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July 2015 Blog Posts (243)

गजल...दूर रह के हमें मिला क्या है

दूर रह के हमें मिला क्या है।
आज कहने दो कायदा क्या है।।

मौसमो की जुबनियाँ सुन लो।
कह रहा है जो वो नया क्या है।।

थाम सकता हूँ उसके दामन को।
प्यार जो हो गया बुरा क्या है।।

खिल खिलाया करो कभी खुलकर।
इश्क हो तुम मेरा हया क्या है।।

हम सभल जाए राहें उल्फत में
रोज मरने से फायदा क्या है।।

अप्रकाशित ...आमोद बिन्दौरी

Added by amod shrivastav (bindouri) on July 15, 2015 at 11:30pm — 5 Comments

कविता : बाज़ और कबूतर

ऐसी दुनिया संभव ही नहीं है 

जिसमें ढेर सारे बाज़ हों और चंद कबूतर

 

बाज़ों को जिन्दा रहने के लिए

जरूरत पड़ती है ढेर सारे कबूतरों की

 

बाज ख़ुद बचे रहें

इसलिए वो कबूतरों को जिन्दा रखते हैं

उतने ही कबूतरों को

जितनों का विद्रोह कुचलने की क्षमता उनके पास हो

 

कभी कोई बाज़ किसी कबूतर को दाना पानी देता मिले

तो ये मत समझिएगा कि उस बाज़ का हृदय परिवर्तन हो गया है

-----------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 15, 2015 at 10:55pm — 10 Comments

बरसात

मॉनसून का मौसम इस वर्ष भी ना के बराबर ही रहा प्रदेश में , तेज चटक धूप ने धरती को चीर कर रख दिया था , भूमि बंजर हो गई थी । ठीक वही हालात अनन्या के भी थे ।

छोटी उम्र में शादी , दूसरे दिन पति के स्वर्गवास होने का दंश भी ससुराल वालों ने उसके मत्थे मड़ दिया । बापू आये और बिटिया को वापस घर ले गये ।

कुछ ही वर्षों में बिटिया के वैधव्य के गम में पिता भी चल बसे । घर का सारा बोझ उसने अपने कन्धे पर ले लिया ।

एक बार सावन में अपनी सखियों के साथ बारिश में…

Continue

Added by Pankaj Joshi on July 15, 2015 at 4:38pm — 6 Comments

गीत तौल

तराजू (गीत)





चल तौल तराजू रिश्तों को

कुछ अपने पराये नातो को ...



एक तरफ चढा ले माँ को ही

सबसे प्यारा ये रिश्ता है

कचरों के डिब्बों में फिर क्यों

शिशुओं को फेंका जाता है



चल ...........



एक तरफ भाई और बंधू ले

फिर जर जमीन पर क्यों झगड़े है

पैसा धन दौलत पर से क्यों

सर अपनों के काटे जाते है



चल .........



एक तरफ जीवन साथी ले

ये जनम जनम का नाता है

तो तलाक फिर क्यों होते है

संग रहकर भी… Continue

Added by babita choubey shakti on July 15, 2015 at 4:18pm — 2 Comments

विश्लेषण

विश्लेषण

 

फिर आज समय  है विश्लेषण का 

क्या खोया क्या पाया हमने 

क्या अपराधी नहीं बने हम 

विस्मृत कर बापू के सपने  

 

डटे रहे जो निर्भय रण में

सत्य अहिंसा का संबल ले

डिगे तनिक न सत्य मार्ग से

अविजित दुरूह आत्मबल ले

 

पर उनकी संतान आज 

सब  भूल रही है 

विचलित औ ' पथ भ्रष्ट 

अधर में झूल रही है  

 

स्वर्णिम भारत के सब सपने

पिघल रहे हैं

धनिक आज…

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Added by Tanuja Upreti on July 15, 2015 at 10:30am — 6 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
गज़ल - तुम कहो तो इत्तफाकन सामना ही मान लूँ ( गिरिराज भंडारी )

2122      2122      2122     212   

क्या मरासिम को हमारे इक सज़ा ही मान लूँ

क़ातिबे तक़दीर की कोई जफ़ा ही मान लूँ

 

भीड़ में मुझ तक पहुँच के थम गये थे जो क़दम

तुम कहो तो इत्तफाकन सामना ही मान लूँ

 

आपकी आँखों ने लिक्खे थे कई ख़त जो मुझे

हर्फ़े बेमानी समझ उनको अदा ही मान लूँ

 

बन्द आखें , हाथ ऊपर कर जो मांगी थी कभी

अब असर से क्या उसे मैं बद दुआ ही मान लूँ

 

अब परिंदे प्यार के उड़ कर नहीं आते इधर

क्यों न…

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Added by गिरिराज भंडारी on July 15, 2015 at 9:16am — 22 Comments

नीरवताएँ

नीरवताएँ

दुखपूर्ण भावों से भीतर छिन्न-भिन्न

साँस-साँस में लिए कोई दर्दीली उलझन

मेरे प्राण-रत्न, प्रेरणा के स्रोत

तुम कुछ कहो न कहो पर जानती हूँ मैं

किसी रहस्यमय हादसे से दिल में तुम्हारे

है अखंडित वेदना भीषण

चोट गहरी है

दुख का पहाड़ है

दुख में तुम्हारे .. तुम्हारे लिए

दुख मुझको भी है

रंज है मुझको कि संवेदन-प्रेरित भी

मैं कुछ कर नहीं पाती

खुले रिसते घाव को तुम्हारे 

सी नहीं…

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Added by vijay nikore on July 15, 2015 at 3:30am — 14 Comments

छुटकारा / लघुकथा /कान्ता राॅय

बरसों से पति का शराब पीकर मारने की आदत सह रही थी वो , लेकिन कल रात उसका पीकर आने के बाद बेटी का हाथ पकडना अखर गया था ।

सुबह अंगीठी के साथ वह भी सुलगती रही.  क्षोभ , घृणा , मोह और कुंठाओं को सिलबट्टे पर बरसों से संचित आँखों का नमकीन पानी डाल - डाल कर जोर - जोर से पीसती जा रही थी । आज वह कुछ तय कर बैठी थी ।


कान्ता राॅय
भोपाल
मौलिक और अप्रकाशित

Added by kanta roy on July 14, 2015 at 11:00pm — 4 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
बाबुल - लघुकथा (मिथिलेश वामनकर)

इस बार वह अकेली मायके आई थी. वो जब भी आती, बाबा से लिपट जाती. बाबा खूब दुलारते. बाबा की परी थी वो.

लेकिन इस बार बाबा बस ससुराल वालों की खैर-खबर पूछकर बाहर चले गए. माँ ने भी उसकी पसंद का भोजन पकाया था. तृप्त तो हो गई वो, मगर उसे घर के माहौल में आये बदलाव को भांपते देर न लगी. आज पूरे पंद्रह दिन हो गए थे उसे यहाँ आये हुए. बाबा बेटे की बेरोजगारी और आवारागर्दी से अब अधिक ही परेशान दिखने लगे थे. उसकी उलटी सीधी मांगों को इसी भय से मान लेते कि कहीं कुछ कर न ले. उसे भी भइया को देख कर…

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Added by मिथिलेश वामनकर on July 14, 2015 at 10:30pm — 27 Comments

असुरक्षित गर्भ (लघुकथा)

वृक्ष ने बादलों से पूछा, "हर साल की तरह इस बार कोयल को साथ क्यों नहीं लाये, उसकी कूक के बिना बरसात अच्छी नहीं लगेगी?"

"तुम्हारी जिस डाली पर वो बैठती थी, उसके ऊपर के पत्ते झड़ गये हैं, वो भीग कर मर जाये, इससे अच्छा आये ही नहीं|"

पास ही घर में एक गर्भवती पलंग पर अधलेटी नम आँखों से अपने गर्भ परिक्षण के परिणाम का इंतजार कर रही थी|

(मौलिक और अप्रकाशित)

Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on July 14, 2015 at 9:30pm — 5 Comments


प्रधान संपादक
दोगला सावन (लघुकथा)

बारिश थी कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। कच्ची छत से पानी की धाराएं निरंतर बह रहीं थीं। टपकते पानी के लिए घर में जगह जगह रखे छोटे बड़े बर्तन भी बार बार भर जाते। उसके बीवी बच्चे एक कोने में दुबके बैठे थे। परेशानी के इसी आलम में कवि सुधाकर टपकती हुई छत के लिए बाजार से प्लास्टिक की तरपाल खरीदने चल पड़ा। चौक पर पहुँचते ही पीछे से किसी ने आवाज़ दी:

"सुधाकर जी, ज़रा रुकिए।" आवाज़ देने वाला उसका एक परिचित लेखक मित्र था।   

"जी भाई साहिब, कहिए।" 

"अरे भाई कहाँ रहते हैं…

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Added by योगराज प्रभाकर on July 14, 2015 at 8:30pm — 15 Comments

प्रेयसी ( लघुकथा )

" ओफ्फो... ये बारिश भी न , एन दफ़्तर जाने के समय ही शुरू होती है ,पता नहीं क्या बैर है मुझसे । आज इतनी जरूरी मीटिंग है कि , अवकाश भी नहीं ले सकती ।" दीपा बड़बड़ाती बालकनी में खड़ी वर्षा रुकने की प्रतीक्षा करने लगी ।



तभी अंदर से लिखने में व्यस्त पति महोदय का आदेशात्मक स्वर कानों से टकराया , " दीपा ! समय है , तो एक प्याला चाय ही बना दो ।"



" जी ! बना देती हूँ ।" कह , मन ही मन बड़बड़ाते हुए रसोई में चली गई ।" बस जब देखो अपनी पड़ी रहती है , ये नहीं खुद गाड़ी से छोड़ आते । पर नहीं ।साहब… Continue

Added by shashi bansal goyal on July 14, 2015 at 7:29pm — 10 Comments

आवारा बादल .......इंतज़ार

मैं हूँ एक आवारा बादल

और मुझे एहसासों से

तरबतर करता पानी हो तुम

अपने आगोश में ले तुम्हें

मस्त हवाओं से हठखेलियाँ करता

दूर तक निकल जाता हूँ

अपार उर्जा से दमकता

गर्जन करता

इस मिलन का उद्घोष करता हूँ

मगर फिर ना जाने क्यूँ

तुम बिछुड़ जाती हो मुझसे

बरस जाती हो अपने बादल को छोड़

और देखो ...मैं बिखर जाता हूँ

मेरा अस्तित्व ही मिट जाता है

जानता हूँ

इस बंज़र ज़मीन को भी

तुम्हारी प्यास रहती है

अगर तुम न बरसो

तो नया सृजन कैसे…

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Added by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on July 14, 2015 at 4:06pm — 6 Comments

वो खोया बच्चा

घर  से  बाहर  जिसे  मैं ,

दर दर  ढूँढता  फिरा 

वो  बच्चा,

 मेरे  ही घर में  छिपकर 

मेरी  बौखलाहट पे ,

हँसता   रहा I

मै रहा  देहरियाँ  चूमता ,

मज्जिद  बुतखाने  की

मेरे दर पे बैठा वो ,

राह तकता  रहा 

मेरे  घर  लौट  आने की I

ढली  शाम ,  खाली   हाथ 

अब मैं  हूँ  लौट आया ,

किया  ढूँढने में  जिसे  

सारा  दिन जाया 

हाय , घर के अन्दर उसे

 मुस्कुराते पाया…

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Added by pratibha pande on July 14, 2015 at 11:30am — 14 Comments

किटी पार्टी ( कहानी )

किटी पार्टी मे मौजूद सभी महिलाऐं नीलिमा का इंतज़ार कर रही थीं।आज उसे न जाने क्यों इतनी देर हो गई थी।तभी वह एक दुबली पतली आकर्षक महिला के साथ आती नज़र आई।



" ये अनु है-हमारी किटी की नई मैम्बर-मेरे पड़ोस में अभी आई है ट्रान्सफर होकर-सोचा तुम सब से परिचय करा दूँ " नीलिमा ने कहा।



सभी बारी-बारी से उसे अपना परिचय देने लगीं।अनु हँसमुख स्वभाव की युवती थी।जल्दी ही उनसब के साथ घुल मिल गई।



हँसी मज़ाक के बीच गीत ने अपने एक रिश्तेदार का अनुभव बताना शुरू किया की कैसे एक बुरी आत्मा… Continue

Added by jyotsna Kapil on July 14, 2015 at 11:27am — 11 Comments

ईनसान के रूप

ईन्सान के रूप

है एक रूप पर कितने अलग, ईनसान जगत में होते हैं

कुछ जीने ना दें अपनों को, अपनों के लिये कुछ जीते हैं

बस सोचते किसने कितना दिया, अन्याय किया या न्याय किया

ऐसे ही उलझी बातों में कुछ व्यर्थ लगाते गोते हैं

 

कुछ संतोषि और तृप्त सदा, कुछ लाभ लोभ में लिप्त सदा

ज्यादा पाने की लालच में जो पास है अपने खोते हैं

 

अपनी मस्ती में जीते कुछ, नहीं कोई शिकायत दुनिया से

हर पल वो मौज मनाते हैं, खाते पीते और सोते…

Continue

Added by K K Dwivedi on July 14, 2015 at 10:30am — 1 Comment

कव्वा चला शायर की चाल ......

2 2 2 1 / 2 2 2 2 / 2 1 222



दिल में शायरी का जब भी दोर उट्ठेगा

सबसे पहले तेरे नाम का शोर उट्ठेगा !!

पहली बारिश की रिमझिम शुरू क्या हुई

देख आज बगिया में नाच मोर उट्ठेगा !!

तेज हवाएँ तेरे इश्क़ में कुछ चलीं ऐसी

दिल में एहसासों का बबंडर जोर उट्ठेगा !!

जब आयेगा धुवाँ पड़ोस के घर के चुल्हे से

तभी मेरे हाथ से ये खाने का कोर उट्ठेगा !!

बचा कर रखना ये दिल मेरी तीरंदाजी से

वर्ना लूटने 'इंतज़ार' के दिल का…

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Added by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on July 14, 2015 at 9:34am — 21 Comments

भूस्खलन इंसानियत का (लघुकथा)

लगातार हो रही वर्षा के पश्चात पुनः विद्यालय सुचारू रूप से चलना शुरू ही हुआ था कि चीख-पुकार मच गयी सभी अपनी -अपनी जान बचाकर भाग रहे थे।नया विवादित भवन पहली ही बरसात में विद्यार्थी और शिक्षकों की कब्र में परिवर्तित हो गया ।अधिकारीयों का तांता लगा रहा तत्काल प्रभाव से भेजी गयी रिपोर्ट में भवन का खण्डहर होने का कारण -
" अत्यधिक वर्षा से भूस्खलन " था।

और ठेकेदार की बहुमंजिली कोठी बरसते सावन में घी के दीयों से जगमगा रही थी।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Archana Tripathi on July 13, 2015 at 11:30pm — 13 Comments

प्राकृतिक चुनाव (लघुकथा)

बड़े से मंदिर की बड़ी सी मूर्ति के सामने हाथ जोड़कर खड़े एक बड़े आदमी ने कहा, "भगवन, हम सब जानते हैं कि प्रकृति उसी का चुनाव करती है जो सबसे शक्तिशाली होता है। जो प्रजाति कमजोर होती है और अपनी रक्षा नहीं कर पाती वो मिट जाती है। इस तरह सीमित संसाधनों का सबसे शक्तिशाली प्रजातियों द्वारा उपयोग किया जाता है और उसी से ये दुनिया विकसित होती है। तो भगवन मैंने जो मज़दूरों, गरीबों, कमजोरों और लाचारों का अपने फ़ायदे के लिए इस्तेमाल किया है वो मैंने एक तरह से प्रकृति की मदद ही की है। ऊपर से मैंने आपका ये…

Continue

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 13, 2015 at 9:30pm — 10 Comments

मिठाई ( लघुकथा )

नास्तिक बाबूजी को देर रात ,चुपके से पूजाघर से निकलते देख मानस की उत्सुकता जाग गई,और पुलिसिया मन शंकित हो उठा।वो चुपके से उनके पीछे चल पड़ा।

उन्होंने हाथ में पकड़ा लड्डू माँ की ओर बढ़ा दिया
" लो खा लो "
" ये कहाँ से लाए आप ?"
"पूजा घर से "उन्होंने निगाह चुराते हुए कहा।
उसकी आँखें भर आयीं अपनी लापरवाही पर। घर में सौगात में आये मिठाई के डिब्बों का ढेर मानो उसे मुँह चिढ़ा रहा था।


( मौलिक एवम अप्रकाशित )

Added by jyotsna Kapil on July 13, 2015 at 7:00pm — 17 Comments

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