Added by amod shrivastav (bindouri) on July 15, 2015 at 11:30pm — 5 Comments
ऐसी दुनिया संभव ही नहीं है
जिसमें ढेर सारे बाज़ हों और चंद कबूतर
बाज़ों को जिन्दा रहने के लिए
जरूरत पड़ती है ढेर सारे कबूतरों की
बाज ख़ुद बचे रहें
इसलिए वो कबूतरों को जिन्दा रखते हैं
उतने ही कबूतरों को
जितनों का विद्रोह कुचलने की क्षमता उनके पास हो
कभी कोई बाज़ किसी कबूतर को दाना पानी देता मिले
तो ये मत समझिएगा कि उस बाज़ का हृदय परिवर्तन हो गया है
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 15, 2015 at 10:55pm — 10 Comments
मॉनसून का मौसम इस वर्ष भी ना के बराबर ही रहा प्रदेश में , तेज चटक धूप ने धरती को चीर कर रख दिया था , भूमि बंजर हो गई थी । ठीक वही हालात अनन्या के भी थे ।
छोटी उम्र में शादी , दूसरे दिन पति के स्वर्गवास होने का दंश भी ससुराल वालों ने उसके मत्थे मड़ दिया । बापू आये और बिटिया को वापस घर ले गये ।
कुछ ही वर्षों में बिटिया के वैधव्य के गम में पिता भी चल बसे । घर का सारा बोझ उसने अपने कन्धे पर ले लिया ।
एक बार सावन में अपनी सखियों के साथ बारिश में…
ContinueAdded by Pankaj Joshi on July 15, 2015 at 4:38pm — 6 Comments
Added by babita choubey shakti on July 15, 2015 at 4:18pm — 2 Comments
विश्लेषण
फिर आज समय है विश्लेषण का
क्या खोया क्या पाया हमने
क्या अपराधी नहीं बने हम
विस्मृत कर बापू के सपने
डटे रहे जो निर्भय रण में
सत्य अहिंसा का संबल ले
डिगे तनिक न सत्य मार्ग से
अविजित दुरूह आत्मबल ले
पर उनकी संतान आज
सब भूल रही है
विचलित औ ' पथ भ्रष्ट
अधर में झूल रही है
स्वर्णिम भारत के सब सपने
पिघल रहे हैं
धनिक आज…
ContinueAdded by Tanuja Upreti on July 15, 2015 at 10:30am — 6 Comments
2122 2122 2122 212
क्या मरासिम को हमारे इक सज़ा ही मान लूँ
क़ातिबे तक़दीर की कोई जफ़ा ही मान लूँ
भीड़ में मुझ तक पहुँच के थम गये थे जो क़दम
तुम कहो तो इत्तफाकन सामना ही मान लूँ
आपकी आँखों ने लिक्खे थे कई ख़त जो मुझे
हर्फ़े बेमानी समझ उनको अदा ही मान लूँ
बन्द आखें , हाथ ऊपर कर जो मांगी थी कभी
अब असर से क्या उसे मैं बद दुआ ही मान लूँ
अब परिंदे प्यार के उड़ कर नहीं आते इधर
क्यों न…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on July 15, 2015 at 9:16am — 22 Comments
नीरवताएँ
दुखपूर्ण भावों से भीतर छिन्न-भिन्न
साँस-साँस में लिए कोई दर्दीली उलझन
मेरे प्राण-रत्न, प्रेरणा के स्रोत
तुम कुछ कहो न कहो पर जानती हूँ मैं
किसी रहस्यमय हादसे से दिल में तुम्हारे
है अखंडित वेदना भीषण
चोट गहरी है
दुख का पहाड़ है
दुख में तुम्हारे .. तुम्हारे लिए
दुख मुझको भी है
रंज है मुझको कि संवेदन-प्रेरित भी
मैं कुछ कर नहीं पाती
खुले रिसते घाव को तुम्हारे
सी नहीं…
ContinueAdded by vijay nikore on July 15, 2015 at 3:30am — 14 Comments
बरसों से पति का शराब पीकर मारने की आदत सह रही थी वो , लेकिन कल रात उसका पीकर आने के बाद बेटी का हाथ पकडना अखर गया था ।
सुबह अंगीठी के साथ वह भी सुलगती रही. क्षोभ , घृणा , मोह और कुंठाओं को सिलबट्टे पर बरसों से संचित आँखों का नमकीन पानी डाल - डाल कर जोर - जोर से पीसती जा रही थी । आज वह कुछ तय कर बैठी थी ।
कान्ता राॅय
भोपाल
मौलिक और अप्रकाशित
Added by kanta roy on July 14, 2015 at 11:00pm — 4 Comments
इस बार वह अकेली मायके आई थी. वो जब भी आती, बाबा से लिपट जाती. बाबा खूब दुलारते. बाबा की परी थी वो.
लेकिन इस बार बाबा बस ससुराल वालों की खैर-खबर पूछकर बाहर चले गए. माँ ने भी उसकी पसंद का भोजन पकाया था. तृप्त तो हो गई वो, मगर उसे घर के माहौल में आये बदलाव को भांपते देर न लगी. आज पूरे पंद्रह दिन हो गए थे उसे यहाँ आये हुए. बाबा बेटे की बेरोजगारी और आवारागर्दी से अब अधिक ही परेशान दिखने लगे थे. उसकी उलटी सीधी मांगों को इसी भय से मान लेते कि कहीं कुछ कर न ले. उसे भी भइया को देख कर…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on July 14, 2015 at 10:30pm — 27 Comments
वृक्ष ने बादलों से पूछा, "हर साल की तरह इस बार कोयल को साथ क्यों नहीं लाये, उसकी कूक के बिना बरसात अच्छी नहीं लगेगी?"
"तुम्हारी जिस डाली पर वो बैठती थी, उसके ऊपर के पत्ते झड़ गये हैं, वो भीग कर मर जाये, इससे अच्छा आये ही नहीं|"
पास ही घर में एक गर्भवती पलंग पर अधलेटी नम आँखों से अपने गर्भ परिक्षण के परिणाम का इंतजार कर रही थी|
(मौलिक और अप्रकाशित)
Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on July 14, 2015 at 9:30pm — 5 Comments
बारिश थी कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। कच्ची छत से पानी की धाराएं निरंतर बह रहीं थीं। टपकते पानी के लिए घर में जगह जगह रखे छोटे बड़े बर्तन भी बार बार भर जाते। उसके बीवी बच्चे एक कोने में दुबके बैठे थे। परेशानी के इसी आलम में कवि सुधाकर टपकती हुई छत के लिए बाजार से प्लास्टिक की तरपाल खरीदने चल पड़ा। चौक पर पहुँचते ही पीछे से किसी ने आवाज़ दी:
"सुधाकर जी, ज़रा रुकिए।" आवाज़ देने वाला उसका एक परिचित लेखक मित्र था।
"जी भाई साहिब, कहिए।"
"अरे भाई कहाँ रहते हैं…
Added by योगराज प्रभाकर on July 14, 2015 at 8:30pm — 15 Comments
Added by shashi bansal goyal on July 14, 2015 at 7:29pm — 10 Comments
मैं हूँ एक आवारा बादल
और मुझे एहसासों से
तरबतर करता पानी हो तुम
अपने आगोश में ले तुम्हें
मस्त हवाओं से हठखेलियाँ करता
दूर तक निकल जाता हूँ
अपार उर्जा से दमकता
गर्जन करता
इस मिलन का उद्घोष करता हूँ
मगर फिर ना जाने क्यूँ
तुम बिछुड़ जाती हो मुझसे
बरस जाती हो अपने बादल को छोड़
और देखो ...मैं बिखर जाता हूँ
मेरा अस्तित्व ही मिट जाता है
जानता हूँ
इस बंज़र ज़मीन को भी
तुम्हारी प्यास रहती है
अगर तुम न बरसो
तो नया सृजन कैसे…
Added by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on July 14, 2015 at 4:06pm — 6 Comments
घर से बाहर जिसे मैं ,
दर दर ढूँढता फिरा
वो बच्चा,
मेरे ही घर में छिपकर
मेरी बौखलाहट पे ,
हँसता रहा I
मै रहा देहरियाँ चूमता ,
मज्जिद बुतखाने की
मेरे दर पे बैठा वो ,
राह तकता रहा
मेरे घर लौट आने की I
ढली शाम , खाली हाथ
अब मैं हूँ लौट आया ,
किया ढूँढने में जिसे
सारा दिन जाया
हाय , घर के अन्दर उसे
मुस्कुराते पाया…
ContinueAdded by pratibha pande on July 14, 2015 at 11:30am — 14 Comments
Added by jyotsna Kapil on July 14, 2015 at 11:27am — 11 Comments
ईन्सान के रूप
है एक रूप पर कितने अलग, ईनसान जगत में होते हैं
कुछ जीने ना दें अपनों को, अपनों के लिये कुछ जीते हैं
बस सोचते किसने कितना दिया, अन्याय किया या न्याय किया
ऐसे ही उलझी बातों में कुछ व्यर्थ लगाते गोते हैं
कुछ संतोषि और तृप्त सदा, कुछ लाभ लोभ में लिप्त सदा
ज्यादा पाने की लालच में जो पास है अपने खोते हैं
अपनी मस्ती में जीते कुछ, नहीं कोई शिकायत दुनिया से
हर पल वो मौज मनाते हैं, खाते पीते और सोते…
ContinueAdded by K K Dwivedi on July 14, 2015 at 10:30am — 1 Comment
2 2 2 1 / 2 2 2 2 / 2 1 222
दिल में शायरी का जब भी दोर उट्ठेगा
सबसे पहले तेरे नाम का शोर उट्ठेगा !!
पहली बारिश की रिमझिम शुरू क्या हुई
देख आज बगिया में नाच मोर उट्ठेगा !!
तेज हवाएँ तेरे इश्क़ में कुछ चलीं ऐसी
दिल में एहसासों का बबंडर जोर उट्ठेगा !!
जब आयेगा धुवाँ पड़ोस के घर के चुल्हे से
तभी मेरे हाथ से ये खाने का कोर उट्ठेगा !!
बचा कर रखना ये दिल मेरी तीरंदाजी से
वर्ना लूटने 'इंतज़ार' के दिल का…
Added by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on July 14, 2015 at 9:34am — 21 Comments
लगातार हो रही वर्षा के पश्चात पुनः विद्यालय सुचारू रूप से चलना शुरू ही हुआ था कि चीख-पुकार मच गयी सभी अपनी -अपनी जान बचाकर भाग रहे थे।नया विवादित भवन पहली ही बरसात में विद्यार्थी और शिक्षकों की कब्र में परिवर्तित हो गया ।अधिकारीयों का तांता लगा रहा तत्काल प्रभाव से भेजी गयी रिपोर्ट में भवन का खण्डहर होने का कारण -
" अत्यधिक वर्षा से भूस्खलन " था।
और ठेकेदार की बहुमंजिली कोठी बरसते सावन में घी के दीयों से जगमगा रही थी।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Archana Tripathi on July 13, 2015 at 11:30pm — 13 Comments
बड़े से मंदिर की बड़ी सी मूर्ति के सामने हाथ जोड़कर खड़े एक बड़े आदमी ने कहा, "भगवन, हम सब जानते हैं कि प्रकृति उसी का चुनाव करती है जो सबसे शक्तिशाली होता है। जो प्रजाति कमजोर होती है और अपनी रक्षा नहीं कर पाती वो मिट जाती है। इस तरह सीमित संसाधनों का सबसे शक्तिशाली प्रजातियों द्वारा उपयोग किया जाता है और उसी से ये दुनिया विकसित होती है। तो भगवन मैंने जो मज़दूरों, गरीबों, कमजोरों और लाचारों का अपने फ़ायदे के लिए इस्तेमाल किया है वो मैंने एक तरह से प्रकृति की मदद ही की है। ऊपर से मैंने आपका ये…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 13, 2015 at 9:30pm — 10 Comments
नास्तिक बाबूजी को देर रात ,चुपके से पूजाघर से निकलते देख मानस की उत्सुकता जाग गई,और पुलिसिया मन शंकित हो उठा।वो चुपके से उनके पीछे चल पड़ा।
उन्होंने हाथ में पकड़ा लड्डू माँ की ओर बढ़ा दिया
" लो खा लो "
" ये कहाँ से लाए आप ?"
"पूजा घर से "उन्होंने निगाह चुराते हुए कहा।
उसकी आँखें भर आयीं अपनी लापरवाही पर। घर में सौगात में आये मिठाई के डिब्बों का ढेर मानो उसे मुँह चिढ़ा रहा था।
( मौलिक एवम अप्रकाशित )
Added by jyotsna Kapil on July 13, 2015 at 7:00pm — 17 Comments
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