजल /// हो गया सामना

मुतदारिक मुसम्मन सालिम 

212   212   212   212

आपकी  थी  हमें  भी  बहुत  कामना

आज   संयोग   से  हो गया सामना

 

आँख से आँख अपनी मिली इस तरह

रस्म भर  ही रहा  हाथ  का थामना

 

मयकशीं  जो  करूं तो  नशा यूँ चढ़े

और  आये  कभी  हाथ में जाम ना

 

इश्क आँखों  में जब से लगा नाचने

हो  गयी  पूर्ण  …

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 6, 2015 at 12:30pm — 20 Comments

भांग का पौधा ........इंतज़ार

ये मेरे दिल में जो तूने

एक भांग का पौधा 

बो दिया था

अब वो बड़ा हो गया है

और लत लग गई है मुझे

रोज़ दो पत्ती खाने की...

प्यार के नशे में तेरे

डूबना बड़ा अच्छा लगता है

कहते हैं कि नशा गुनाह है

मगर यहाँ किसे परवाह है

अगर मैं मुजरिम हूँ

तो सिर्फ़ तेरा

तू चाहे जो सज़ा दे दे

मंज़ूर है सब

मगर शर्त ये है कि

कभी कभी इसे सींच देना

अपने एहसासों की बौछार से…

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Added by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on June 6, 2015 at 5:46am — 20 Comments

पर्यावण संरक्षण ( कहानी )



सभा कक्ष में सन्नाटा था , औचक़ मीटिंग बुलाई गयी थी । सभी कयास लगा रहे थे कि क्या वज़ह हो सकती है इसकी । इतने में जिलाधिकारी महोदय ने प्रवेश किया , पीछे पीछे मुख्य विकास अधिकारी और अन्य अधिकारीगण भी अंदर आये । बिना समय जाया किया जिलाधिकारी साहब मुद्दे पर आ गए ।

" अभी अभी मुख्यमंत्री सचिवालय से फोन आया है कि मुख्यमंत्री महोदय परसों पर्यावरण दिवस पर वृक्षारोपण के लिए अपने जिले में आ रहे हैं । किस जगह पर ये कार्यक्रम करवाना ठीक रहेगा , आप लोग अपनी राय दें "।

अभी उनकी बात ख़त्म भी नहीं…

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Added by विनय कुमार on June 6, 2015 at 2:28am — 16 Comments

पहचान - डॉo विजय शंकर

  हीरा - क्या ज़माना आ गया , लोगों को बताना पड़ता है , मैं हीरा हूँ , हीरा। बड़ा महंगा होता ही हीरा।

          मेरी चमक दूर दूर तक जाती है. कभी राज के राज तबाह हो जाते थे हमारे लिए.

          एक नज़र हमें देख कर लोग अपने नसीब को सराहते थे।

         रानी - राजकुमारियों को हमारे हार ही सुहाते थे।

         ( आह भर कर ) अब तो जैसे कोई हमें चाहता ही नहीं। पहचानता भी नहीं.    

   कोयला - हाँ भाई , बात तो सही है, पर मेरे भाई , वक़्त वक़्त की बात होती है,…

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Added by Dr. Vijai Shanker on June 5, 2015 at 7:30pm — 18 Comments

घर का लुक (लघुकथा)// शुभ्रांशु पाण्डेय

“अरे गुप्ता जी, ये क्या कर रहे हैं आप ?”

“बेटे के स्कूल में पर्यावरण दिवस पर एक नाटक है.. और उसको एक पेड़ बनना है.. इसीलिये ये डालियाँ काट-काट कर उसे दे रहा हूँ.”

“आपने तो इसे पूरा ही काट डाला.. अब तो ये कायदे का पेड़ बनने से रहा. अभी-अभी तो वन विभाग वालों ने इसे लगाया था..”

“भाईजी, सामने से घर का लुक भी खराब कर रहा था, इसी बहाने इसका काम तमाम करूँ..” - बुदबुदाते हुये गुप्ता जी के हाथ और तेज चलने लगे. 

(मौलिक और अप्रकाशित)

Added by Shubhranshu Pandey on June 5, 2015 at 6:57pm — 19 Comments

राह मुश्किल है जवानी की संभलकर चलना

२१२२   ११२२   ११२२  २२/११२

वक़्त ये चलता है चलते हुए सूरज की तरह 

तन मेरा जलता है जलते हुए सूरज की तरह 

रोशनी इल्म की दुनिया में तभी बिखरेगी 

तम को निगलोगे निगलते  हुए सूरज की तरह

जुल्फ की छांव तले शाम गुजारो अपनी 

अब्र में छुप के बहलते हुए सूरज की तरह 

राह मुश्किल है जवानी की संभलकर चलना 

कितने फिसले हैं फिसलते हुए सूरज की तरह 

अब्र की छांव में हर रोज छुपाकर खुद को 

इक कमर ने छला…

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Added by Dr Ashutosh Mishra on June 5, 2015 at 10:49am — 15 Comments

कागज के ख़त...........'जान' गोरखपुरी

२२ / २२ / २२ / २२ / २२ / २२ / २२ / २२ / २२

 

मुद्दत से जिसने दुनिया वालों से मेरा नाम छुपा रक्खा है

जलने वालों ने ज़माने में उसका ही नाम बेवफा रक्खा है

 

**

 

रातों-रातों उठ उठ कर हमने आँसू बोयें हैं दिल की जमीं पर  

तुम क्या जानोंगे कैसे हमने बाग़-ए-इश्क ये हरा रक्खा है

 

**

 

वो मेहरबां है तो कुछ और न सुना दे,गर हो जाय खफा तो   

चूड़ी ,कंगन, पायल, बादल..कासिद कायनात को बना…

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Added by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 5, 2015 at 10:30am — 25 Comments

जिंदगी री (गजल,मनन कु॰ सिंह)

2122        2122    2122    2122



जब कहेगी तब करेंगे नाम तेरे जिंदगी री।

कब रहेगी जो चलेगी साथ घेरे जिंदगी री?



माँगता हूँ  मैं हमेशा जिंदगी से जिंदगी पर,

दे कहाँ पायी अभी जो बात टेरे जिंदगी री।



आ गयी थीं तब सलोनी ऊँघती कैसी घटाएँ,

दे गयी थी देख तब भी उष्ण फेरे जिंदगी री।



बैठकर मैं शांत कैसा देखता था बूँद जल का 

आग जैसा फिर जलाया रे घनेरे जिंदगी री।



कब लगी मैं सोचता हूँ रे लगी कैसे भला…

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Added by Manan Kumar singh on June 5, 2015 at 10:00am — 2 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल - फिल बदीह - मिसरा - खूब सूरत है मगर ये आपसे प्यारा नहीं ( गिरिराज भंडारी )

2122 2122 2122 212



है कोई क्या इस जहाँ में जो कभी हारा नहीं

"सिर्फ़ पाया हो यहाँ पर और कुछ खोया नहीं"



पत्थरों के बीच रह के मै भी पत्थर की तरह

दर्द की बस्ती में रह कर, देखिये रोया नहीं



ख़्वाब की बातें कहूँ क्या, नींद जब दुश्मन हुई

माँ का साया जब से रूठा , तब से मैं सोया नहीं



बादलों में खेमा बन्दी भी हुई क्या ? आज कल

क्यों मेरे घर से गुज़रते वक़्त वो बरसा नहीं



मरहले के और पहले थक गया था काफिला

आबला पा था…

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Added by गिरिराज भंडारी on June 5, 2015 at 9:30am — 32 Comments

बेहिसाब बरसो ......इंतज़ार

मेरे जीवन में तुम आके बरसो

आसमानी बादल बन के ना बरसो

पास आ सैलाब बन के बरसो

पुरवाई का झोंका बन के ना बरसो

प्यार की अंगार बन के बरसो

मिलन की आस बन के ना बरसो

बोसों की बौछार बनके बरसो

चांदनी बन के ना बरसो

चकोरी की प्यास बन के बरसो

उमंगों के आकाश से

एहसासों की बारात बन के बरसो

तनहाइयाँ बहुत हुईं

एक मिलन की रात बन के बरसो

अब जैसे भी बरसो ....

मगर कुछ ऐसे बरसो

कि बेहिसाब हो के बरसो…

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Added by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on June 5, 2015 at 6:19am — 10 Comments

पेड़ की पुकार ___मनोज कुमार अहसास

घर सजाते रहे ग़र मुझे चीर कर सारी दुनिया किसी दिन उजड़ जायेगी

हम हरें हैँ तो रौशन है सारा जहाँ वरना जीवन की सूरत बिगड़ जायेगी





हम खड़े धूप में तुमको छाया दिये फल मुहब्बत से तुमको सब दे दिये

तुमने अंधी कटाई न रोकी अगर तुमसे मीठी सी छाया बिछड़ जायेगी





साँस लेते हो तुम जिस हवा में सदा ज़हर उसका ख़ामोशी से पीते रहे

यूँ ही बढ़ता रहा जो धुंए का असर साँस तेरी भी एकदिन उखड जायेगी





हमसे बारिश मिले हमसे महके चमन बिन हमारे अधूरा रहे आचमन

हम न… Continue

Added by मनोज अहसास on June 4, 2015 at 11:41pm — 11 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
सपनों के झिलमिल से जुगनू (एक गीत).............डॉ० प्राची सिंह

सपनों के झिलमिल से जुगनू पलकों पर पल भर आ ठहरे...

 

नन्हें पर हैं, पर भोला मन

नभ छू ले करता अभिलाषा,

कंटीले तारों की जकड़न

देगी केवल हाथ हताशा,

अन्धकार नें बरबस नोचे परियों के भी पंख सुनहरे...

सपनों के झिलमिल से जुगनू पलकों पर पल भर आ ठहरे...

 

सपनों को मंज़ूर हुआ कब 

ढुलक आँख से झरझर बहना,

हँसकर स्वीकृत किया उन्होंने 

सीपी में मोती बन रहना,

सागर ने अपने सीने में राज़ छुपाए हैं कुछ गहरे...

सपनों के…

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Added by Dr.Prachi Singh on June 4, 2015 at 9:30pm — 15 Comments

: भई विचलित व्रत, रति सत्ता से : 26/07/2005

हो न कभी राग रति से, यही लिया व्रत ठान |

कर लूँ कुछ सत्कर्म सृजित , हो मेरा यश गान |

बेधा उर रति-बान ने, दीक्षा पे आघात |

छंदरूप मृदु गात लखि, व्रत है टूटा जात ||

 

अपलक भए नेत्र मोरे, देखि अनुप रूप को |

वक्ष गिरि, कटि गह्वर, रसद मधुर गात है |

मचलै ना माने हिय लोचन निहार हार |

कबरी पे आँचल फसाए चाली जात है |

कर्ण-कुण्डल कपोल छुए, अधर सोहे मूँगे सा |

नयना कमल हो मानो मुखड़ा प्रभात है |

पाँव से शीश लाइ, समांग…

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Added by SHARAD SINGH "VINOD" on June 4, 2015 at 7:30pm — 8 Comments

मुलाकात..........

मुलाकात......

आजकल ग़मों में भी

बरसात कहाँ हो पाती है

सब से हो जाती है

पर खुद से बात कहाँ हो पाती है

फुर्सत ही नहीं इस तेज रफ्तार

जिन्दगी की राहों में

कि रुक कर

खुद से चंद लम्हे बात करें

कोई नहीं होता

जब रात के अँधेरे में

कैद से रिहा होते

अँधेरे से सवेरे में

बावजूद अकेला होने के

पलक कहाँ सो पाती है

दिल के निहाँखाने से

कहाँ ख़ुद की रिहाई हो पाती है

धीरे धीरे ज़िंदगी

कहीं गर्द में खो जाती है

बंद होते…

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Added by Sushil Sarna on June 4, 2015 at 6:41pm — 10 Comments

महीना जून का पावन

महीना जून का पावन मुझे तो खूब है भाता

मगर इसका मुझे है ग़म हमेशा ये नही आता

बला बीबी टले इस माह नइहर वो चली जाती

सुबह से शाम तक करती परेशा सर वही खाती

यही ये माह है ऐसा खुशी जो साथ्‍ा में लाता

मगर इसका मुझे है ग़म हमेशा ये नही आता

महीना जून का पावन मुझे तो खूब है भाता

लड़ाता जाम विस्‍की के ऩज़र रखता पडोसन पे

न खाना मैं बनाता हूँ मगाता रोज होटल से

पिटाई भी नही होती जली रोटी नहीं खाता

मगर इसका मुझे है गम…

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Added by Akhand Gahmari on June 4, 2015 at 6:00pm — 4 Comments

फूल और काँटा

     

एक वृक्ष  की  दो  संताने  तू  गुलाब  मैं काँटा  

जो  तुझको  फुसलाता  है  मैं धर देता हूँ चाँटा  

 

तितली भ्रमर और मधुमक्खी सब  मुझसे थर्राते

मेरे डर  से पास  तुम्हारे  आने  में  भय खाते

 

वन-कानन का पशु भी कोई परस नहीं कर पाता

मणिधर भी  तेरी  सुगंध को  लेने …

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 4, 2015 at 5:30pm — 22 Comments

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