कुछ काम से कमरे में आई तो देखा , उसका पति सूटकेस में कपड़े जमा रहा था , हैरान हो उसने पूछा ," कहीं बाहर जा रहे हैं ? मुझे कुछ बताया भी नहीं ? यूँ अचानक .. आखिर बात क्या है ? "
" ....................... "
"मैं कुछ पूछ रही हूँ , जवाब क्यों नहीं देते । "
"तुम्हें नहीं लगता संगीता तुमने कुछ पूछने में बहुत देर कर दी । "
"देखो, बच्चों के खाने का समय हो रहा है । फिर मिन्नी की अधूरी पड़ी नई ड्रेस भी सिलना है और बेटू कह रहा था , उसके सिर में दर्द है तो मालिश भी करनी है I सो अभी मेरे…
Added by shashi bansal goyal on August 18, 2015 at 6:00pm — 11 Comments
दीनदयाल की विधवा की दस लाख की लॉटरी खुल गयी!घर रिश्तेदारों से भर गया I छोटा दो कमरों का मकान! मॉ बेटी दो प्राणी, दौनों परेशान!
"अम्मा, ये लोग कौन हैं,और कब तक रहेंगे"!
"बेटी,ऐसे नहीं बोलते, मेहमान हैं,बधाई देने आये है"!
"मैने तो कभी नहीं देखा इनको"!
"ये तेरे बापू के करीबी रिश्तेदार हैं"!
"अम्मा,दो महिने पहले जब बापू शांत हुए थे, तब तो कोई नहीं आया था"!
मंदिर में भज़न बज रहा था,"सुख के सब साथी, दुख में न कोय"!
.
मौलिक व अप्रकाशित
Added by TEJ VEER SINGH on August 18, 2015 at 5:00pm — 14 Comments
"क्या कर रहा है i,बार बार साँस तोड़ कर सुर गड़बड़ा रहा है ..ध्यान कहाँ है तेरा ?"
"जी ,वो रात से घरवाली की हालत बहुत खराब है ,..यहाँ से फारिग हो जाऊं ,और पैसे मिल जाएँ तो अस्पताल ले जाऊं "
"मिल जाएंगे पैसे , करोड़ों की इस शादी का इंतजाम लिया है मैंने ,तू अच्छी शहनाई बजाता है खासकर बिदाई की ,इसलिए तुझे पूरे दो हज़ार दे रहा हूँ एक घंटे के ,बस 10-15 मिनट में हो जाएगी बिदाई, चले जाना "I
उसने शहनाई पर होंठ रखे ही थे कि कंधे पर हाथ महसूस किया ,छोटा भाई था .. बदहवास, चेहरा…
ContinueAdded by pratibha pande on August 18, 2015 at 10:30am — 22 Comments
Added by Samar kabeer on August 17, 2015 at 10:48pm — 19 Comments
Added by Dr T R Sukul on August 17, 2015 at 10:26pm — 11 Comments
आरोह-अवरोह
कभी-कभी ... कभी कभी
आत्म-चेतन अंधेरे में ख़यालों के जंगल में
रुँधे हुए, सिमटे हुए, डरे-डरे
चुन रहा हूँ मानो अंतिम संस्कार के बाद
झुठलाती-झूठी ज़िन्दगी के फूल
और सौ-सौ प्रहरी-से खड़े आशंका के शूल
दो टूक हुई आस्था की काँट-छाँट
अच्छे-बुरे तजुर्बे बेपहचाने
पावन संकल्प, पुण्य और पाप
पानी और तेल और राख
कितना कठिन है प्रथक करना
सही और गलत के तर्क से ओझल हो कर
कठिन है…
ContinueAdded by vijay nikore on August 17, 2015 at 3:30pm — 12 Comments
Added by Manan Kumar singh on August 17, 2015 at 10:00am — 8 Comments
1222 — 1222 — 1222 — 1222 |
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प्रकाशित और नित् निर्मल जो मन होगा तो क्या होगा? |
हमारा और उनका जब मिलन होगा तो क्या होगा? |
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उन्हें इस बात का आभास हो जाए तो अच्छा… |
Added by मिथिलेश वामनकर on August 17, 2015 at 9:30am — 24 Comments
बन सौभाग्य सँवारे मुझको
सावन घिरे पुकारे मुझको
हाथ पकड़ झट कर ले बंदी
क्या सखि साजन?न सखि मेहंदी
उसने हाय! शृंगार निखारा
प्रेम रचा मन भाव उभारा
प्रेम राह पर गढ़ी बुलंदी
क्या सखि साजन? न सखि मेहंदी
अंग लगे तो मन खिल जाए
खुशबू साँसों को महकाए
प्यारी उसकी घेराबंदी
क्या सखि साजन? न सखि मेहंदी
उसमें महक दुआओं की है
उसमें चहक फिजाओं की है
हिमशीतल निर्झर कालिंदी
क्या…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on August 17, 2015 at 8:15am — 14 Comments
Added by S.S Dipu on August 17, 2015 at 1:30am — 8 Comments
परिणति पीड़ा
रिश्ते के हर कदम पर, हर चौराहे पर
हर पल
भटकते कदम पर भी
मेरे उस पल की सच्चाई थी तुम
जिस-जिस पल वहीं कहीं पास थी तुम
जीवन-यथार्थ की कठिन सच्चाइयों के बीच भी
खुश था बहुत, बहुत खुश था मैं
पर अजीब थी ज़िन्दगी वह तुम्हारे संग
स्नेह की ममतामयी छाओं के पीछे भी मुझमें
था कोई अमंगल भ्रम
भीतरी परतों की सतहों में हो जैसे
अन-चुकाये कर्ज़ का कंधों पर भार
तुमसे कह न सका पर इतनी…
ContinueAdded by vijay nikore on August 16, 2015 at 5:30pm — 30 Comments
बह्र : २२ २२ २२ २२
श्रोडिंगर ने सच बात कही
हम जिन्दा भी हैं मुर्दा भी
इक दिन मिट जाएगी धरती
क्या अमर यहाँ? क्या कालजयी?
उस मछली ने दुनिया रच दी
जो ख़ुद जल से बाहर निकली
कुछ शब्द पवित्र हुए ज्यों ही
अपवित्र हो गए शब्द कई
जिस दिन रोबोट हुए चेतन
बन जाएँगें हम ईश्वर भी
मस्तिष्क मिला बहुतों को पर
उनमें कुछ को ही रीढ़ मिली
मैं रब होता, दुनिया…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 16, 2015 at 2:57pm — 19 Comments
लघुकथा – पारिभाषिक पेटेंट
“ जनता का , जनता द्वारा, जनता पर शासन- अब्राहिम लिंकन.”
“ शाबाश बेटा.” शिक्षक के आँखों में चमक आ गई, “ अब कौन बताएगा ?”
“ सर ! मैं बताऊँ ?”
“ अरे ! तू बताएगा. कभी स्कूल समय से आया नहीं. प्रश्नोत्तर लिखे नहीं. रोज कामधंधे पर जाता है. तू क्या जानता है इस बारे में. चल तू भी बता दे ?”
“ सर ! हमारे द्वारा, हम पर शासन.”
यह सुन कर शिक्षक को एकलव्य और गुरु द्रोण याद आ गए , “ ओह ! यह तो प्रजातंत्र पर मेरी पारिभाषिक खोज हो सकती…
ContinueAdded by Omprakash Kshatriya on August 16, 2015 at 11:00am — 11 Comments
२१२२ २१२२ २१२२ २१२१ दीप राहों में जलाओ जशने आज़ादी है आज, ध्वज वतन का लह्लहाओ जशने आज़ादी है आज,
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Added by rajesh kumari on August 16, 2015 at 10:30am — 16 Comments
" बाबू जी ! कबाड़ी वाले को क्यों बुलाया था ? "
" बस , यूँ ही . बेटा ."
" यूँ ही क्यों बाबू जी ! आप तो उससे कह रहे थे कि इस घर का सबसे बड़े कबाड़ आप हैं और वह आपको ही ले जाये ."
" इसमें झूठ क्या है ? इस घर में मेरी हस्ती कबाड़ से ज्यादा है क्या ? "
" बाबू जी , प्लीज़ आप ऐसा न कहिये . क्या मैं या इंदु आपका ख्याल नहीं रखते ? "
" दिन भर कबाड़ की तरह घर के इस या उस कोने में पड़ा रहता हूँ और वक्त - बेवक्त तोड़ने के लिए दो रोटियाँ मिल जाती हैं , तुम दोनों ने मेरे…
ContinueAdded by सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा on August 16, 2015 at 9:30am — 5 Comments
Added by दिनेश कुमार on August 15, 2015 at 5:30pm — 7 Comments
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 15, 2015 at 11:24am — 10 Comments
2222 2222 2222 222
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रोने का तुम नाम न लेना रीत बनाओ हँसने की
रोने धोने में क्या रक्खा होड़ लगाओ हँसने की /1
******
माना पाँव धँसे हैं कब से पार उतरना मुश्किल है
पीड़ाओं के इस दलदल में गंग बहाओ हँसने की /2
******
परपीड़ा में सुख मत खोजो ये पथ घेरे वाला है
दूर तलक जो ले जाती है राह बताओ हँसने की /3
******
पोंछो आँसू बाढ़ में इसकी खुशियों के घर बहते हैं
निर्जन में भी यारो बस्ती…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 15, 2015 at 10:30am — 12 Comments
1.
तू मेरा हमसफ़र है
दुनिया को तो क्या
तुझे ही पता नहीं.
2.
अबकी सुबह
होगा तेरा दीदार
सोचता तो रोज ही हूँ
3.
माँगा था उसे
इबादत की तरह
सुना है इबादत
कभी बेकार नहीं जाती
4. बड़ी शिद्द्त के बाद
तेरा सामना हुआ
तू तो उम्मीद से आगे
खूबसूरत निकला
5. चलो छोड़ो बहुत हो गया
कोई भला इतनी देर के लिए
भी रूठता है क्या…
ContinueAdded by सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा on August 14, 2015 at 6:00pm — 3 Comments
आज़ादी के कई सालों बाद
उसकी तलाश ज़रूरी लगती है .
प्रजातन्त्र की भौतिकवादी
प्रवित्रियो में लिप्त आज़ादी अधूरी लगती है.
आज़ादी की तलाश उन बcचो के सपनों में है
जिनका बचपन कलम-किताब छोड़ होटलों में बिकता है
आज़ादी की तलाश किसानों के खेतों में है
जिनके आखों में पानी और गले मे मौत है
आज़ादी की तलाश वेरोज़गार युवीमन में है
जहाँ आखरी डिग्री की आस है
जिससे भूखा पेट भरा जा सके
आज़ादी की तलाश फूटपाथ पर सोए लोगों…
ContinueAdded by दिलीप कुमार तिवारी on August 14, 2015 at 1:30am — 4 Comments
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