भुलाये तो भुलाये हम तुम्हारे प्यार को कैसे
सुनाये हाल दिल का हम बता संसार को कैसे
चली जाना जरा रुक जा मनाने दे हमें खुशियाँ
बिना तेरे मनायेगें किसी त्यौहार को कैसे
लुटा कर जान भी अपनी बचा पाते मुहब्बत को
मिले खुशियाँ हमें कितनी बताये यार को कैसे
करो नफरत भले हमसे हमारी बात सुन लो तुम
गिराये आज नफरत की खड़ी दीवार को कैसे
नहीं दिखता जनाजा क्या तुझे अब जा चुके है हम
दिखाओगी भला अब तुम किये श्रृंगार को…
Added by Akhand Gahmari on July 5, 2014 at 5:19pm — 8 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on July 5, 2014 at 1:00pm — 13 Comments
“बहन ! ये औरतें गठड़ियों में क्या ले जा रही हैं ?”
”विधवा औरतों के लिए कैंप लगा है, वहां उन्हें महीने भर का राशन बांटा जा रहा है।”
पिछले तीन दिन से भूखी सुखिया ने नशे में धुत्त लेटे अपने पति को ऐसे देखा मानो आज उसे अपने “सुहागन” होने पर पछतावा हो रहा था.
(मौलिक और अप्रकाशित)
Added by Ravi Prabhakar on July 5, 2014 at 1:00pm — 9 Comments
१
देखूँ इसको मै शरमाऊं
मन का सारा हाल सुनाऊ
सांझ सवेरे इसको अर्पण
का सखी साजन ?ना सखि दर्पण
२.
चूमे होंठ लाल कर जाए
मन में शीतलता भर जाए
उस पल रहे ना कोई भान
का सखि साजन ? ना सखि पान
3.
लम्बा है इतना जैसे ऊँट
पहना नहीं है कोई सूट
तन के खड़ा है जैसे बन्ना
का सखि साजन ?ना सखी गन्ना
---------पारुल'पंखुरी'
(मौलिक औए अप्रकाशित)
Added by parul 'pankhuri' on July 5, 2014 at 10:00am — 15 Comments
2121 222 2121 222
मानसूनी बारिश के, क्या हसीं नज़ारे हैं।
रंग सारे धरती पर, इन्द्र ने उतारे हैं।
छा गया है बागों में, सुर्ख रंग कलियों पर,
तितलियों के भँवरों से, हो रहे इशारे हैं।
सौंधी-सौंधी माटी में, रंग है उमंगों का,
तर हुए किसानों के, खेत-खेत प्यारे हैं।
मेघों ने बिछाया है, श्याम रंग का आँचल,
रात हर अमावस है, सो गए सितारे हैं।
सब्ज़ रंगी सावन ने, सींच दिया है…
Added by कल्पना रामानी on July 5, 2014 at 9:30am — 10 Comments
बीबी जी, आप नौकरी क्यों करते हो ? आपके पास तो पैसे की कोई कमी नहीं है |"
"पैसा ही सब नहीं होता रे जिंदगी में, आखिर इतनी पढ़ाई लिखाई कब काम आएगी" मैंने अपनी काम वाली बाई को समझाते हुए कहा.
अभी कुछ दिन पहले ही जब उसने तनख्वाह बढ़ाने की प्रार्थना की थी मैंने बड़े ही कठोर लहजे में मना कर दिया था | आज शायद पढ़ाई लिखाई का महत्त्व बाई की समझ में आ गया था |
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Added by विनय कुमार on July 5, 2014 at 3:00am — 15 Comments
सपनो का गाँव,
पीपल की छावो,
नदी का वह तट ,
नहाती जहाँ झट -पट
किनारे के लोग कभी
नहीं देखते थे एकटक .
बदल गए वो भाव
बदल गया गाँव,
झूमर औ गीत गए
रिश्ते अब रीत गए
लक्ष्मी जब भाग गई
आँखों की लाज गई
अब दीदे हुए बेशर्म
गाँव का माहौल गर्म
आतंक, भूख , भय
राजनीती देती प्रश्रय
सुख गए अब खेत,
माटी बन गई रेत,
भागे सब शहर को
कौन करे अब सेत.
पसर रहा है मौन
जिम्मेवार है कौन?
विजय प्रकाश…
Added by Dr.Vijay Prakash Sharma on July 4, 2014 at 11:47pm — 15 Comments
1.
खर्चा-आमद एक सा, क्या नफरत क्या प्यार
छाना-फूँका पी लिया, फिर चिंता क्या यार
फिर चिंता क्या यार, गजब हूँ धुन का पक्का
रह-रह चढ़े तरंग, जगत भी हक्का-बक्का
रहता मस्त-मलंग, फाड़ता रह-रह पर्चा
और खुले ये हाथ, यहीं हर…
Added by Saurabh Pandey on July 4, 2014 at 10:00pm — 24 Comments
बूढ़े बरगद की आँखें नम हैं
गाँव-गाँव पे हुआ कहर है, होके खंडहर बसा शहर है
बूढा बरगद रोता घूमे, निर्जनता का अजब कहर है
नीम की सिसकी विह्वल देखती, हुआ बेगाना अपनापन है
सूखेपन सी हरियाली में, सुन सूनेपन का खेल अजब है
ऋतुओं के मौसम की रानी, बरखा रिमझिम करे सलामी
बरगद से पूंछे हैं सखियाँ, मेरा उड़नखटोला गया किधर है
सूखे बम्बा, सूखी नदियाँ, हुई कुएं की लुप्त लहर है
निर्जन बस्ती व्यथित खड़ी है, पहले…
Added by sunita dohare on July 4, 2014 at 9:00pm — 5 Comments
सन १९८३ मार्च या अप्रेल का महीना हम कुछ परिवार मिलकर विशाखापत्तनम के ऋषिकोंडा बीच पर पिकनिक मनाने गए | उस वक़्त मेरे पति भारतीय नौसेना में अधिकारी थे अतः मित्र परिवार भी नेवी वाले ही थे|बीच पर पंहुचते ही अचानक तेज बारिश होने लगी|मेरे दोनों बच्चे बहुत छोटे थे अतः उनको भीगने से बचाने के लिए जगह खोजने लगे |
बीच के किनारे पर मछुआरों की बस्ती थी उन्होंने हमारी परेशानी समझी और हमे अपनी झोंपड़ियों में बिठाया| मछली की बू सहन भी नहीं हो रही थी किन्तु मजबूरी थी फिर उन्होंने कहीं से दूध का…
ContinueAdded by rajesh kumari on July 4, 2014 at 8:20pm — 16 Comments
कभी यूँ भी हुआ है
कि
मन ही मन
उन्हें बुलाया
और वो दौड़े आये हैं...
मीलों के फासलों को झुठलाते,
मुलाकातों की सौगातें लिए,
दबे पाँव
नींदों में....
मुमकिन नहीं
जिन बीजों का पनपना भी,
उनकी खुशबू से
ख़्वाबों में महकती हैं
फिजाएं अक्सर....
और,
मैं मुस्कुराती हूँ ....
क्योंकि-
दिवास्वप्न
जिनकी मंजिल तक
कोई राह नहीं जाती
शुक्र…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on July 4, 2014 at 5:00pm — 14 Comments
वो सुबह कभी तो आयगी …………..
उफ़्फ़ !
ये आज सुबह सुबह
इतनी धूल क्योँ उड़ रही है
ये सफाई वाले भी
जाने क्योँ
फुटपाथ की जिन्दगी के दुश्मन हैं
उठो,उठो,एक कर्कश सी आवाज
कानों को चीर गयी
हमने अपनी आंखें मसलते हुए
फटे पुराने चीथड़ों में लिपटी
अपनी ज़िन्दगी को समेटा
और कहा,उठते हैं भाई उठते हैं
रुको तो सही
तभी सफाई वाले ने हमसे कहा
अरे…
Added by Sushil Sarna on July 4, 2014 at 2:00pm — 12 Comments
कुछ ऐसी बात कह देना बे आवाज, महज़ इशारों से
जो नहीं कहनी चाहिये , किसी सूरत नहीं
या , कुछ ऐसी बात न कहना जिसे कह देना ज़रूरी है
किसी के भले के लिये ,खुशी के लिये , वो भी इसलिये
ताकि हम छीन सकें , किसी के होठों की हँसी
नोच सकें किसी के मन की शांति
उतार सकें , बिखरा सकें
विचारों के , भावों के समत्व को
अन्दर के प्यार को , ममत्व को
छितरा सकें मन की शांति
ताकि टूट जाये , बिखर जाये किसी का व्यक्तित्व
किसी को…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on July 4, 2014 at 11:30am — 15 Comments
एक बाजू गर्वीला पर्वत
अपनी ऊँचाई और धवलता पर इतराता
क्यूँ देखेगा मेरी ओर?
गर्दन झुकाना तो उसकी तौहीन है न!
दूजी बाजू छिः !! यह तुच्छ बदसूरत बदरंग शिलाखंड
मैं क्यूँ देखूँ इसकी ओर
कितना छोटा है ये
इसकी मेरी क्या बराबरी
समक्ष,परोक्ष ये ईर्ष्यालू भीड़ ,उफ्फ!!
जब सबकी अपनी-अपनी अहम् की लड़ाई
और मध्य में वर्गीकरण की खाई
फिर क्यूँ शिकायत
अकेलेपन से!!
अपने दायरे में
संतुष्ट क्यों नहीं…
ContinueAdded by rajesh kumari on July 3, 2014 at 10:42pm — 12 Comments
तुझे देखे अगर कोई जलन होती है सीने में,
सितम के सौ बरस गुजरें मोहब्बत के महीने में,
खुदाया क्या हुआ मुझको ये कैसा बावलापन है,
मैं खुद को जब भी देखूं तू दिखाई दे आईने में।।
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बेमतलब की बात बताने लगते हैं
खुद अपनी औक़ात बताने लगते हैं
नेता हैं वे राजनीति के मंचों से
सीने की भी नाप बताने लगते हैं।।
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अंधेरे घर में वो दीपक जला के निकला है
जिस्म की रूह से पसीना बहा के…
Added by atul kushwah on July 3, 2014 at 10:00pm — 3 Comments
आ. तिलक राज कपूर सर के मार्गदर्शन से एक ग़ज़ल कहने का प्रयास किया है .. उम्मीद है आप का स्नेह प्राप्त होगा
.
12122/ 12122/ 12122/ 12122
हया के मारे वो वस्ल के पल, नज़र का पर्दा गिरा रही है,
मगर ये गालों की सुर्ख़ रंगत, हर एक ख्वाहिश बता…
Added by Nilesh Shevgaonkar on July 3, 2014 at 5:00pm — 19 Comments
2222 2222 2222 22
चलते चलते इन राहों में जब मिल जाते हो तुम
जाने क्या हो जाता है जो यूं सकुचाते हो तुम
तेरी आँखों में लगता है काला कोइ जादू
जिसपे नजरें पड़ जाती उसको भरमाते हो तुम
इक पल को आते हो छत पर फिर गुम हो जाते हो
क्या बच्चो के जैसा ही हमको बहलाते हो तुम
उजला उजला योवन तेरा फूलों सा है भाये
क्यूँ छुईमुई जैसा छू लेने पर मुरझाते हो तुम
तेरी इन मादक आँखों से मदिरा छलका…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Mishra on July 3, 2014 at 3:39pm — 8 Comments
जब से उस युवा चींटे के पँख निकले थे वह हवा बातें करने लगा था. उसने सभी परिजनों और मित्रजनो पर अपने नए नए निकले पँखों का रुआब डालना शुरू कर दिया था, उसका आत्मविश्वास देखते ही देखते आत्ममुग्धता का रूप धारण कर गया। इस बदले हुए स्वरूप को देख देख उसकी माँ रूह तक काँप जाती. लाख समझाने पर भी बेटा यथार्थ के धरातल पर आने को तैयार न हुआ तो एक दिन बूढ़ी माँ ने अपनी बहू को सफ़ेद जोड़ा देते हुए भरे गले से कहा "इसे अपने पास रख ले बेटी।"
(मौलिक और अप्रकाशित)
Added by योगराज प्रभाकर on July 3, 2014 at 3:20pm — 38 Comments
3 मुक्तक …
१.
ऐ खुदा मुझ को बता कैसा तेरा दस्तूर है
तुझसे मिलने के लिए बंदा तेरा मजबूर है
जब तलक रहती हैं सांसें दूरियां मिटती नहीं
नूर हो के रूह का तू क्यूँ उसकी रूह से दूर है
२.
हिसाब तो साथ ज़िंदगी के पूरा हुआ करता है
साँसों के बाद ज़िस्म फिर धुंआ हुआ करता है
टुकड़ों में बिखर जाता है हर पन्ना ज़िन्दगी का
ज़मीं का बशर फिर आसमाँ का हुआ करता है
३.
हम परिंदों को खुदा से बन्दगी नहीं आती…
ContinueAdded by Sushil Sarna on July 3, 2014 at 11:30am — 12 Comments
2122 2122 2122 212
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सावनों में फिर हमारे घाव ताजा हो गये
रंक सुख से हम जनम के, दुख के राजा हो गये
**
साथ माँ थी तो दुखों में भी सुखों की थी झलक
माँ गयी है छोड़ जब से सुख जनाजा हो गये
**
कल तलक जिनकी गली भी कर रही नासाज थी
आज क्यों कर वो तुम्हारे दिल के ख्वाजा हो गये ( ख्वाजा - स्वामी )
**
कोइ चाहे देह हरना और कोई दौलतें
आज …
ContinueAdded by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 3, 2014 at 11:00am — 8 Comments
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